Saturday 17 December 2016

गीता प्रबोधनी- तीसरा अध्याय (पोस्ट.०६)


नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण:॥ ८॥
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर॥ ९॥

तू शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्तव्य-कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
यज्ञ (कर्तव्य-पालन)-के लिये किये जानेवाले कर्मोंसे अन्यत्र (अपने लिये किये जानेवाले) कर्मोंमें लगा हुआ यह मनुष्य-समुदाय कर्मोंसे बँधता है; इसलिये हे कुन्तीनन्दन! तू आसक्तिरहित होकर उस यज्ञके लिये ही कर्तव्य-कर्म कर।

व्याख्या—

जो कर्म दूसरोंके लिये नहीं किये जाते, प्रत्युत अपने लिये किये जाते हैं, उन कर्मोंसे मनुष्य बँध जाता है । अतः साधकको ये तीन बातें स्वीकार कर लेनी चाहिये- (१) शरीरसहित कुछ भी मेरा नहीं है, (२) मुझे कुछ भी नहीं चाहिये, और (३) मुझे अपने लिये कुछ भी नहीं करना है । पहली बात स्वीकार करनेसे दूसरी बात सुगम हो जायगी और दूसरी बात स्वीकार करनेसे तीसरी बात सुगम हो जायगी ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०५)

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते॥ ७॥
परन्तु हे अर्जुन ! जो मनुष्य मन से इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके आसक्तिरहित होकर (निष्कामभावसे) कर्मेन्द्रियों (समस्त इन्द्रियों)-के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
व्याख्या—
फलेच्छा और आसक्ति का त्याग करके दूसरों के लिये कर्म करने वाला कर्मयोगी ज्ञानयोग से भी श्रेष्ट है । आगे पाँचवें अध्याय में भी भगवान्‌ कर्मयोग को ज्ञानयोग से श्रेष्ट बतायेंगे (गीता ५। २) ।
ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०४)

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते॥ ६॥
जो कर्मेन्द्रियों (सम्पूर्ण इन्द्रियों)- को हठपूर्वक रोककर मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए बैठता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है।
व्याख्या—
दूसरे अध्यायमें भगवान्‌ कह चुके हैं कि विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यका पतन हो जाता है (गीता २ । ६२-६३) । यहाँ लोगोंको दिखानेके लिये बाहरसे स्थिर होकर बैठनेवाले तथा मनसे विषयोंका चिन्तन करने वाले मनुष्यको मिथ्याचारी कहा गया है ।
वास्तवमें (भोगबुद्धिसे) बाहर से भोग भोगने और मन से उनका चिन्तन करने में कोई अन्तर नहीं है । दोनों का अन्तःकरण पर समान प्रभाव पड़ता है । एक दृष्टि से मन से भोगों का चिन्तन करने से साधक का विशेष पतन होता है; क्योंकि जिन भोगों की प्राप्ति नहीं होती या जिन भोगों को वह लोक-मर्यादासे भोग नहीं पाता अथवा जिन भोगों को भोगने में वह असमर्थ होता है, उनको भी वह मन से भोग सकता है ।
ॐ तत्सत् !

Thursday 15 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०३)


न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥ ५॥

कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति के परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं ।

व्याख्या—

प्रकृति का विभाग अलग है और स्वरूप का विभाग अलग है । क्रियामात्र प्रकृति-विभाग में है । स्वरूप अक्रिय है । प्रकृति में श्रम है और स्वरूपमें विश्राम है । अतः जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता ।

ॐ तत्सत् !

Wednesday 14 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०२)

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥ ४॥

मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताका अनुभव करता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है।

व्याख्या—

जबतक साधकमें क्रियाका वेग रहता है, तबतक साधकके लिये निष्कामभाव पूर्वक केवल दूसरोंके लिये कर्म करने आवश्यक हैं । दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे क्रियाका वेग शान्त हो जाता है और सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात्‌ बाँधनेवाले नहीं रहते । केवल कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेपर क्रियाका वेग शान्त नहीं होता । क्रियाका वेग शान्त हुए बिना प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता । प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हुए बिना सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती ।

ॐ तत्सत् !

Monday 12 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०१)

अर्जुन उवाच

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ १॥
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥ २॥

श्रीभगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥ ३॥

अर्जुन बोले—हे जनार्दन! अगर आप कर्मसे बुद्धि (ज्ञान)-को श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर हे केशव ! मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? आप अपने मिले हुए-से वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं। अत: आप निश्चय करके उस एक बात को कहिये, जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ।

श्रीभगवान् बोले—हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्यलोक में दो प्रकार से होनेवाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें ज्ञानियों की निष्ठा ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है।

व्याख्या—

कर्मयोग और ज्ञानयोग-दोनों लौकिक निष्ठाएं होनेसे समकक्ष हैं और दोनोंका एक ही फल है (गीता ५ । ४-५) । यद्यपि कर्मायोगमें क्रियाकी और सांख्ययोगमें विवेककी मुख्यता है, तथापि फलमें दोनों एक हैं ।
पूर्वपक्ष- यहाँ भक्तियोग-निष्ठाकी बात नहीं कहीगयी है, इससे सिद्ध हुआ कि कर्मयोग और ज्ञानयोग-ये दोनों ही साधन मान्य हैं ?
उत्तरपक्ष- ऐसा नहीं है । कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनोंकी अपनी निष्टाएँ हैं, पर भक्तियोग साधककी अपनी निष्टा न होकर भगवन्निष्टा है । भक्तियोगमें साधक भगवान्‌पर निर्भर रहता है ।
कर्मयोग और भक्तियोग-दोनों लौकिक निष्टाएँ हैं । कर्मयोगमें जगत्‌की और ज्ञानयोगमें जीवकी मुख्यता है । जगत्‌ और जीव दोनों लौकिक हैं-‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च’ (गीता १५ । १६); क्योंकि जगत्‌ (जड़) और जीव (चेतन)- ये दोनों विभाग हमारे जाननेमें आते हैं, पर भगवान जाननेमें नहीं आते । भगवान्‌ माननेके विषय हैं, जाननेके नहीं । परन्तु भक्तियोग अलौकिक निष्टा है ; क्योंकि इसमें भगवान्‌की मुख्यता है, जो जगत्‌ और जीव दोनोंसे उत्तम हैं- ‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः’ (गीता १५ । १७) ।

ॐ तत्सत् !