एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वत: ।
सोऽवकिम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशय: ॥७॥
जो मनुष्य मेरी इस विभूति को और योग (सामथ्र्य) को तत्त्व से जानता है अर्थात दृढ़तापूर्वक (सन्देह रहित) स्वीकार कर लेता है, वह अविचल भक्ति योग से युक्त हो जाता है; इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
व्याख्या- संसार जो कुछ विलक्षणता, विशेषता देखने में आती है, वह सब भगवान का ‘योग’ (विलक्षण प्रभाव सामथ्र्य) है। उस योग से प्रकट होने वाली विशेषता ‘विभूति’ है- इस प्राकर जो मनुष्य भगवान की विभूति और योग को तत्त्व से जान लेता है कि जो कुछ प्रभाव, महत्व दीखता है, वह सब भगवान का ही है, तब उसकी भगवान में दृढ़ भक्ति हो जाती है। एक भगवान के सिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं- ऐसा सन्देह रहित दृढ़तापूर्वक मान लेना ही वास्तव में भगवान की विभूति और योग तत्त्व से जानना है।
ॐ तत्सत् !
सोऽवकिम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशय: ॥७॥
जो मनुष्य मेरी इस विभूति को और योग (सामथ्र्य) को तत्त्व से जानता है अर्थात दृढ़तापूर्वक (सन्देह रहित) स्वीकार कर लेता है, वह अविचल भक्ति योग से युक्त हो जाता है; इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
व्याख्या- संसार जो कुछ विलक्षणता, विशेषता देखने में आती है, वह सब भगवान का ‘योग’ (विलक्षण प्रभाव सामथ्र्य) है। उस योग से प्रकट होने वाली विशेषता ‘विभूति’ है- इस प्राकर जो मनुष्य भगवान की विभूति और योग को तत्त्व से जान लेता है कि जो कुछ प्रभाव, महत्व दीखता है, वह सब भगवान का ही है, तब उसकी भगवान में दृढ़ भक्ति हो जाती है। एक भगवान के सिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं- ऐसा सन्देह रहित दृढ़तापूर्वक मान लेना ही वास्तव में भगवान की विभूति और योग तत्त्व से जानना है।
ॐ तत्सत् !
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