Thursday, 4 May 2017

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.०४)

  तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥७॥ 

इसलिये तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। मुझ में मन और बुद्धि अर्पित करने वाला तू निःसन्देह मुझे ही प्राप्त होगा। 

व्याख्या- ऐसा कोई समय नहीं है, जिसमें अन्तकाल (मृत्यु) न आ सके। इसलिये मनुष्य को नित्य-निरन्तर भगवान का स्मरण करते रहना चाहिये। फिर किसी भी समय अन्तकाल आयेगा तो वह भगवान का स्मरण करते हुए ही शरीर छोड़ेगा, जिससे वह भगवान को ही प्राप्त होगा।  पूर्वपक्ष- यहाँ युद्ध का प्रसंग है। निरन्तर भगवत्स्मरण करते हुए युद्ध कैसे होगा और युद्ध करते हुए निरन्तर भगवत्स्मरण कैसे होगा? 
उत्तरपक्ष- एक याद करते हैं, एक याद रहती है। जो बात अहंता में बैठ जाती है, वह भूलती नहीं। अतः साधक सच्चे हृदय से दृढ़तापूर्वक स्वीकार कर ले कि ‘मै। भगवान् का ही हूँ; भगवान ही मेरे हैं’ तो फिर सब कार्य करते हुए भी भगवान की याद स्वतः निरन्तर बनी रहेगी। जैसे, ब्राह्मण को अपने ब्राह्मणपने का स्मरण बिना याद किये नित्य-निरन्तर बना रहता है। नींद में भी जगाकर उससे पूछो तो वह यही कहेगा कि मैं ब्राह्मण हूँ। इसमें अभ्यास नहीं है, प्रत्युत स्वीकृति है। विवाह होने पर पतिव्रता स्त्री बिना याद किये पति को याद रखती है, स्वप्न में भी नहीं भूलती। यह स्वीकृति है, जिसकी कभी विस्मृति नहीं होती। भगवान के साथ सम्बन्ध स्वीकार करने पर साधक के मन-बुद्धि स्वतः भगवान के अर्पित हो जाते हैं।

ॐ तत्सत् !

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