Tuesday, 25 April 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.३४)

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥ ४७॥

सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मनसे मेरा भजन करता है, वह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है।

व्याख्या—

तपस्वियों, ज्ञानियों और कर्मियोंसे तो योगी श्रेष्ठ है, पर योगियों से भी भगवान्‌ का भक्त श्रेष्ट है । योगी तो योगभ्रष्ठ होसकता है, पर भक्त कभी योगभ्रष्ट हो सकता ही नहीं; क्योंकि वह भगवान्‌ के आश्रित रहता है । भगवान्‌ के ही आश्रित रहने के कारण भगवान्‌ उसकी विशेष रक्षा करते हैं । योगी में तो मुक्त होने पर भी अहम्‌ की सूक्ष्म गन्ध रह सकती है, पर भक्त में अहम्‌ की सूक्ष्म गन्ध भी नहीं रहती । भक्त को उस प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम की प्राप्ति होती है, जिसकी भूख महायोगेश्‍वर भगवान्‌ में भी है !

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम
षष्ठोऽध्याय:॥ ६॥

ॐ तत्सत् !

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