Saturday 29 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१६)


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥ २३॥

शस्त्र इस शरीरी को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती।

व्याख्या—

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार-यह अपरा प्रकृति (जड़-विभाग) है और स्वरूप परा प्रकृति (चेतन-विभाग) है (गीता ७।४-५) । अपरा प्रकृति परा प्रकृति तक पहुँच ही नहीं सकती । जड़ पदार्थ चेतन-तत्त्व तक कैसे पहुँच सकता है ? इसलिये जड़ वस्तु चेतनमें शरीरी में किन्चिन्मात्र कोई विकार उत्पन्न नहीं कर सकती ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१५)

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ २२॥

मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है।

व्याख्या—

जैसे कपड़े बदलनेसे मनुष्य बदल नहीं जाता, ऐसे ही अनेक शरीरोंको धारण करने और छोड़नेपर भी शरीरी वही-का-वही रहता है, बदलता नहीं । तात्पर्य है कि शरीरके परिवर्तन तथा नाशसे स्वयंका परिवर्तन तथा नाश नहीं होता । यह सबका अनुभव है कि हम रहते हैं, बचपन आता और चला जाता है । हम रहते हैं, जवानी आती और चली जाती है । हम रहते हैं, बुढ़ापा आता और चला जाता है । वास्तवमें न बचपन है, न जवानी है, न बुढ़ापा है, न मृत्यु है, प्रत्युत केवल हमारी सत्ता ही है ।

ॐ तत्सत् !

Friday 28 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१४)

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥ २१॥

हे पृथानन्दन ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये ?

व्याख्या—

शरीर की किसी भी क्रिया से शरीरी में किंचिन्मात्र भी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता । अतः शरीरी किसी भी क्रिया का न तो कर्ता (तथा भोक्ता) बनता है, न कारयिता ही बनता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१३)

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ २०॥

यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और अनादि है। शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।

व्याख्या—

उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना-ये छः विकार शरीरमें ही होते हैं । शरीरीमें ये विकार कभी हुए ही नहीं, कभी होंगे नहीं, कभी हो सकते ही नहीं ।

शरीरी कभी उत्पन्न नहीं होता-‘न जायते’, ‘अजः’; उत्पन्न होकर विकारी सत्तावाला नहीं होता-‘अयं भूत्वा भविता वा न भूय:’; यह बदलता नहीं- ‘शाश्वतः’; यह बढ़ता नहीं-‘पुराणः’, यह क्षीण नहीं होता-‘नित्यः’; और यह मरता नहीं-‘न म्रियते’, न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ ।

मुख्य विकार दो ही हैं-उत्पन्न होना और नष्ट होना । अतः प्रस्तुत श्लोकमें इस दोनों विकारोंका दो-दो बार निषेध किया गया है; जैसे-‘न जायते म्रियते’ और ‘अजः’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ ।

ॐ तत्सत् !

Wednesday 26 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१२)

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥ १९॥

जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है।

व्याख्या—

शरीरीमें कर्तापन नहीं है और मृत्युरूप विकार भी नहीं है । कर्तापन आदि सभी विकार प्रकृतिसे मानेहुए सम्बन्ध (मैं-पन)- में ही हैं ।

ॐ तत्सत् !

Tuesday 25 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.११)


अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥ १८॥

अविनाशी, जाननेमें न आनेवाले और नित्य रहनेवाले इस शरीरीके ये देह अन्तवाले कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन ! तुम युद्ध करो ।
व्याख्या—
पूर्वश्लोकमें शरीरीको अविनाशी बताकर अब भगवान्‌ यह कहते हैं कि मात्र शरीर नाशवान्‌ हैं, मरनेवाले हैं । तात्पर्य है कि मिला हुआ तथा बिछुड़नेवाला शरीर हमारा स्वरूप नहीं है । शरीर तो केवल कर्म-सामग्री, जिसका उपयोग केवल दूसरोंकी सेवा करनेमें ही है । अपने लिये उसका किंचिन्मात्र भी उपयोग नहीं है । अतः शरीरके नाशसे अपनी कोई हानि नहीं होती ।
ॐ तत्सत् !

Monday 24 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१०)

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमहर्ति॥ १७॥

अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश कोई भी नहीं कर सकता।

व्याख्या—

जिस सत्‌-तत्त्वका अभाव विद्यमान नहीं है, वही अविनाशी तत्त्व है, जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है । अविनाशी होने के कारण तथा सम्पूर्ण जगत्‌में व्याप्त होनेके कारण उसका कभी कोई नाश कर सकता ही नहीं । नाश उसीका होता है, जो नाशवान्‌ तथा एक देशमें स्थित हो ।

ॐ तत्सत् !

Sunday 23 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.०९)

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥ १६॥

असत् का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है। तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इन दोनों का ही तत्त्व देखा अर्थात् अनुभव किया है।

व्याख्या—

दो विभाग हैं- चेतन-विभाग (‘है’) और जड़-विभाग (नहीं) । परमात्मा तथा सम्पूर्ण जीव चेतन-विभागमें है और संसार-शरीर जड़-विभागमें हैं । जड़ और चेतन – दोनों का स्वभाव परस्पर विरुद्ध है । यह नियम है कि परस्परविरुद्ध विश्वास एक साथ नहीं रह सकते । इसलिये ‘है’ पर विश्वास होते ही ‘नहीं’ का विश्वास निर्जीव हो जाता है और ‘नहीं’ से विश्वास उठते ही ‘है’ का विश्वास सजीव हो जाता है । सच्चा साधक एक ‘है’ (सत्‌-तत्त्व) के सिवाय अन्य (असत्‌) की सत्ता स्वीकार ही नहीं करता । अन्यकी सत्ता स्वीकार न करने पर साधकमें स्वतः ‘है’ की स्मृति जाग्रत्‌ हो जाती है । ‘है’ की स्मृतिसे साधककी साध्यके साथ अभिन्नता हो जाती है ।

कोई मनुष्य ‘नहीं’ को कितनी ही दृढतासे स्वीकार करे, उसकी निवृत्ति होती ही है, प्राप्ति होती ही नहीं । परन्तु ‘है’ को कितना ही अस्वीकार करे, उसकी प्राप्ति होती ही है । उसकी विस्मृति तो हो सकती है, पर निवृत्ति होती ही नहीं । अतः एक सत्तामात्र ‘है’ के सिवाय कुछ नहीं है- यह सार बात है, जिसका महापुरुषों ने अनुभव किया है ।

संसारमें अभाव ही मुख्य है । इसके भावमें भी अभाव है, अभावमें भी अभाव है । परन्तु परमात्मामें भाव ही मुख्य है । उनके अभावमें में भी भाव है, भावमें भी भाव है । संसार दीखे या न दीखे, मिले या न मिले, उसका ‘वियोग’ ही मुख्य है । परमात्मा दीखें या न दीखें, मिलें या न मिलें, उनका ‘योग’ ही मुख्य है। संसारका नित्यवियोग है । परमात्माका नित्ययोग है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.०८)


यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥ १५॥

कारण कि हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दु:खमें सम रहनेवाले जिस बुद्धिमान् मनुष्य को ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) विचलित (सुखी-दु:खी) नहीं करते, वह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।

व्याख्या—

मिले हुए और बिछुडनेवाले शरीरको मैं, मेरा तथा मेरे लिये मानना मनुष्यकी मूल भूल है । यह भूल स्वतः-स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत मनुष्यके द्वारा रची हुई (कृत्रिम) है । अपने विवेकको महत्त्व न देनेसे ही यह भूल उत्पन्न होती है । इस एक भूलसे फिर अनेक तरहकी भूलें उत्पन्न होती हैं । इसलिये इस भूलको मिटाना बहुत आवश्यक है और इसको मिटानेकी जिम्मेवारी मनुष्य पर ही है । इसको मिटानेके लिये भगवान्‌ने मनुष्यको विवेक प्रदान किया है । जब साधक अपने विवेकको महत्त्व देकर इस भूलको मिटा देता है, तब वह निर्मम-निरहंकार हो जाता है । निर्मम-निरहंकार होते ही साधकमे समता आजाती है ।

ॐ तत्सत् !