यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥ २३॥
परन्तु
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! जिस काल अर्थात् मार्ग में शरीर छोड़कर
गये हुए योगी अनावृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर नहीं आते
और जिस मार्गमें गये हुए आवृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर
आते हैं, उस कालको अर्थात् दोनों मार्गों को मैं कहूँगा।
व्याख्या—
जैसे
किसी स्थानपर हमारी कोई वस्तु (कपड़ा, थैला, रुपये आदि) छूट जाती है तो उसे
लनेके लिये हम वापिस उस स्थानपर जाते हैं, ऐसे ही संसार में किसी
वस्तु-व्यक्ति में मनुष्यकी आसक्ति रहती है तो उसे पुनः लौटकर संसार में
आना पड़ता है । तात्पर्य है कि परिवर्तनशील शरीर-संसार के साथ सम्बन्ध रखने
से पीछे लौटकर आना पड़ता है और शरीर-संसार के साथ सम्बन्ध न रखने से पीछे
लौटकर नहीं आना पड़ता ।
ॐ तत्सत् !
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