Saturday 7 January 2017

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.२०)



प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥ २९॥

प्रकृतिजन्य गुणों से अत्यन्त मोहित हुए अज्ञानी मनुष्य गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं। उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी मनुष्य विचलित न करे।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१९)


तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥ २८॥

परन्तु हे महाबाहो ! गुण-विभाग और कर्म-विभागको तत्त्वसे जाननेवाला महापुरुष 'सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं—ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता।

व्याख्या—

यह सिद्धान्त है कि संसार (पदार्थ और क्रिया)- से अलग होनेपर ही संसारक ज्ञान होता है और परमात्मासे एक होने पर ही परमात्माका ज्ञान होता है । कारण यह है कि वास्तवमें हम संसारसे अलग और परमात्मासे एक हैं । तत्त्वज्ञ महापुरुष गुण-विभाग (पदार्थ) और कर्म-विभाग (क्रिया)- से सर्वथा अलग होनेपर यह जान लेता है कि संपूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं । स्वरूपमें कभी कोई क्रिया नहीं होती ।
ॐ तत्सत् !

Tuesday 3 January 2017

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१८)

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ २७॥

सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकारसे मोहित अन्त:करणवाला अज्ञानी मनुष्य मैं कर्ता हूँ—ऐसा मान लेता है।

व्याख्या—

जड़-विभाग अलग है और चेतन-विभाग अलग है । क्रियामात्र जड़ प्रकृतिमें ही होती है । चेतनमें कभी कोई क्रिया होती ही नहीं-‘शरीरस्थो$पि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । क्रियाका आरम्भ और समाप्ति तथा पदार्थका आदि और अन्त होता है; परन्तु चेतनका न आरम्भ तथा समाप्ति होती है, न आदि तथा अन्त होता है ।

भगवान्‌ने गीतामें कर्मोंके होनेमें पाँच कारण बताये हैं-

(१) प्रकृति-‘प्रकृतेः क्रियमाणानि०’ (३ । २७), ‘प्रकृत्यैव च कर्माणि०’ (१३ । २९) ।
(२) गुण-‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (३ । २८), ‘नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं० (१४ । १९) ।
(३) इन्द्रियाँ-‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते’ (५ । ९) ।
(४) स्वभाव-(क्रियाका वेग)-‘स्वभावस्तु प्रवर्तते’ (५ । १४),‘प्रकृति यान्ति भूतानि०’ (३ । ३३) ।
(५) पाँच हेतु-‘अधिष्ठानं तथा कर्ता०’ (१८ । १४) ।

उपर्युक्त पाँचों का मूल कारण एक ‘अपरा प्रकृति’ (जड़-विभाग) ही है । आज तक अनेक योनियों में जीव ने जो भी कर्म किये हैं, उनमें से कोई भी कर्म तथा कोई भी शरीर स्वरूपतक नहीं पहुंचा । सूर्य तक अंधकार कैसे पहुँच सकता है ? कारण कि कर्म और शरीरादि पदार्थों का विभाग ही अलग है और स्वरूप का विभाग ही अलग है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१७)


सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ॥ २५॥
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्॥ २६॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित तत्त्वज्ञ महापुरुष भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे। सावधान तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानी मनुष्योंकी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न न करे, प्रत्युत स्वयं समस्त कर्मोंको अच्छी तरहसे करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाये।

व्याख्या—

यद्यपि ज्ञानी महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता-‘तस्य कार्य न विद्यते’ (गीता ३ । १७), तथापि भगवान्‌ उसे आज्ञा देते हैं कि वह लोकसंग्रहके लिये स्वयं भी सावधानी पूर्वक कर्तव्य-कर्म करे और कर्मोंमें आसक्त दूसरे मनुष्योंसे भी वैसे ही कर्तव्य-कर्म करवाये ।

ॐ तत्सत् !