Tuesday, 25 April 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.३३)

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥ ४६॥

(सकामभाववाले) तपस्वियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है, ज्ञानियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है और कर्मियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है—ऐसा मेरा मत है। अत: हे अर्जुन! तू योगी हो जा।

व्याख्या—

जो लौकिक सिद्धियोंको पानेके लिये तपस्या करते हैं, जो शास्त्रोंके ज्ञाता हैं और जो सकामभावसे यज्ञ, दान आदि कर्म करते हैं, उन सबसे योगी श्रेष्ठ है । कारण कि तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी-इन तीनोंका उद्देश्य संसार है और भाव सकाम है; परन्तु योगीका उद्देश्य परमात्मा है और भाव निष्काम है ।

ॐ तत्सत् !

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