॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स:।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥ ४४॥
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष:।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥ ४५॥
वह (श्रीमानों के घर में जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट मनुष्य) भोगोंके परवश होता हुआ भी उस पहले मनुष्यजन्ममें किये हुए अभ्यास (साधन)-के कारण ही (परमात्माकी तरफ) खिंच जाता है; क्योंकि योग (समता)-का जिज्ञासु भी वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है।
परन्तु जो योगी प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है और जिसके पाप नष्ट हो गये हैं तथा जो अनेक जन्मोंसे सिद्ध हुआ है, वह योगी फिर परम गतिको प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या—
स्वर्गादि लोकों से लौटकर श्रीमानों के घर में जन्म लेनेवाला साधक पहले किये हुए साधन के कारण जबर्दस्ती परमात्माकी तरफ खिंच जाता है ।
जो योग में प्रवृत्त नहीं हुआ है, पर अन्तःकरणमें योगका महत्त्व होनेके कारण जो योगको प्राप्त करना चाहता है, ऐसा योगका जिज्ञासु भी वदोक्त सकामकर्मोंसे तथा उनके फलसे ऊँचा उठ जाता है, फिर जो योगमें लगा हुआ है और योगभ्रष्ट हो गया है, उसका कल्याण हो जाय-इसमें कहना ही क्या है !
‘अनेकजन्म’ का अर्थ है-एकसे अधिक जन्म । श्रीमानों के घर में जन्म लेनेवाला सर्वप्रथम मनुष्यजन्म में साधन करके शुद्ध हुआ, फिर स्वर्गादि लोकों में जाकर वहाँ के भोगों से अरुचि होनेसे शुद्ध हुआ, और फिर श्रीमानों के घर जन्म लेकर तत्परतापूर्वक साधन में लगकर शुद्ध हुआ-इस प्रकार तीन जन्मों में शुद्ध होना ही उसक ‘अनेकजन्मसंसिद्ध’ होना है ।
ॐ तत्सत् !
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स:।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥ ४४॥
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष:।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥ ४५॥
वह (श्रीमानों के घर में जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट मनुष्य) भोगोंके परवश होता हुआ भी उस पहले मनुष्यजन्ममें किये हुए अभ्यास (साधन)-के कारण ही (परमात्माकी तरफ) खिंच जाता है; क्योंकि योग (समता)-का जिज्ञासु भी वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है।
परन्तु जो योगी प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है और जिसके पाप नष्ट हो गये हैं तथा जो अनेक जन्मोंसे सिद्ध हुआ है, वह योगी फिर परम गतिको प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या—
स्वर्गादि लोकों से लौटकर श्रीमानों के घर में जन्म लेनेवाला साधक पहले किये हुए साधन के कारण जबर्दस्ती परमात्माकी तरफ खिंच जाता है ।
जो योग में प्रवृत्त नहीं हुआ है, पर अन्तःकरणमें योगका महत्त्व होनेके कारण जो योगको प्राप्त करना चाहता है, ऐसा योगका जिज्ञासु भी वदोक्त सकामकर्मोंसे तथा उनके फलसे ऊँचा उठ जाता है, फिर जो योगमें लगा हुआ है और योगभ्रष्ट हो गया है, उसका कल्याण हो जाय-इसमें कहना ही क्या है !
‘अनेकजन्म’ का अर्थ है-एकसे अधिक जन्म । श्रीमानों के घर में जन्म लेनेवाला सर्वप्रथम मनुष्यजन्म में साधन करके शुद्ध हुआ, फिर स्वर्गादि लोकों में जाकर वहाँ के भोगों से अरुचि होनेसे शुद्ध हुआ, और फिर श्रीमानों के घर जन्म लेकर तत्परतापूर्वक साधन में लगकर शुद्ध हुआ-इस प्रकार तीन जन्मों में शुद्ध होना ही उसक ‘अनेकजन्मसंसिद्ध’ होना है ।
ॐ तत्सत् !
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