Thursday, 4 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित:॥ ४॥
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:॥ ५॥

यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूपसे व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मुझमें स्थित हैं;परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा वे प्राणी भी मुझमें स्थित नहीं हैं—मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग (सामर्थ्य)-को देख। सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाला और प्राणियोंका धारण, भरण-पोषण करनेवाला मेरा स्वरूप उन प्राणियोंमें स्थित नहीं है।

व्याख्या—

बर्फ में जल की तरह संसारमें सत्ता (‘है’)-रूपसे एक सम, शान्त, सद्‌घन, चिद्‌घन और आनन्दघन परमात्मतत्त्व परिपूर्ण है । उस अविभक्त सत्ता में मैं, तू, यह तथा वह-ये चार विभाग नहीं हैं ।

जब तक साधक में यह भाव है कि परमात्मा और संसार दो हैं, तब तक उसको यह समझना चाहिये कि परमात्मामें संसार है, संसारमें परमात्मा हैं । परन्तु जब दोका भाव न हो, तब न परमात्मामें संसार है, न संसारमें परमात्मा हैं । संसारको स्वतन्त्र सत्ता जीवने ही दी है । जबतक अहंता, ममता और कामना है, तबतक (साधककी दृष्टिमें) परमात्मामें संसार है और संसारमें परमात्मा हैं । परन्तु अहंता, ममता और कामना मिटनेपर (सिद्धकी दृष्टिमें) न परमात्मा में संसार है, न संसारमें परमात्मा हैं अर्थात्‌ परमात्मा-ही-परमात्मा हैं-‘वासुदेवः सर्वम्‌’ ।

ॐ तत्सत् !

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