Thursday 16 March 2017

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.२५)


भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥ २९॥

(भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि) मुझे सब यज्ञों और तपों का भोक्ता, सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर तथा सम्पूर्ण प्राणियों का सुहृद् (स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी) जानकर भक्त शान्ति को प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या—

भगवान्‌ केवल यज्ञों और तपोंके भोक्ता ही नहीं, प्रत्युत भक्तोंके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओं के भोक्ता भी हैं (गीता ९ । २७) । प्रेमके भोक्ता भी भगवान्‌ ही हैं । कोई किसी को नमस्कार करता है तो उसके भोक्ता भी वही हैं । कोई किसी देवता का पूजन करता है तो उसके भोक्ता भी वही हैं (गीता ९ । २३) ।

भगवान्‌ सम्पूर्ण शुभ कर्मों के भोक्ता हैं, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों के भी इश्वर हैं और हमारे परम सुहृद हैं- ऐसा दृढ़तापूर्वक स्वीकार करनेसे साधककी संसारसे ममता हटकर भगवान्‌ में आत्मीयता हो जाती है, जिसके होते ही परमशान्ति की प्राप्ति हो जाती है ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसन्न्यासयोगो नाम
पञ्चमोऽध्याय:॥ ५॥

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.२४)

स्पर्शान्कृत्वा वहिर्वाह्रांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो: ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥२७॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण: ।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स: ॥२८॥

बाहर के पदार्थों को बाहर ही छोड़कर और नेत्रों की दृष्टि को भौंहों के बीच में (स्थित करके) तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपने वश में हैं, जो केवल मोक्ष- परायण है तथा जो इच्छा, भय और क्रोध से सर्वथा रहित है, वह मुनि सदा मुक्त ही है।

व्याख्या-
बाहर के पदार्थों को बाहर ही छोड़ने का तात्पर्य है कि साधक की वृत्ति में एक परमात्मतत्त्व के सिवाय अन्य कोई भी सत्ता न रहे। मुक्ति स्वतःसिद्ध है, पर मिलने और बिछुड़ने वाले प्राणी- पदार्थों की सत्ता, महत्ता और अपनापन होने के कारण उसका अनुभव नहीं होता।

ॐ तत्सत् !  

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.२३)

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्रानिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥२६॥

काम- क्रोध से सर्वथा रहित, जीते हुए मन वाले और स्वरूप का साक्षात्कार किये हुए सांख्य योगियों के लिये सब ओर से (शरीर के रहते हुए अथवा शरीर छूटने के बाद) निर्वाण ब्रह्म परिपूर्ण है।

ॐ तत्सत् !  

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.२२)

योऽन्त: सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव य: ।
स योगी ब्रह्रानिर्वाणां ब्रह्राभूतोऽधिगच्छति ॥२४॥
लभन्ते ब्रह्रानिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा: ।
छित्रद्वेधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रता: ॥२५॥

जो मनुष्य केवल परमात्मा में सुख वाला और केवल परमात्मा में रमण करने वाला है तथा जो केवल परमात्मा में ज्ञान वाला है, वह ब्रह्म में अपनी स्थिति का अनुभव करने वाला (ब्रह्मरूप बना हुआ) सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होता है।
जिनका शरीर मन-बुद्धि-इन्द्रियों सहित वश में है, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं, निके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण दोष नष्ट हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। 
 
ॐ तत्सत् !  

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.२१)

शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर: ॥२३॥

इस मनुष्य शरीर में जो कोई मनुष्य शरीर छूटने से पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होनेवाले वेग को सहन करने में समर्थ होता है, वह नर योगी है और वही सुखी है। 

व्याख्या -

विवेकी साधक को चाहिये कि वह काम-क्रोधादि विकारों को आरम्भ में ही सहन कर ले, उनके अनुसार क्रिया करे।। काम-क्रोधादि की वृत्ति उत्पन्न होते ही उसका त्याग कर दे, अन्यथा एक बार काम-क्रोधादि का वेग उत्पन्न होने पर साधक तदनुसार क्रिया करने में बाध्य हो जाता है। काम-क्रोधादि के वश में न होने वाला साधक ही वास्तव में योगी है। जो योगी होता है, वही वास्तव में सुखी होता है।

ॐ तत्सत् !