Saturday 13 May 2017

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
 शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।८।।

जैसे वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ग्रहण करके ले जाती है, ऐसे ही शरीरादि का स्वामी बना हुआ जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ता है, वहाँ से मनसहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें चला जाता है ।

व्याख्या—
वास्तव में शुद्ध चेतन (आत्मा)-का किसी शरीर को प्राप्त करना उसका त्याग करके दूसरे शरीर में जाना हो नहीं सकता; क्योंकि आत्मा अचल और समानरूप से सर्वत्र व्याप्त है (गीता २ । १७,२४) । शरीरों का ग्रहण और त्याग परिच्छिन्न (एकदेशीय) तत्त्व के द्वारा ही होना सम्भव है, जबकि आत्मा कभी भी देश-कालादि में परिच्छिन्न नहीं हो सकती । परन्तु जब यह आत्मा प्रकृतिके कार्य शरीरसे तदात्म्य कर लेती है अर्थात्‌ शरीर को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान लेती है, तब सूक्ष्म शरीर के आने-जाने को उसका आना-जाना कहा जाता है ।
वायु का दृष्टान्त देने का तात्पर्य है कि जीव वायु की तरह निर्लिप्त रहता है । शरीर से लिप्त होने पर भी वास्तव में इसकी निर्लिप्तता ज्यों-की-त्यों रहती है-‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) ।

ॐ तत्सत् !

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