Sunday, 30 April 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.०५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥ ७॥

इसलिये हे धनंजय! मेरे सिवाय (इस जगत् का) दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी (कारण तथा कार्य) नहीं है। जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत् मुझमें ही ओत-प्रोत है।

व्याख्या—

जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई हों तो उनमें सूतके सिवाय अन्य कुछ नहीं है, ऐसे ही मणिरूप अपरा प्रकृति और धागारूप परा प्रकृति-दोनोंमें एक भगवान ही परिपूर्ण हैं अर्थात्‌‌ एक भगवान्‌के सिअय अन्य कुछ नहीं है । तात्त्विक दृष्टिसे देखें तो न धागा है, न मणियाँ हैं, प्रत्युत एक सूत (रुई) ही है । इसी तरह न परा है, न अपरा है, प्रत्युत एक परमात्म ही हैं ।

इस श्लोकमें आये ‘मत्तः परतरं नान्यत्‌’ पदोंसे आरम्भ करके बारहवें श्लोकके ‘मत्त एवेति तान्विद्धि’ पदोंतक भगवान्‌ने यही सिद्ध किया है कि मेरे सिवाय कुछ भी नहीं है, सब कुछ मैं ही हूँ ।

ॐ तत्सत् !

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