Saturday, 6 May 2017

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.२१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।३२।।

हे अर्जुन सम्पूर्ण सर्गोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। विद्याओंमें अध्यात्मविद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करनेवालोंका (तत्त्वनिर्णयके लिये किया जानेवाला) वाद मैं हूँ।

व्याख्या—

इसी अध्यायके बीसवें श्लोकमें भगवान्‌ने ‘अहमादिश्‍च मध्यं च भूतानामन्त एव च’ कहकर व्यष्टिरूपसे अपनी विभूति बतायी थी, अब यहाँ ‘सर्गाणामादिरन्तश्‍च मध्यं चैवाहमर्जुन’ कहकर समष्टिरूपसे अपनी विभूति बताते हैं । तात्पर्य है कि व्यष्टि अथवा समष्टिरूपसे जो कुछ दीखने, सुनने, चिन्तन करने आदिमें आता है, वह सब एक भगवान्‌ ही हैं ।

ॐ तत्सत् !

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