प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा:।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥ ४१॥
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥ ४२॥
वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करनेवालोंके लोकोंको प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षोंतक रहकर फिर यहाँ शुद्ध (ममतारहित) श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है।
अथवा (वैराग्यवान् योगभ्रष्ट) ज्ञानवान् योगियोंके कुलमें ही जन्म लेता है। इस प्रकारका जो यह जन्म है, यह संसारमें नि:सन्देह बहुत ही दुर्लभ है।
व्याख्या—
जिस साधकके भीतर भोगोंकी वासना नहीं मिटी है, ऐसा साधक योगभ्रष्ट होने पर स्वर्गादि उच्च लोकोंमें जाता है, फिर श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है । परन्तु जिस साधकके भीतर भोगोंकी वासना मिट गयी है, ऐसा साधक (सूक्ष्म वासनाके कारण अन्त समयमें विषय-चिन्तन होनेसे) स्वर्गादि लोकोंमें न जाकर सीधे योगियोंके घरमें जन्म लेता है ।
ॐ तत्सत् !
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥ ४१॥
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥ ४२॥
वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करनेवालोंके लोकोंको प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षोंतक रहकर फिर यहाँ शुद्ध (ममतारहित) श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है।
अथवा (वैराग्यवान् योगभ्रष्ट) ज्ञानवान् योगियोंके कुलमें ही जन्म लेता है। इस प्रकारका जो यह जन्म है, यह संसारमें नि:सन्देह बहुत ही दुर्लभ है।
व्याख्या—
जिस साधकके भीतर भोगोंकी वासना नहीं मिटी है, ऐसा साधक योगभ्रष्ट होने पर स्वर्गादि उच्च लोकोंमें जाता है, फिर श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है । परन्तु जिस साधकके भीतर भोगोंकी वासना मिट गयी है, ऐसा साधक (सूक्ष्म वासनाके कारण अन्त समयमें विषय-चिन्तन होनेसे) स्वर्गादि लोकोंमें न जाकर सीधे योगियोंके घरमें जन्म लेता है ।
ॐ तत्सत् !
No comments:
Post a Comment