Saturday 4 March 2017

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१२)

सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥ १३॥

जिसकी इन्द्रियाँ और मन वशमें हैं, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारोंवाले (शरीररूपी) पुरमें सम्पूर्ण कर्मोंका (विवेकपूर्वक) मनसे त्याग करके नि:सन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ सुखपूर्वक (अपने स्वरूपमें) स्थित रहता है।

प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध जोड़नेसे जीव प्रकृतिजन्य गुणोंके अधीन हो जाता है-‘अवशः’ (गीता ३ । ५) और प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाओंका कर्ता बन जाता है । परन्तु जब जीव प्रकृतिके साथ माने हुए सम्बन्धको मिटा देता है, तब वह स्वाधीन हो जाता है-‘वशी’ । स्वाधीन होनेपर वह किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं बनता । प्रकृतिमें क्रियता और स्वरूपमें अक्रियता स्वतःसिद्ध है । चेतन तत्त्व (स्वरूप) न तो कर्म करता है और न कर्म करनेकी प्रेरणा ही करता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.११)


युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्त: कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥ १२॥

कर्मयोगी कर्मफलका त्याग करके नैष्ठिकी शान्तिको प्राप्त होता है। परन्तु सकाम मनुष्य कामनाके कारण फलमें आसक्त होकर बँध जाता है।

व्याख्या—

कर्म बाँधनेवाले नहीं होते, प्रत्युत कर्मफलकी इच्छा बाँधनेवाली होती है । कर्म न तो बाँधते हैं, न मुक्त ही करते हैं । कर्मोंमें सकामभाव ही बाँधनेवाला और निष्कामभाव मुक्त करने वाला होता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१०)

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिन: कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥ ११॥

कर्मयोगी आसक्तिका त्याग करके केवल (ममतारहित) इन्द्रियाँ, शरीर, मन और बुद्धिके द्वारा अन्त:करणकी शुद्धिके लिये ही कर्म करते हैं।

व्याख्या—

ममतका सर्वथा नाश होना ही अन्तःकरणकी शुद्धि है । कर्मयोगी साधक शरीर-इद्रियाँ-मन-बुद्धिको अपना तथा अपने लिये न मानते हुए, प्रत्युत संसारका तथा संसारके लिये मानते हुए ही कर्म करते हैं । इस प्रकार कर्म करते-करते जब ममताका सर्वथा अभाव हो जाता है, तब अन्तःकरण पवित्र हो जाता है । पवित्र होनेपर अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर स्वरूपमें स्थिति हो जाती है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०९)

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥ १०॥

जो (भक्तियोगी) सम्पूर्ण कर्मोंको परमात्मामें अर्पण करके और आसक्तिका त्याग करके कर्म करता है, वह जलसे कमलके पत्तेकी तरह पापसे लिप्त नहीं होता।

व्याख्या—

कर्मयोगी सम्पूर्ण कर्मोंको संसारके अर्पण करता है, ज्ञानयोगी प्रकृतिके अर्पण करता है और भक्तियोगी भगवान्‌के अर्पण करता है । तीनोंका परिणाम एक ही होता है । तीनों योगोंमें ‘अपने लिये कुछ न करना’ आवश्यक है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०८)

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥ ८॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥ ९॥

तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, सूँघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, ग्रहण करता हुआ, बोलता हुआ, (मल-मूत्रका) त्याग करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ तथा आँख खोलता हुआ और मूँदता हुआ भी 'सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं’—ऐसा समझकर 'मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता हूँ’—ऐसा माने।

व्याख्या—

अपरा प्रकृतिके अहम्‌के साथ अपना सम्बन्ध जोड़नेके कारण अविवेकी मनुष्य अपनेको कर्ता मान लेता है-‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) । परन्तु जब वह विवेकपूर्वक अहम्‌ से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है, तब उसे ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’- इस प्रकार अपने वास्तविक स्वरूपका अनुभव हो जाता है ।

हमारा वास्तविक स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है । उस स्वरूपमें कर्तृत्त्व-भोक्तृत्व न कभी थ, न है, न होगा और न हो ही सकता है । अतः शरीरके द्वारा शास्त्र्विहित क्रियाएँ होते हुए भी साधककी दृष्टि अपने स्वरूपकी ओर रहनी चाहिये, जो कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित है-‘शरीरस्थो$पि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३९) ।

ॐ तत्सत् !