Tuesday 25 April 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.०१)


श्रीभगवानुवाच

मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय:।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥ १॥
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत:।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ २॥

श्रीभगवान् बोले—हे पृथानन्दन! मुझमें आसक्त मनवाला, मेरे आश्रित होकर योगका अभ्यास करता हुआ तू मेरे जिस समग्ररूपको नि:सन्देह जिस प्रकारसे जानेगा, उसको (उसी प्रकारसे) सुन।

तेरे लिये मैं यह विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्णतासे कहूँगा, जिसको जाननेके बाद फिर इस विषयमें जाननेयोग्य अन्य (कुछ भी) शेष नहीं रहेगा।

व्याख्या—

आत्मीयताके कारण जिसका मन भगवान्‌की ओर आकर्षित हो गया है, जो सब प्रकारसे भगवान्‌के आश्रित हो गया है और जिसने भगवान्‌के साथ अपने नित्य-सम्बन्धको पहचान लिया है, ऐसा भक्त भगवान्‌के समग्ररूपको जान लेता है । सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि सब कुछ एक भगवान्‌ ही हैं-यह भगवान्‌का समग्ररूप है । भगवान्‌ कहते हैं कि पार्थ ! अपने समग्ररूपका वर्णन मैं इस ढंगसे करूँगा, जिससे तू मेरे समग्ररूपको सुगमतापूर्वक यथार्थरूपसे जान लेगा और तेरे सब संशय मिट जायँगे ।
परा और अपरा प्रकृतिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है-- यह ‘ज्ञान’ है और परा-अपरा सब कुछ एक भगवान्‌ ही हैं- यह ‘विज्ञान’ है । अहम्‌सहित सब कुछ भगवान्‌ ही हैं-यह भगवान्‌का समग्ररूप ही ‘विज्ञानसहित ज्ञान’ है । इस विज्ञानसहित ज्ञानको जाननेके बाद और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता; क्योंकि ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’-इसे जाननेके बाद यदि कुछ शेष रहेगा तो वह भी भगवान्‌ ही होंगे !

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.३४)

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥ ४७॥

सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मनसे मेरा भजन करता है, वह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है।

व्याख्या—

तपस्वियों, ज्ञानियों और कर्मियोंसे तो योगी श्रेष्ठ है, पर योगियों से भी भगवान्‌ का भक्त श्रेष्ट है । योगी तो योगभ्रष्ठ होसकता है, पर भक्त कभी योगभ्रष्ट हो सकता ही नहीं; क्योंकि वह भगवान्‌ के आश्रित रहता है । भगवान्‌ के ही आश्रित रहने के कारण भगवान्‌ उसकी विशेष रक्षा करते हैं । योगी में तो मुक्त होने पर भी अहम्‌ की सूक्ष्म गन्ध रह सकती है, पर भक्त में अहम्‌ की सूक्ष्म गन्ध भी नहीं रहती । भक्त को उस प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम की प्राप्ति होती है, जिसकी भूख महायोगेश्‍वर भगवान्‌ में भी है !

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम
षष्ठोऽध्याय:॥ ६॥

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.३३)

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥ ४६॥

(सकामभाववाले) तपस्वियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है, ज्ञानियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है और कर्मियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है—ऐसा मेरा मत है। अत: हे अर्जुन! तू योगी हो जा।

व्याख्या—

जो लौकिक सिद्धियोंको पानेके लिये तपस्या करते हैं, जो शास्त्रोंके ज्ञाता हैं और जो सकामभावसे यज्ञ, दान आदि कर्म करते हैं, उन सबसे योगी श्रेष्ठ है । कारण कि तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी-इन तीनोंका उद्देश्य संसार है और भाव सकाम है; परन्तु योगीका उद्देश्य परमात्मा है और भाव निष्काम है ।

ॐ तत्सत् !