अर्जुन उवाच
अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥ ३७॥
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मण: पथि॥ ३८॥
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषत:।
त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥ ३९॥
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥ ४०॥
अर्जुन बोले—
हे कृष्ण ! जिसकी साधनमें श्रद्धा है, पर जिसका प्रयत्न शिथिल है, वह (अन्तसमयमें) अगर योगसे विचलित हो जाय तो वह योगसिद्धिको प्राप्त न करके किस गतिको चला जाता है?
हे महाबाहो! संसारके आश्रयसे रहित और परमात्मप्राप्तिके मार्गमें मोहित अर्थात् विचलित—इस तरह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता?
हे कृष्ण! मेरे इस सन्देहका सर्वथा छेदन करनेके लिये आप ही योग्य हैं;क्योंकि इस संशयका छेदन करनेवाला आपके सिवाय दूसरा कोई हो नहीं सकता।
श्रीभगवान् बोले—
हे पृथानन्दन ! उसका न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है; क्योंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को नहीं जाता।
व्याख्या—
जैसे कोई बद्रीनाथ की यात्रापर निकले तो वह रात होते-होते जहाँतक पहुँच चुका है, प्रातः उठनेके बाद वह वहींसे यात्रा आरम्भ करता है । रातको सोनेपर वह वापिस अपने घर नहीं पहुँच जाता ! ऐसे ही ध्यानयोगी जिस स्थितितक पहुँच चुका है, मरनेपर वह उस स्थितिसे नीचे नहीं गिरता । उसका किया हुआ साधन नष्ट नहीं होता । कारण यह है कि उसका उद्देश्य अपने कल्याणका बन चुका है । अब वह दुर्गतिमें नहीं जा सकता । इसलिये परमात्मप्राप्तिके के मार्गमें निराश होनेका कोई स्थान नहीं है ।
ॐ तत्सत् !
अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥ ३७॥
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मण: पथि॥ ३८॥
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषत:।
त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥ ३९॥
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥ ४०॥
अर्जुन बोले—
हे कृष्ण ! जिसकी साधनमें श्रद्धा है, पर जिसका प्रयत्न शिथिल है, वह (अन्तसमयमें) अगर योगसे विचलित हो जाय तो वह योगसिद्धिको प्राप्त न करके किस गतिको चला जाता है?
हे महाबाहो! संसारके आश्रयसे रहित और परमात्मप्राप्तिके मार्गमें मोहित अर्थात् विचलित—इस तरह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता?
हे कृष्ण! मेरे इस सन्देहका सर्वथा छेदन करनेके लिये आप ही योग्य हैं;क्योंकि इस संशयका छेदन करनेवाला आपके सिवाय दूसरा कोई हो नहीं सकता।
श्रीभगवान् बोले—
हे पृथानन्दन ! उसका न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है; क्योंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को नहीं जाता।
व्याख्या—
जैसे कोई बद्रीनाथ की यात्रापर निकले तो वह रात होते-होते जहाँतक पहुँच चुका है, प्रातः उठनेके बाद वह वहींसे यात्रा आरम्भ करता है । रातको सोनेपर वह वापिस अपने घर नहीं पहुँच जाता ! ऐसे ही ध्यानयोगी जिस स्थितितक पहुँच चुका है, मरनेपर वह उस स्थितिसे नीचे नहीं गिरता । उसका किया हुआ साधन नष्ट नहीं होता । कारण यह है कि उसका उद्देश्य अपने कल्याणका बन चुका है । अब वह दुर्गतिमें नहीं जा सकता । इसलिये परमात्मप्राप्तिके के मार्गमें निराश होनेका कोई स्थान नहीं है ।
ॐ तत्सत् !
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