Wednesday, 3 May 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.१९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥ २२॥

उस (मेरे द्वारा दृढ़ की हुई) श्रद्धासे युक्त होकर वह मनुष्य उस देवताकी (सकामभावपूर्वक) उपासना करता है और उसकी वह कामना पूरी भी होती है; परन्तु वह कामनापूर्ति मेरे द्वारा ही विहित की हुई होती है।

व्याख्या—

भगवान्‌ ही मनुष्यकी श्रद्धाको उसकी इच्छाके अनुसार अन्य देवताओंमें दृढ़ करते हैं और वे ही अन्य देवताओंके द्वारा मनुष्यकी कामनाओंकी पूर्ति करवाते हैं-यह भगवान्‌की उदारता है, परन्तु मनुष्य यही समझता है कि अन्य देवताओंकी उपासनासे मेरी कमनापूर्ति हुई है । वास्तवमें सभी देवता भगवान्‌के अधीन हैं । उन्हें कामनापूर्तिका अधिकार और सामर्थ्य भगवान्‌का ही दिया हुआ है ।

ॐ तत्सत् !

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