Thursday, 4 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥ ३॥

हे परन्तप! इस धर्मकी महिमापर श्रद्धा न रखने-वाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसारके मार्गमें लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।

व्याख्या—

पूर्वश्लोकमें कथित विज्ञानसहित ज्ञानकी की महिमा पर श्रद्धा न रखनेवाले मनुष्य इससे लाभ नहीं उठाते, प्रत्युत नाशवान्‌ शरीर-संसारको महत्त्व देकर बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं । ऐसे अश्रद्धालु मनुष्य स्वतःप्राप्त अमरताका मार्ग छोड़कर मृत्युके मार्गपर चलते रहते हैं, जिसमें केवल मृत्यु-ही-मत्यु है । मनुष्यशरीरमें भगवत्प्राप्तिका बहुत श्रेष्ठ अवसर था, पर वे उस मार्गकॊ पकड़ लेते हैं, जिस मार्गमें कभी भगवत्प्राप्ति न हो सके । उनकी ऐसी दशाको देखकर भगवान्‌ मानो दुःखके साथ कहते हैं-‘ अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि’ ।

ॐ तत्सत् !

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