Wednesday, 3 May 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.२४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥ २७॥
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता:॥ २८॥

कारण कि हे भरतवंशमें उत्पन्न शत्रुतापन अर्जुन! इच्छा (राग) और द्वेषसे उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्व-मोहसे मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसारमें (अनादिकालसे) मूढ़ताको अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त हो रहे हैं।
परन्तु जिन पुण्यकर्मा मनुष्योंके पाप नष्ट हो गये हैं, वे द्वन्द्वमोहसे रहित हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं।

व्याख्या—

राग-द्वेषरूप द्वन्द्व से ही संसार का संबंध दृढ़ होता है और मनुष्य परमात्मा से विमुख हो जाता है । अतः मनुष्य की प्रवृत्ति तथा निवृत्ति राग-द्वेषपूर्वक नहीं होनी चाहिये ।
राग-द्वेषसे रहित मनुष्य परमात्माके सम्मुख हो जाता है । परमात्माके सम्मुख होनेपर सब पाप नष्ट हो जाते हैं । जबतक मनुष्यके भीतर राग-द्वेष रहते हैं, तबतक वह सव्रथा परमात्माके सम्मुख नहीं हो सकता । उसका जितने अंशमें संसारसे राग (सम्मुखता) रहता है, उतने अंशमें परमात्मासे द्वेष (विमुखता) रहता है ।

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment