Wednesday, 3 May 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.२०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥ २३॥

परन्तु उन तुच्छ बुद्धिवाले मनुष्योंको उन देवताओंकी आराधनाका फल अन्तवाला (नाशवान्) ही मिलता है। देवताओंका पूजन करनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।

व्याख्या—

जो मनुष्य सकामभाव रखनेवाले तथा देवताओंको भगवान्‌से भिन्न समझनेवाले हैं, उन्हें नाशवान्‌ फलकी प्राप्ति होती है । जीते-जी तथा मृत्युके बाद उन्हें जो पदार्थ, लोक आदि मिलते हैं, वे सभी नाशवान्‌ अर्थात्‌ मिलने-बिछुड़नेवाले होते हैं । ऐसे मनुष्य अपने को कितना ही बुद्धिमान्‌ समझें, पर वास्तवमें वे अल्प बुद्धिवाले ही हैं ।

पूर्वपक्ष- अर्थार्थी भक्तको भी नाशवान्‌ धनकी प्राप्ति होती है, फिर उसमें और देवताओंका पूजन करनेवाले मे अन्तर क्या हुआ ?

उत्तरपक्ष- नाशवान्‌ धन आदि मिलनेपर भी अर्थार्थि और आर्त भक्तमें मुख्यता (महता) भगवान्‌की ही रहती है, धन आदिकी नहीं । उनमें अर्थार्थीभाव तथा आर्तभाव तो गौण होता है, पर भागवद्भाव मुख्य होता है । इसलिये समय पाकर उनका अर्थार्थीभाव तथा आर्तभाव भी मिट जाता है, टिकता नहीं । परन्तु देवताओं की उपासना करने वाले सांसारिक मनुष्यों के हृदय में धन आदि की मुख्यता और देवताओं की गौणता रहती है ।

ॐ तत्सत् !

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