Friday 30 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१६)

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥ २२॥
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥ २३॥
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥ २४॥

हे पार्थ! मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्यकर्ममें ही लगा रहता हूँ।
क्योंकि हे पार्थ! अगर मैं किसी समय सावधान होकर कर्तव्य-कर्म न करूँ (तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि) मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं वर्णसंकरता को करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ।

व्याख्या—

भगवान्‌ भी अवतारकाल में सदा कर्तव्य-कर्ममें लगे रहते हैं, इसलिये जो साधक फलेच्छा व आसक्ति-रहित होकर सदा कर्तव्य-कर्म में लगा रहता है, वह सुगमतापूर्वक भगवान को प्राप्त हो जाता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१५)

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ २१॥

श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य उसीके अनुसार आचरण करते हैं।

व्याख्या—

समाजमें जिस मनुष्यको लोग श्रेष्ट मानते हैं, उसपर विशेष जिम्मेदारी रहती है कि वह ऐसा कोई आचरण न करे तथा ऐसी कोई बात न कहे, जो लोक-मर्यादा तथा शास्त्र-मर्यादाके विरुद्ध हो ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१४)

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष:॥ १९॥
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमहर्सि॥ २०॥

इसलिये तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्मका भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्ति-रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।
राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म (कर्म-योग)-के द्वारा ही परम-सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिये लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू (निष्काम-भावसे) कर्म करने के ही योग्य है अर्थात् अवश्य करना चाहिये ।

व्याख्या—

मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत आसक्तिसे बँधता है । आसक्ति ही मनुष्यका पतन करती है, कर्म नहीं । आसक्ति रहित होकर दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त होकर परमात्त्व-तत्त्वको प्राप्त हो जाता है । कर्ममें परिश्रम और कर्म-योगमें विश्राम है । शरीरकी आवश्यकता परिश्रममें है, विश्राममें नहीं । कर्मयोगमें शरीरसे होनेवाला परिश्रम (कर्म) दूसरोंकी सेवाके लिये और विश्राम (योग) अपने लिये है ।

जनकादि राजाओंने भी कर्मयोगके द्वारा ही मुक्ति प्राप्त की थी । इससे सिद्ध होता है कि कर्मयोग मुक्तिका स्वतन्त्र साधन है ।

ॐ तत्सत् !

Tuesday 27 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१३)

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥ १८॥

उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुष)-का इस संसारमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ) इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता।

व्याख्या—

जैसे ‘करना’ प्रकृति के सम्बन्ध से है, ऐसे ‘न करना’ भी प्रकृति के सम्बन्ध से है । करना और न करना-दोनों सापेक्ष है, परन्तु तत्त्व निरपेक्ष है । इसलिये स्वयं (चिन्मय सत्तामात्र)- का न तो करनेके साथ सम्बन्ध है, न नहीं करनेके साथ सम्बन्ध है । करना, न करना तथा पदार्थ-ये सब उसी सत्तामात्रसे प्रकाशित होते हैं (गीता १३ । ३३) ।

कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें करनेका राग तथा पानेकी इच्छा सर्वथा नहीं रहती, इसलिये उसका न तो कुछ करनेसे मतलब रहता है, न कुछ नहीं करनेसे मतलब रहता है और न उसका किसी भी प्राणी-पदार्थसे कुछ पानेसे ही मतलब रहता है । तात्पर्य है कि उसका प्रकृति-विभागसे सर्वथा सम्बन्ध नहीं रहता ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१२)

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥ १७॥
परन्तु जो मनुष्य अपने-आप में ही रमण करनेवाला और अपने-आप में ही तृप्त तथा अपने-आप में ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।
व्याख्या—
जबतक परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं हो जाती, तभी तक मनुष्यपर कर्तव्य-पालनकी जिम्मेदारी रहती है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर महापुरुष के लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । उसके संसारमें रहनेमात्रसे संसारका हित होता है ।
ॐ तत्सत् !