Friday 13 January 2017

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.२६)


धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥ ३८॥
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥ ३९॥

जैसे धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है तथा जैसे जेर से गर्भ ढका रहता है, ऐसे ही उस कामना के द्वारा यह (ज्ञान अर्थात् विवेक) ढका हुआ है।
हे कुन्तीनन्दन ! इस अग्नि के समान कभी तृप्त न होने वाले और विवेकियों के कामनारूप नित्य वैरी के द्वारा मनुष्यका विवेक ढका हुआ है।

ॐ तत्सत् !

Thursday 12 January 2017

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.२५)

अर्जुन उवाच

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥ ३६॥

श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥ ३७॥

अर्जुन बोले—

हे वार्ष्णेय ! फिर यह मनुष्य न चाहता हुआ भी जबर्दस्ती लगाये हुए की तरह किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?

श्रीभगवान् बोले—

रजोगुणसे उत्पन्न यह काम अर्थात् कामना (ही पापका कारण है)। यह काम ही क्रोध (-में परिणत होता) है। यह बहुत खाने-वाला और महापापी है। इस विषयमें तू इसको ही वैरी जान।

व्याख्या—

जैसा मैं चाहूँ, वैसा हो जाय-यह ‘काम’ अर्थात्‌ कामना है । किसी भी क्रिया, वस्तु और व्यक्तिका अच्छा लगना अथवा उससे कुछ भी सुख चाहना ‘काम’ है । इस कामरूप एक दोषमें अनन्त पाप भरे हुए हैं । अतः जबतक मनुष्यके भीतर काम है, तबतक वह सर्वथा निर्दोष, निष्पाप नहीं हो सकता । कामनाके सिवाय पापोंका अन्य कोई कारण नहीं है । तात्पर्य है कि मनुष्यसे न तो ईश्वर पाप कराता है, न भाग्य पाप कराता है, न समय पाप कराता है, न परिस्थिति पाप कराती है, न कलियुग पाप कराता है, प्रत्युत मनुष्य स्वयं ही कामनाके वशीभूत होकर पाप करता है ।

ॐ तत्सत् !

Wednesday 11 January 2017

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.२४)


श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥ ३५॥

अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणोंकी कमीवाला अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है।

व्याख्या—

वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार निष्कामभावसे अपने-अपने कर्तव्यका पालन करना मनुष्यका ‘स्वधर्म’ है और जो उसके लिये निषिद्ध है, वह ‘परधर्म’ है । जिनमें दूसरेके अहितका भाव होता है, वे चोरी, हिंसा आदि किसीके भी स्वधर्म नहीं हैं, प्रत्युत कुधर्म अथवा अधर्म हैं ।
प्रत्येक धर्ममें कुधर्म, अधर्म और परधर्म-ये तीनों रहते हैं; जैसे- दूसरेके अनिष्टका भाव, कूटनीति आदि ‘धर्ममें कुधर्म’ है । यज्ञमें पशुबलि देना आदि ‘धर्ममें अधर्म’ है । जो अपनेलिये निषिद्ध है, ऐसा दूसरे वर्ण, आश्रम आदिका ‘धर्ममें परधर्म’ है । कुधर्म, अधर्म और परधर्मसे कल्याण नहीं होता । कल्याण उस धर्मसे होता है, जिसमें अपने स्वार्थ तथा अभिमानका त्याग और दूसरेका वर्तमानमें और भविष्यमें हित होता हो ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.२३)


इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥ ३४॥

इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें (प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें) मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर) स्थित हैं। मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें) विघ्न डालनेवाले शत्रु हैं।

व्याख्या—

भूलसे अपने सुख-दःखका कारण दूसरेको माननेसे ही राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं । यदि अन्तःकरणमें राग-द्वेष उत्पन्न हो जाँय तो उनके वशीभूत होकर कोई क्रिया नहीं करनी चाहिये; क्योंकि क्रिया करनेसे राग-द्वेष दृढ़ हो जाते हैं ।
साधक राग-द्वेषके वशीभूत भी न हो और उनको अपनेमें भी न माने । राग-द्वेष आगन्तुक दोष हैं । हमें इनके आने-जानेका ज्ञान होता है; अतः हम इनसे अलग हैं ।
ॐ तत्सत् !

Tuesday 10 January 2017

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.२२)

सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥ ३३॥

सम्पूर्ण प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं। ज्ञानी महापुरुष भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। (फिर इसमें किसीका) हठ क्या करेगा?

व्याख्या—

चेतन-तत्त्व सम रहता है और प्रकृति विषम रहती है । इसलिये तत्त्वज्ञ महापुरुषोंके स्वरूपमें कोई भिन्नता नहीं होती, पर उनकी प्रकृति (स्वभाव)-में भिन्नता होती है । उनका स्वभाव राग-द्वेषसे रहित होनेके कारण महान्‌ शुद्ध होता है । स्वभाव शुद्ध होनेपर भी तत्त्वज्ञ महापुरुषोंके स्वभावमें (जिस साधन-मार्गसे सिद्धि प्राप्त की है, उस मार्गके सूक्ष्म संस्कार रहनेके कारण) भिन्नता रहती है और उस स्वभावके अनुसार ही उनके द्वारा भिन्न-भिन्न व्यवहार होता है ।

ॐ तत्सत् !

Sunday 8 January 2017

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.२१)


मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर:॥ ३०॥
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा:।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभि:॥ ३१॥
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस:॥ ३२॥

तू विवेकवती बुद्धि के द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को मेरे अर्पण करके कामनारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्धरूप कर्तव्य-कर्म को कर ।
जो मनुष्य दोष-दृष्टिसे रहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे इस (पूर्वश्लोकमें वर्णित) मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं ।
परन्तु जो मनुष्य मेरे इस मतमें दोष-दृष्टि करते हुए इसका अनुष्ठान नहीं करते, उन सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और अविवेकी मनुष्योंको नष्ट हुए ही समझो अर्थात् उनका पतन ही होता है ।

व्याख्या—

यदि साधक भगवन्निष्ट है तो उसे सम्पूर्ण कर्म भगवान्‌ के अर्पित करने चाहिये । अर्पण करने का तात्पर्य है-अपने लिये कोई कर्म न करके केवल भगवान्‌ की प्रसन्नता के लिये ही सब कर्म करना ।
भगवान्‌ का मत है-मिलने तथा बिछुड़नेवाली कोई भी वस्तु (पदार्थ और क्रिया) अपनी तथा अपने लिये नहीं है । भगवान्‌ का मत ही वास्तविक सिद्धान्त है, जिसका अनुसरण करके मात्र मनुष्य मुक्त हो सकते हैं ।

ॐ तत्सत् !