॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥ ३॥
हजारों मनुष्योंमें कोई एक सिद्धि (कल्याण)-के लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले सिद्धों (मुक्त पुरुषों)-में कोई एक ही मुझे यथार्थरूपसे जानता है।
व्याख्या—
वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कठिन या दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत परमात्मप्राप्तिके मार्गपर चलनेवाले बहुत कम हैं । अधिकतर मनुष्य सांसारिक भोग और संग्रहमें ही रचे-पचे रहते हैं । इसलिये हजारों मनुष्योंमें कोई एक ही मनुष्य लगनपूर्वक परमात्माकी तरफ चलता है । परन्तु लगनके साथ भोगेच्छा, माम-बड़ाई और आरामकी इच्छा भी रहनेके कारण उनमें भी कोई एक परमात्मतत्त्वको प्राप्त करता है । परमात्माको प्राप्त उन जीवन्मुक्त ज्ञानी महापुरुषोंमें भी कोई एक ही भगवान्को जाननेकी इच्छावाला तथा भगवान्पर विश्वास रखनेवाला महापुरुष ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’-इस प्रकार भगवान्के समग्ररूपको जानता है और भगवत्प्रेमको प्राप्त करता है । तात्पर्य है कि भगवान्के समग्ररूपको जाननेवाला प्रेमी भक्त अत्यन्त दुर्लभ है (गीता ७ । १९) ।
भगवान्के समग्ररूपको जानना ही भगवान्को यथार्थरूपसे जानना है । भगवान्के यथार्थरूपको भक्तिसे ही जाना जा सकता है (गीता १८ । ५५) ।
जिस साधकके भीतर भक्तिके संस्कार हैं, जो भक्तिका खण्डन नहीं करता, वह जब मुक्त होता है तब उसके भीतर नाशवान् रसकी कामना तो सर्वथा मिट जती है, पर अनन्तरसकी भूख नहीं मिटती । तब भगवान् कृपा करके मुक्तिके अखण्डरसको फीका कर देते हैं और प्रेमका अनन्तरस प्रदान करते हैं ।
किसी वस्तुके आकर्षणसे जो सुख मिलता है, वह सुख उस वस्तुके ज्ञानसे नहीं मिलता-यह सिद्धान्त है । जैसे, रुपयोंके आकर्षण (लोभ)-से जो सुख मिलता है, वह रुपयों के ज्ञानसे नहीं मिलता ।
कर्मयोगमें संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होने पर शान्त आनन्द (शान्ति) मिलता है । ज्ञानयोगमें स्वरूपका बोध होनेपर अखण्ड आनन्द मिलता है । भक्तियोगमें भगवान्की ओर आकर्षण होनेसे अनन्त आनन्द (प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम) मिलता है ।
ॐ तत्सत् !
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥ ३॥
हजारों मनुष्योंमें कोई एक सिद्धि (कल्याण)-के लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले सिद्धों (मुक्त पुरुषों)-में कोई एक ही मुझे यथार्थरूपसे जानता है।
व्याख्या—
वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कठिन या दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत परमात्मप्राप्तिके मार्गपर चलनेवाले बहुत कम हैं । अधिकतर मनुष्य सांसारिक भोग और संग्रहमें ही रचे-पचे रहते हैं । इसलिये हजारों मनुष्योंमें कोई एक ही मनुष्य लगनपूर्वक परमात्माकी तरफ चलता है । परन्तु लगनके साथ भोगेच्छा, माम-बड़ाई और आरामकी इच्छा भी रहनेके कारण उनमें भी कोई एक परमात्मतत्त्वको प्राप्त करता है । परमात्माको प्राप्त उन जीवन्मुक्त ज्ञानी महापुरुषोंमें भी कोई एक ही भगवान्को जाननेकी इच्छावाला तथा भगवान्पर विश्वास रखनेवाला महापुरुष ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’-इस प्रकार भगवान्के समग्ररूपको जानता है और भगवत्प्रेमको प्राप्त करता है । तात्पर्य है कि भगवान्के समग्ररूपको जाननेवाला प्रेमी भक्त अत्यन्त दुर्लभ है (गीता ७ । १९) ।
भगवान्के समग्ररूपको जानना ही भगवान्को यथार्थरूपसे जानना है । भगवान्के यथार्थरूपको भक्तिसे ही जाना जा सकता है (गीता १८ । ५५) ।
जिस साधकके भीतर भक्तिके संस्कार हैं, जो भक्तिका खण्डन नहीं करता, वह जब मुक्त होता है तब उसके भीतर नाशवान् रसकी कामना तो सर्वथा मिट जती है, पर अनन्तरसकी भूख नहीं मिटती । तब भगवान् कृपा करके मुक्तिके अखण्डरसको फीका कर देते हैं और प्रेमका अनन्तरस प्रदान करते हैं ।
किसी वस्तुके आकर्षणसे जो सुख मिलता है, वह सुख उस वस्तुके ज्ञानसे नहीं मिलता-यह सिद्धान्त है । जैसे, रुपयोंके आकर्षण (लोभ)-से जो सुख मिलता है, वह रुपयों के ज्ञानसे नहीं मिलता ।
कर्मयोगमें संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होने पर शान्त आनन्द (शान्ति) मिलता है । ज्ञानयोगमें स्वरूपका बोध होनेपर अखण्ड आनन्द मिलता है । भक्तियोगमें भगवान्की ओर आकर्षण होनेसे अनन्त आनन्द (प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम) मिलता है ।
ॐ तत्सत् !
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