Saturday, 6 May 2017

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.०९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।११।।

उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूप (होनेपन) में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ।

व्याख्या—

यद्यपि कर्मयोग तथा ज्ञानयोग-दोनों साधन हैं और भक्तियोग साध्य है, तथापि भगवान्‌ अपने भक्तों को कर्मयोग भी दे देते हैं-‘ददामि बुद्धियोगं तम्‌’ और ज्ञानयोग भी दे देते हैं-‘ज्ञानदीपेन भास्वता’ । अपरा और परा-दोनों प्रकृतियाँ भगवान्‌की ही हैं । इसलिये भगवान्‌ कृपा करके अपने भक्तको अपरा की प्रधानता से होने वाल कर्मयोग और पराकी प्रधानतासे होनेवाला ज्ञानायोग-दोनों प्रदान करते हैं । अतः भक्तको कर्मयोगका प्रापणीय तत्त्व ‘निष्काम भाव’ और ज्ञानयोगका प्रापणीय तत्त्व ‘स्वरूपबोध’- दोनों ही सुगमतासे प्राप्त हो जाते हैं । कर्मयोग प्राप्त होनेपर भक्तके द्वारा संसारका उपकार होता है और ज्ञानयोग प्राप्त होनेपर भक्तका देहाभिमान दूर हो जाता है ।

ॐ तत्सत् !

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