श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय:।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥ १॥
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत:।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ २॥
श्रीभगवान् बोले—हे पृथानन्दन! मुझमें आसक्त मनवाला, मेरे आश्रित होकर योगका अभ्यास करता हुआ तू मेरे जिस समग्ररूपको नि:सन्देह जिस प्रकारसे जानेगा, उसको (उसी प्रकारसे) सुन।
तेरे लिये मैं यह विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्णतासे कहूँगा, जिसको जाननेके बाद फिर इस विषयमें जाननेयोग्य अन्य (कुछ भी) शेष नहीं रहेगा।
व्याख्या—
आत्मीयताके कारण जिसका मन भगवान्की ओर आकर्षित हो गया है, जो सब प्रकारसे भगवान्के आश्रित हो गया है और जिसने भगवान्के साथ अपने नित्य-सम्बन्धको पहचान लिया है, ऐसा भक्त भगवान्के समग्ररूपको जान लेता है । सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि सब कुछ एक भगवान् ही हैं-यह भगवान्का समग्ररूप है । भगवान् कहते हैं कि पार्थ ! अपने समग्ररूपका वर्णन मैं इस ढंगसे करूँगा, जिससे तू मेरे समग्ररूपको सुगमतापूर्वक यथार्थरूपसे जान लेगा और तेरे सब संशय मिट जायँगे ।
परा और अपरा प्रकृतिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है-- यह ‘ज्ञान’ है और परा-अपरा सब कुछ एक भगवान् ही हैं- यह ‘विज्ञान’ है । अहम्सहित सब कुछ भगवान् ही हैं-यह भगवान्का समग्ररूप ही ‘विज्ञानसहित ज्ञान’ है । इस विज्ञानसहित ज्ञानको जाननेके बाद और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता; क्योंकि ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’-इसे जाननेके बाद यदि कुछ शेष रहेगा तो वह भी भगवान् ही होंगे !
ॐ तत्सत् !
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