॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।१७।।
हे योगिन् ! हरदम साङ्गोपाङ्ग चिन्तन करता हुआ मैं आप को कैसे जानूँ और हे भगवन् ! किनकिन भावों में आप मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं अर्थात् किनकिन भावों में मैं आपका चिन्तन करूँ?
व्याख्या—
अर्जुन ने यह प्रश्न सुगमतापूर्वक भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से किया है कि मैं आपके समग्ररूप को कैसे जानूँ ? किन रूपोंमें मैं आपका चिन्तन करूँ ? इससे सिद्ध होता है कि विभूतियाँ गौण नहीं हैं, प्रत्युत भगवत्प्राप्ति का माध्यम होनेसे मुख्य हैं । विभूतिरूप से साक्षात् भगवान् ही हैं । जब तक मनुष्य भगवान् को नहीं जानता, तब तक उसमें गौण अथवा मुख्यकी भावना रहती है । भगवान् को जानने पर गौण अथवा मुख्यकी भावना नहीं रहती; क्योंकि भगवान् के सिवाय और कुछ है ही नहीं, फिर उसमें क्या गौण और क्या मुख्य ? तात्पर्य है कि गौण अथवा मुख्य साधक की दृष्टि में है, सिद्ध की दृष्टि में नहीं ।
ॐ तत्सत् !
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।१७।।
हे योगिन् ! हरदम साङ्गोपाङ्ग चिन्तन करता हुआ मैं आप को कैसे जानूँ और हे भगवन् ! किनकिन भावों में आप मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं अर्थात् किनकिन भावों में मैं आपका चिन्तन करूँ?
व्याख्या—
अर्जुन ने यह प्रश्न सुगमतापूर्वक भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से किया है कि मैं आपके समग्ररूप को कैसे जानूँ ? किन रूपोंमें मैं आपका चिन्तन करूँ ? इससे सिद्ध होता है कि विभूतियाँ गौण नहीं हैं, प्रत्युत भगवत्प्राप्ति का माध्यम होनेसे मुख्य हैं । विभूतिरूप से साक्षात् भगवान् ही हैं । जब तक मनुष्य भगवान् को नहीं जानता, तब तक उसमें गौण अथवा मुख्यकी भावना रहती है । भगवान् को जानने पर गौण अथवा मुख्यकी भावना नहीं रहती; क्योंकि भगवान् के सिवाय और कुछ है ही नहीं, फिर उसमें क्या गौण और क्या मुख्य ? तात्पर्य है कि गौण अथवा मुख्य साधक की दृष्टि में है, सिद्ध की दृष्टि में नहीं ।
ॐ तत्सत् !
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