Wednesday 15 February 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.२९)


न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति॥ ३८॥

इस मनुष्यलोकमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला नि:सन्देह दूसरा कोई साधन नहीं है। जिसका योग भलीभाँति सिद्ध हो गया है, (वह कर्मयोगी) उस तत्त्वज्ञानको अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता है।

व्याख्या—

जिस तत्त्वज्ञानको पानेके लिये कर्मोंका त्याग करके अनुभवी और शास्त्रज्ञ महापुरुषकी शरणमें जाना पड़ता है (गीता ४ । ३४), वही तत्त्वज्ञान कर्मयोगीको सब कर्म करते हुए अपने-आपमें ही प्राप्त हो जाता है । तत्त्वज्ञानके लिये उसे कहीं जाना नहीं पड़ता, कोई दूसरा साधन नहीं करना पड़ता ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.२७)

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥ ३६॥

अगर तू सब पापियों से भी अधिक पापी है तो भी तू ज्ञानरूपी नौका के द्वारा नि:सन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा।

व्याख्या—

संसारमें जितने पापी हैं, उन सब पापियोंमें भी जो सबसे अधिक पापी हैं, ऐसे महापापीको भी ज्ञान प्राप्त हो सकता है । इसलिये किसी भी मनुष्यको अपने कल्याणके विषय में निराश नहीं होना चाहिये । मनुष्यमात्र ज्ञानप्राप्ति का अधिकारी है । ज्ञानकी प्राप्तिमें पाप बाधक नहीं हैं, प्रत्युत नाशवान्‌की कामना बाधक है (गीता ३ । ३७-४१) ।

दो विभाग हैं-जड़ और चेतन । ये दोनों विभाग अन्धकार और प्रकाशकी तरह परस्पर सर्वथा असम्बद्ध हैं । सम्पूर्ण क्रियाएँ जड़-विभाग में ही होती हैं । चेतन-विभाग में कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं होती । सम्पूर्ण पाप जड़-विभाग में ही हैं, चेतन-विभाग में नहीं । जड़ और चेतनके विभाग को अलग-अलग जानना ही ज्ञान है । इस ज्ञानरूपी अग्नि से सम्पूर्ण पाप सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.२६)

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥ ३५॥

जिस (तत्त्वज्ञान)-का अनुभव करनेके बाद तू फिर इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा और हे अर्जुन! जिस (तत्त्वज्ञान)-से तू सम्पूर्ण प्राणियोंको नि:शेष भावसे पहले अपनेमें और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखेगा।

व्याख्या—

तत्त्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें मोहकी सत्ता है ही नहीं-‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) । इसलिये तत्त्वज्ञान एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है । जैसे, पृथ्वीपर दिनके बाद रात होती है, रातके बाद दिन होता है; परन्तु सूर्यमें रात आती ही नहीं । वहाँ नित्य-निरन्तर दिनसे भी विलक्षण प्रकाश रहता है । ऐसे ही तत्त्वज्ञानरूप सूर्यमें मोहरूप अन्धकारका प्रवेश कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं । मोहकी सत्ता जीवकी दृष्टिमें है ।

परमात्माके अन्तर्गत जीव है-‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) और जीवके अन्तर्गत जगत्‌ है-‘ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७ । ५) । इसलिये साधक पहले जगत्‌को अपनेमें देखता है-‘द्रक्ष्यस्यात्मनि’, फिर अपनेको परमात्मामें देखता है-‘अथो मयि’ । जगत्‌को अपनेमें देखनेसे अहम्‌ की सूक्ष्म सत्ता रहती है । यह सूक्ष्म अहम्‌ जन्म-मरण देने वाला तो नहीं होता, पर दार्शनिक मतभेद करानेवाला होता है । अपनेको परमात्मामें देखनेसे अहम्‌का सर्वथा नाश हो जाता है और एक चिन्मय सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं रहता ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.२५)


तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥ ३४॥

उस तत्त्वज्ञानको (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर) समझ। उनको साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी (अनुभवी) ज्ञानी (शास्त्रज्ञ) महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे।

व्याख्या—

तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणालीका वर्णन करते हुए भगवान्‌ मानो यह कहना चाहते हैं कि केवल गुरु बनानेसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती और केवल शिष्य बनानेसे गुरुका कर्तव्य पूरा नहीं होता । यदि कोई अनुभवी महापुरुषके पास जाकर उन्हें प्रणाम करे अर्थात्‌ अपने-आपको उनके समर्पित कर दे, उनकी आज्ञाके अनुसार काम करे और उनके सामने अपनी जिज~झासा प्रकट करे तो वे गुरु-शिष्यका सम्बन्ध जोड़े बिना तत्त्वज्ञानका उपदेश दे देंगे ।

जिससे तत्त्वज्ञानका उपदेश लिया जाय, उस महापुरुषका अनुभवी और शास्त्रज्ञ होना आवश्यक है । यदि वह अनुभवी तो हो पर शास्त्रज्ञ नहीं हो तो जिज्ञासुकी अनेक शंकाओंका समुचित समाधान नहीं कर पायेगा । यदि वह शास्त्रज्ञ तो हो, पर अनुभवी नहीं हो तो उसके वचन वैसे ठोस एवं प्रभावशाली नहीं होंगे, जिनसे जिज्ञासुको बोध हॊ जाय ।

अनुभवी और शास्त्रज्ञ-इन दोनोंमें भी महापुरुषका अनुभवी होना मुख्य है । अनुभवी महापुरुषके हृदयमें शास्त्र स्वतः प्रकट होते हैं । अनुभवी सन्तोंकी वाणीसे ही शास्त्र बनते हैं । उनकी वाणी स्वतः शास्त्रके अनुकूल होती है ।

ॐ तत्सत् !