॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।२०।।
हे नींदको जीतनेवाले अर्जुन सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि? मध्य तथा अन्तमें भी मैं ही हूँ और प्राणियोंके अन्तःकरणमें आत्मरूपसे भी मैं ही स्थित हूँ।
व्याख्या—
सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें भगवान् ही हैं-इसका तात्पर्य यह है कि एक भगवान्के सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात् सब कुछ भगवान्ही हैं । भगवान् श्रीकृष्ण समग्र हैं और आत्मा उनकी विभूति है । आत्मा भगवान्की परा प्रकृति है और अन्तःकरण अपरा प्रकृति है (गीता ७ । ४-५} । पर और अपरा-दोनों ही भगवान्से अभिन्न हैं ।
ॐ तत्सत् !
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।२०।।
हे नींदको जीतनेवाले अर्जुन सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि? मध्य तथा अन्तमें भी मैं ही हूँ और प्राणियोंके अन्तःकरणमें आत्मरूपसे भी मैं ही स्थित हूँ।
व्याख्या—
सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें भगवान् ही हैं-इसका तात्पर्य यह है कि एक भगवान्के सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात् सब कुछ भगवान्ही हैं । भगवान् श्रीकृष्ण समग्र हैं और आत्मा उनकी विभूति है । आत्मा भगवान्की परा प्रकृति है और अन्तःकरण अपरा प्रकृति है (गीता ७ । ४-५} । पर और अपरा-दोनों ही भगवान्से अभिन्न हैं ।
ॐ तत्सत् !
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