॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।४०।।
हे परंतप अर्जुन ! मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियोंका जो विस्तार कहा है? यह तो केवल संक्षेपसे कहा है।
व्याख्या—
सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार तथा मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, भूत, प्रेत, पिशाच आदि जो कुछ भी है, वह सब मिलकर भगवान्का ही समग्ररूप है अर्थात् सब भगवान्की ही विभूतियाँ हैं, उनका ही ऐश्वर्य है । तात्पर्य है कि एक भगवान्के सिवाय कुछ नहीं है । परिवर्तनशील असत् और अपरिवर्तनशील सत्-दोनों ही भगवान्की विभूतियाँ हैं-‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९ । १९) । अनः जिसमें हमारा आकर्षण होता है, वह वास्तवमें भगवान्का ही आकर्षण है । परन्तु भोगबुद्धिके कारण वह आकर्षण भगवत्प्रेममें परिणत न होकर काम, आसक्ति, मोहमें परिणत हो जत है, जो संसारमें बाँधनेवाला है ।
पूर्वपक्ष-
जब सब कुछ भगवान् ही हैं, तो फिर विभूति-वर्णन का क्या प्रयोजन है ?
उत्तरपक्ष-
अर्जुन का प्रश्न ही यही था कि मैं कहाँ-कहाँ आपका चिन्तन करूँ ? यद्यपि सब कुछ भगवान् ही हैं, तथापि मनुष्यको जिस वस्तु-व्यक्तिमें विशेषता दीखती है, उसे वस्तु-व्यक्तिमें भगवान् को देखना, उनका चिन्तन करना सुगम पड़ता है । कारण कि मन में उसकी विशेषता अंकित हो जाने से मन स्वतः वहाँ जाता है । इसीलिये भगवान् ने अपनी मुख्य-मुख्य विभूतियों का वर्णन किया है । इस कारण साधक का कहीं भी राग-द्वेष न होकर भगवान् की तरफ ही दृष्टि रहनी चाहिये ।
ॐ तत्सत् !
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।४०।।
हे परंतप अर्जुन ! मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियोंका जो विस्तार कहा है? यह तो केवल संक्षेपसे कहा है।
व्याख्या—
सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार तथा मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, भूत, प्रेत, पिशाच आदि जो कुछ भी है, वह सब मिलकर भगवान्का ही समग्ररूप है अर्थात् सब भगवान्की ही विभूतियाँ हैं, उनका ही ऐश्वर्य है । तात्पर्य है कि एक भगवान्के सिवाय कुछ नहीं है । परिवर्तनशील असत् और अपरिवर्तनशील सत्-दोनों ही भगवान्की विभूतियाँ हैं-‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९ । १९) । अनः जिसमें हमारा आकर्षण होता है, वह वास्तवमें भगवान्का ही आकर्षण है । परन्तु भोगबुद्धिके कारण वह आकर्षण भगवत्प्रेममें परिणत न होकर काम, आसक्ति, मोहमें परिणत हो जत है, जो संसारमें बाँधनेवाला है ।
पूर्वपक्ष-
जब सब कुछ भगवान् ही हैं, तो फिर विभूति-वर्णन का क्या प्रयोजन है ?
उत्तरपक्ष-
अर्जुन का प्रश्न ही यही था कि मैं कहाँ-कहाँ आपका चिन्तन करूँ ? यद्यपि सब कुछ भगवान् ही हैं, तथापि मनुष्यको जिस वस्तु-व्यक्तिमें विशेषता दीखती है, उसे वस्तु-व्यक्तिमें भगवान् को देखना, उनका चिन्तन करना सुगम पड़ता है । कारण कि मन में उसकी विशेषता अंकित हो जाने से मन स्वतः वहाँ जाता है । इसीलिये भगवान् ने अपनी मुख्य-मुख्य विभूतियों का वर्णन किया है । इस कारण साधक का कहीं भी राग-द्वेष न होकर भगवान् की तरफ ही दृष्टि रहनी चाहिये ।
ॐ तत्सत् !
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