Tuesday, 18 April 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.२८)

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत:॥ ३६॥

जिसका मन पूरा वशमें नहीं है, उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है। परन्तु उपायपूर्वक यत्न करनेवाले तथा वशमें किये हुए मनवाले साधकको योग प्राप्त हो सकता है, ऐसा मेरा मत है।

व्याख्या—

अर्जुनने ध्यानयोगके सिद्ध होनेमें मनकी चंचलताको बाधक मान लिया । वास्तवमें मनकी चंचलता उतनी बाधक नहीं है, जितना मनका वशमें न होना बाधक है । पतिव्रता स्त्री मनको एकाग्र नहीं करती, प्रत्युत मनको वशमें रखती है ।
मन एकाग्र होनेसे (अन्तःकरणमें स्थित रागके कारण) सिद्धियाँ आती हैं, जिससे जड़ताके साथ सम्बन्ध बना रहता है । दूसरी बात, मनको एकाग्र करनेके लिये अभ्यास आवश्यक है, जो जड़ताकी सहयताके बिना सम्भव नहीं है, तीसरी बात, एकाग्र होनेपर मन कुछ समयके लिये निरुद्ध हो जाता है, जिससे फिर व्युत्थान हो जाता है । यह व्युत्थान जड़तासे सम्बन्ध होनेके कारण ही होता है । तात्पर्य है कि मन एकाग्र होनेसे जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता । परन्तु रागका नाश होनेपर जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । इसलिये भगवान्‌के मतमें मनकी एकाग्रताका महत्त्व नहीं है, प्रत्युत रागरहित होनेका महत्त्व है ।
मनको वशमें अर्थात्‌ शुद्ध करनेके दो उपाय हैं-कभी भी राग-द्वेष न होना और सबमें भगवान्‌को देखना । जबतक साधकके भीतर राग-द्वेष रहते हैं, तबतक वह सबमें भगवान्‌को नहीं देख पाता । जबतक साधक सबमें भ्गवान्‌को नहीं देखता, तबतक मन सर्वथा वशमें नहीं होता । कारण कि जबतक साधककी दृष्टिमें एक भगवान्‌के सिवाय दूसरी सत्ताकी मान्यता रहती है, तबतक मनका सर्वथा निरोध नहीं हो सकता ।

ॐ तत्सत् !

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