Thursday, 4 May 2017

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.१६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:॥ २४॥

जिस मार्ग में प्रकाशस्वरूप अग्नि का अधिपति देवता, दिन का अधिपति देवता,शुक्लपक्ष का अधिपति देवता और छ: महीनोंवाले उत्तरायण का अधिपति देवता है, उस मार्ग से शरीर छोड़कर गये हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष (पहले ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर पीछे ब्रह्माके साथ) ब्रह्मको प्राप्त हो जाते हैं।

व्याख्या—

पहले साधनावस्था में जिनके भीतर ब्रह्मलोक की वासना अथवा अपने मत का आग्रह रहा है, वे क्रममुक्ति से पहले ब्रह्मलोक में जाते हैं और फिर महाप्रलय आने पर ब्रह्माजी के साथ मुक्त हो जाते हैं ।
क्रममुक्ति में ब्रह्मलोक मार्ग में आनेवाले एक स्टेशन की तरह है, जहाँ भोगों की वासना वाले मनुष्य उतरते हैं । परन्तु जिनमें भोगों की वासना नहीं है, वे वहाँ नहीं उतरते । हमारा कोई प्रयोजन न हो तो मार्ग में स्टेशन आये या जंगल, क्या फर्क पड़ता है !

ॐ तत्सत् !

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