Friday 9 June 2017

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 
  
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्यस्ये मनोरथम् । 
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥१३॥  
 
(वे इस प्रकार के मनोरथ किया करते हैं कि-) इतनी वस्तुएँ तो हमने आज प्राप्त कर लीं और अब मनोरथ को प्राप्त (पूरा) कर लेंगे। इतना धन तो हमारे पास है ही, इतना धन फिर भी हो जायगा। 
 
 व्याख्या- 
पूर्वपक्ष- दैवी-सम्पत्ति वाले साधकों के मन में भी कभी-कभी व्यापार आदि को लेकर ऐसी स्फुरणाएँ होती हैं कि इतना काम तो हो गया, इतना काम करना बाकी है और इतना काम आगे हो जायगा, इतना पैसा (व्यापार आदि में) आ गया है और इतना पैसा वहाँ देनला है, आदि-आदि। फिर उनमें और आसुरी-सम्पत्ति वाले मनुष्यों में क्या अन्तर हुआ?  
उत्तरपक्ष- दोनों की वृत्तियाँ एक-सी दीखने पर भी दोनों के उद्देश्य में बहुत अन्तर है। साधक का उद्देश्य परमात्म प्राप्ति का होता है; अतः वह उन वृत्तियों में तल्लीन नहीं होता। परन्तु आसुरी सम्पत्ति वालों का उद्देश्य धन का संग्रह करने तथा भोग भोगने को रहता है; अतः वे उन वृत्तियों में ही तल्लीन रहते हैं।

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 
  
आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा: । 
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान् ॥१२॥  
 
वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर पदार्थों का भोग करने के लिये अन्यायपूर्वक धन-संचय करने की चेष्टा करते रहते हैं।  
 
व्याख्या- 
जब तक मनुष्य का सम्बन्ध शरीर-संसार के साथ रहता है, तब तक उसकी कामनाओं का अन्त नहीं आता। दूसरे अध्याय के इकतालीसवें श्लोक में भी आया है कि अव्यवसायी मनुष्यों की बुद्धियाँ अनन्त और बहुशाखाओं वाली होती हैं। कारण कि उन्होंने अविनाशी तत्त्व से विमुख होकर नाशवान को सत्ता और महत्ता दे दी तथा उसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया।  
आसुर स्वभाव वाले मनुष्य काम और क्रोध को स्वाभाविक मानते हैं। काम और क्रोध के सिवाय उन्हें और कुछ दीखता ही नहीं, इनसे आगे उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। मनुष्य समझता है कि क्रोध करने से दूसरा हमारे वश में रहेगा। परन्तु जो मजबूर, लाचार होकर हमारे वश में हुआ है वह कब तक वश में रहेगा? मौका पड़ते ही वह घात करेगा। अतः क्रोध का परिणाम बुरा ही होता है।

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता: । 
मोहादृगृहीत्वासद्ग्राहान्प्रर्तन्तेऽशुचिव्रता: ॥१०॥  
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिता: । 
कामोपभोग परमा एतावदिति निश्चिता: ॥११॥  

कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर दम्भ, अभिमान और मद में चूर रहने वाले तथा अपवित्र व्रत धारण करने वाले मनुष्य मोह के कारण दुराग्रहों को धारण करके (संसार में) विचरते रहते हैं।   
वे मृत्यु पर्यन्त रहने वाली अपार चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, पदार्थों का संग्रह और उनका भोग करने में ही लगे रहने वाले और ‘जो कुछ है, वह इतना ही है’- ऐसा निश्चय करने वाले होते हैं।

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥८॥ 
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धय: ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माण:क्षयाय जगतोऽहिता: ॥९॥

वे कहा करते हैं कि संसार असत्य, बिना मर्यादा के और बिना ईश्वर के अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से पैदा हुआ है। इसलिये काम ही इसका कारण है, इसके सिवाय और क्या कारण है? (और कारण हो ही नहीं सकता।)
 इस (पूर्वाक्त नास्तिक) दृष्टि का आश्रयम लेने वाले जो मनुष्य अपने नित्य स्वरूप को नहीं मानते, जिनकी बुद्धि तुच्छ है, जो उग्र कर्म करने वाले और संसार के शत्रु हैं, उन मनुष्यों की सामथ्र्य का उपयोग जगत का नाश करने के लिये ही होता है।  

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु ॥६॥
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा: ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥७॥ 

इस लोक में दो तरह के ही प्राणियों की सृष्टि है- दैवी और आसुरी। दैवी को तो मैंने विस्तार से कह दिया, अब हे पार्थ! तु मुझ से आसुरी को (विस्तार से) सुनो।
आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य किस में प्रवृत्त होना चाहिये और किससे निवृत्त होना चाहिये- इसको नहीं जानते और उनमें न तो बाह्य शुद्धि, न श्रेष्ठ आचरण तथा न सत्य- पालन ही होता है।

व्याख्या-
आसुर मनुष्य केवल अपना सुख-आराम, अपना स्वार्थ देखते हैं। जिससे अपने को सुख मिलता दीखे, उसी में उनकी प्रवृत्ति होती है और जिससे दुःख मिलता दीखे, स्वार्थ सिद्ध होता न दीखे, उसी से उनकी निवृत्ति होती है। वास्तव में प्रवृत्ति और निवृत्ति में शास्त्र ही प्रमाण है; परन्तु अपने शरीर और प्राणों में मोह रहने के कारण आसुर मनुष्यों की प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्र को लेकर नहीं होती। आसुर स्वभाव के कारण वे शास्त्र की बात सुनते ही नहीं और अगर सुन भी लें तो उसे समझ सकते ही नहीं। कभी सन्त-महात्मओं से शास्त्र की बात सुनने पर भी वे उन्हें स्वीकार नहीं करते।  

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

दैवीसंपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुच: संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥५॥

दैवी सम्पत्ति मुक्ति के लिये और आसुरी सम्पत्ति बन्धन के लिये मानी गयी है। हे पाण्डव! तुम दैवी-सम्पत्ति को प्राप्त हुए हो, इसलिये तुम शोक (चिन्ता) मत करो।

व्याख्या-

जीव के एक ओर भगवान हैं और एक ओर संसार है। जब वह भगवान के सम्मुख होता है तब उसमें दैवी-सम्पत्ति आती है और जब वह संसार के सम्मुख होता है तब उसमें आसुरी-सम्पत्ति आती है।
दूसरों के सुख के लिये कर्म करना अथवा दूसरों का सुख चाहना ‘चेतनता’ है, और अपने सुख के लिये कर्म करना अथवा सुख चाहना, ‘जड़ता’ है। भजन-ध्यान भी आपके सुख के लिये, अपने मान-आदर के लिये करना जड़ता है। चेतनता की मुख्यता से दैवी-सम्पत्ति आती है और जड़ता की मुख्यता से आसुरी-सम्पत्ति आती है। मूल दोध एक ही है, जिससे सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्ति उत्पन्न होती है, और मूल गुण भी एक ही है, जिससे सम्पूर्ण दैवी-सम्पत्ति प्रकट होती है।
मूल दोष है- शरीर-संसार की सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उससे सम्बन्ध जोड़ना। मूल गुण है- भगवान की सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उनसे सम्बन्ध-जोड़ना। यह मूल दोष और मूल गुण ही स्थान भेद से अनेक रूपों में दीखता है।
जब गुणों के साथ अवगुण रहते हैं, तभी तक गुणों की महत्ता दीखती है और उनका अभिमान होता है। कोई भी अवगुण न रहे तो अभिमान नहीं होता। अभिमान आसुरी-सम्पत्ति का मूल है। अभिमान के कारण मनुष्य को दूसरों की अपेक्षा अपने में विशेषता दीखने लगती है-यह आसुरी-सम्पत्ति है। अभिमान होने के कारण दैवी-सम्पत्ति भी आसुरी-सम्पत्ति की वृद्धि करने वाली बन जाती है। जब गुणों के साथ अवगुण नहीं रहते, तब गुणों की महत्ता नहीं दीखती और उनका अभिमान भी नहीं होता। अभिमान न होने के कारण अर्जुन को अपने में गुण (श्रेष्ठता) नहीं दीखते। इसलिये उनकी चिन्ता दूर करने के लिये भगवान उन से कहते हैं कि तुम्हारे में दैवी-सम्पत्ति है, भले ही वह तुम्हें न दीखे।
गीता में ‘मा शुचः’ पद दो बार आये हैं- एक यहाँ और दूसरा अठारहवें अध्याय के छाछठवें श्लोक में। यहाँ ये पद ‘साधन’ के विषय में और अठारहवें अध्याय में ‘सिद्धि’ के विषय में चिन्ता न करने के लिये आये हैं। अतः भक्त को इन दोनों ही विषयों में चिन्ता नहीं करनी चाहिये। 

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥३॥
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोध: पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ॥४॥

तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, वैर-भाव का न होना और मान को न चाहना; हे भरतवंशी अर्जुन! ये सभी दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं। 
हे पृथानन्दन! दम्भ करना, घमण्ड करना और अभिमान करना, क्रोध करना तथा कठोरता रखना और अविवेक का होना भी-ये सभी आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं।


ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति: ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥१॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ॥२॥
श्रीभगवान बोले -
भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की अत्यन्त शुद्धि ज्ञान के लिये योग में दृढ़ स्थिति और सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्य-पालन के लिये कष्ट सहना और शरीर-मन-वाणी की सरलता।
अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोध न करना, संसार की कामना का त्याग, अन्तःकरण में राग-द्वेषजनित हल चल का न होना, चुगली न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, अन्तःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा, चपलता का अभाव। 


ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

इति गुह्रातमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृकृत्यश्च भारत ॥२०॥

हे निष्पाप अर्जुन! इदस प्रकार यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया है। हे भरतवंशी अर्जुन! इसकेा जानकर मनुष्य ज्ञानवान (ज्ञात-ज्ञातव्य) तथा कृतकृत्य हो जाता है। व्

याख्या-

भगवान ने इस अध्याय में अपने-आप को पुरुषोत्तमरूप से अर्थात अलौकिक समग्ररूप से प्रकट किया है, इसलिये इसे ‘गुह्यतम शास्त्र’ कहा गया है।
पूर्वश्लोक में सर्वभाव से भगवान का भजन करने अर्थात अव्यभिचारिणी भक्ति की बात विशेषरूप से आयी है। भक्ति में मनुष्य प्राप्त प्राप्तव्य हो जाता है। अतः पूर्वश्लोक में प्राप्त प्राप्तव्य होने की बात माननी चाहिये। इस श्लोक में (‘बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च’ पद में) ज्ञातज्ञातव्य तथा कृतकृत्य होने की बात आयी है।
लौकिक क्षर और अक्षर तो प्राप्त हैं; अतः अलौकिक परमात्मा ही प्राप्तव्य हैं। इस श्लोक में यह भाव निकलता है कि भक्त को ज्ञानयोग तथा कर्मयोग- दोनों का फल प्राप्त हो जाता है अर्थात वह ज्ञातज्ञातव्य और कृतकृत्य भी हो जाता है।
ऊँ तत्सदिति

श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पंचदशोऽध्यायः।।१५।। 

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  यो मामेवमसंमूढ़ो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥१९॥

हे भरतवंशी अर्जुन! इस प्रकार जो मोह रहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ सब प्रकार से मेरा ही भजन करता है।

व्याख्या-

किसी विशेष महत्वपूर्ण बात पर मन रागपूर्वक लगता है और बुद्धि श्रद्धापूर्वक। जब मनुष्य भगवान को क्षर से अतीत जान लेता है, तब उसका मन क्षर से हट कर भगवान में लग जाता है। जब वह भगवान को अक्षर से उत्तम जान लेता है, तब उसकी बुद्धि भगवान में लग जाती है फिर उसकी प्रत्येक वृत्ति और क्रिया से स्वतः भगवान का भजन होता है। कारण कि उसकी दृष्टि में एक भगवान के सिवाय दूसरा कोई होता ही नहीं।
गीता में ‘सर्ववित्’ शब्द केवल भक्त के लिये ही यहाँ आया है। भक्त समग्र को अर्थात लौकिक और अलौकिकदोनों को जानता है, इसलिये वह सर्ववित् होता है। कारण कि लौकिक के अन्तर्गत अलौकिक नहीं आ सकता, पर अलौकिक के अन्तर्गत लौकिक भी आ जाता है। अतः निर्गुण तत्त्व (अक्षर)- को जानने वाला ब्रह्मज्ञानी सर्ववित् नहीं होता, प्रत्युत समग्र भगवान को जानने वाला भक्त सर्ववित होता है। 


ॐ तत्सत् !