Friday 4 December 2015

गीताजी की महिमा

भगवान् ने गीता की जितनी महिमा गायी है इतनी और किसी की नहीं गायी | भगवान् ने कहा है कि गीता का प्रचार करने वाले के समान मुझे कोई प्यारा नहीं है और भविष्य में भी उससे बढ़कर प्यारा न होगा | (गीता १८/६९) |
गीता-तत्वविवेचनी का अभ्यास करने वाला व्यक्ति मुझे जितना प्यारा लगता है, उतना प्यारा मुझे और कोई नहीं लगता | गीता में स्वयं शक्ति है वह न समझने वाले और अनपढ़ को भी समझा देती है |
मुझे किसी ने गीता नहीं पढाई और मुझे व्याकरण का तथा संस्कृत का भी ज्ञान नहीं है तथा मेरी बुध्दी भी तीक्ष्ण नहीं है | कोई कहे कि तुम्हे ही ज्ञान हो गया, परन्तु दूसरों को गीता का इतना ज्ञान नहीं हो सकता तो मैं इसे मुर्खता समझता हूँ | मुर्ख आदमी भी अभ्यास करे तो मुझ से बढ़कर हो सकता है, लगन होनी चाहिये |
गीता-तत्वविवेचनी और तत्वचिन्तामणि इन दोनो पुस्तकों में मेरा सिध्दान्त है | जैसे भगवान् ने गीता के अभ्यास करने वाले को सबसे बढ़कर प्रिय कहा है, वैसे ही गीता-तत्वविवेचनी का अभ्यास करने वाला मुझे प्रिय है |
मैंने बहुत से ग्रन्थ पढ़े, पर गीता से बढ़कर मुझे कोई भी ग्रन्थ अच्छा न लगा | गीता की जैसी शैली है वैसी और कहीं नहीं मिली | किसी ने कहा कि गीता को मुसलमान, इसाई सभी मानते हैं | चाहे मत मानो, कोई मत मानो, हमारी गीता तो सबसे बढ़कर है | हम दूसरों की मान्यता से ही बड़ी समझें, यह ठीक नहीं है | कोई महात्मा हो और उसे कोई महात्मा न माने तो क्या वह महात्मा नहीं है | बाइबिल को ज्यादा लोग मानते हैं | इस दृष्टि से तो बाइबिल सबसे बढ़कर हो गयी | गीता न तो किसी धर्म की और न किसी व्यक्ति की निन्दा करती है |
मेरे यह जँच रही है कि यदि धार्मिक पुस्तकें नष्ट भी हो जायँ तो भी इनमे यह गुण है कि इन्हें कोई नष्ट नहीं कर सकता | इनमे ऐसा अमरत्व है कि ये मारने पर भी नहीं मरते |
जो आदमी थोडा भी अपना हित चाहता है, वह भी इस पर लाठी नहीं चला सकता | हाँ, जो पढ़े ही नहीं, देखे ही नहीं उसकी बात दूसरी है | गीता की महिमा गीता में जो भगवान् ने गायी है वह अक्षरश: सत्य है | यही कहा जा सकता है कि थोड़ी गायी है, थोड़ी इसीलिये कि आप ही कथन करके आप ही उसकी महिमा कैसे कहें |


भगवान् हम सब पर कृपा करें |
जय श्री कृष्णा राधे राधे |

Thursday 3 December 2015

गीता के अठारहवें अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:- पार्वती! अब मैं अठारहवें अध्याय के माहात्म्य का वर्णन करता हूँ, परमानन्द को देने वाला अठारहवें अध्याय का यह पावन माहात्म्य जो समस्त वेदों से भी उत्तम है, इसे तुम श्रद्धा-पूर्वक श्रवण करो।
यह सम्पूर्ण शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ है, संसार के तीनों तापों से मुक्त करने वाला है, सिद्ध पुरुषों के लिए परम रहस्यमय है, अविद्या को सम्पूर्ण नष्ट करने वाला है। इसके निरन्तर पाठ करने वाले को यमदूत स्पर्श भी नहीं करते है, इससे बढ़कर कोई अन्य रहस्यमय उपदेश नहीं है, इसके सम्बन्ध में जो पवित्र उपाख्यान है, उसे भक्ति-भाव से श्रवण करो, इसके श्रवण मात्र से जीव समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।
मेरुगिरि के शिखर अमरावती नामवाली एक रमणीय पुरी थी, इसे पूर्वकाल में विश्वकर्मा ने बनाया था, इस पुरी में देवताओं और सेवकों के साथ इन्द्र देव अपनी पत्नी शची देवी के साथ राज्य किया करते थे। एक दिन इन्द्र देव सुख-पूर्वक बैठे हुए थे, इतने ही में उन्होंने देखा कि भगवान विष्णु के पार्षदों के साथ एक पुरुष वहाँ आ रहा है, इन्द्र देव उस नव-आगन्तुक पुरुष के तेज को सहन न करने के कारण अपने मुकुट सहित रत्न ज़डित सिंहासन से नीचे गिर पड़े।
यह देख इन्द्र के सेवकों ने उस मुकुट को नव आगन्तुक पुरुष के मस्तक पर आसीन कर दिया और उसे नया इन्द्र देव बना दिया, यह देख दिव्य गीत गाती हुई देवांगनाओं के साथ सभी देवता उनकी आरती उतारने लगे, ऋषियों ने वेद मंत्रों का उच्चारण करके उन्हें अनेक आशीर्वाद देने लगे, गन्धर्व मधुर स्वर में मंगलमय गान करने लगे।
इस नये इन्द्र देव को सौ अश्वमेघ यज्ञ किये बिना ही विभिन्न प्रकार के उत्सवों से सेवित देखकर पूर्व इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ, वह सोचने लगा ‘इसने तो मार्ग में न कभी कोई प्याऊ बनवाई हैं, न कोई कुण्ड-तालाब खुदवाये है और न पथिकों को विश्राम करने के लिये छाया देने वाले वृक्ष ही लगवाये है। अकाल पड़ने पर अन्न दान के द्वारा इसने प्राणियों की सहायता भी नहीं की है, इसके द्वारा तीर्थों में यज्ञों का अनुष्ठान भी नहीं किया गया है फिर इसे यह इन्द्र पद कैसे प्राप्त हुआ?
इस चिन्ता से व्याकुल होकर पूर्व इन्द्र श्रीभगवान विष्णु से पूछने के लिए प्रेम पूर्वक क्षीर सागर के तट पर गया और वहाँ अकस्मात अपने साम्राज्य से निष्कासित होने का दुःख निवेदन करते हुए बोला:- ‘हे प्रभु! मैंने पूर्व काल में आपकी प्रसन्नता के लिए सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया था, उसी के पुण्य से मुझे इन्द्र पद की प्राप्ति हुई थी, किन्तु इस समय स्वर्ग में मेरे इन्द्र पद पर किसी दूसरे की नियुक्ति कर दी गई है, उसने न तो कभी धर्म का कार्य किया है और न ही यज्ञों का अनुष्ठान किया है तो हे प्रभु फिर उसे मेरे इन्द्र पद की प्राप्ति कैसे हुई है?’
श्रीभगवान बोलेः इन्द्र! वह श्री मद भगवदगीता के अठारहवें अध्याय में से पाँच श्लोकों का प्रतिदिन पाठ किया करता था, उसी के पुण्य से उसने तुम्हारे इस पद को प्राप्त कर लिया है, गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ समस्त पुण्यों-कर्मों से श्रेष्ठ है, इसी का आश्रय लेकर तुम भी पुनः इन्द्र पद को प्राप्त कर सकते हो। 
श्रीभगवान के यह वचन सुनकर और इस उत्तम उपाय को जानकर पूर्व इन्द्र एक ब्राहमण का वेष धारण करके गोदावरी के तट पर पहुँच गया, वहाँ उसने कालिका ग्राम नामक उत्तम और पवित्र नगर देखा, जहाँ काल का भी मर्दन करने वाले भगवान कालेश्वर विराजमान हैं, वही गोदावरी तट पर एक धर्मात्मा ब्राह्मण रहते थे, जो बड़े ही दयालु और वेदों के पारंगत विद्वान थे।
वह ब्राहमण अपने मन को वश में करके प्रतिदिन गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ किया करते थे। उन्हें देखकर पूर्व इन्द्र ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उनके चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम किया, और वह उन ब्राहमण से नित्य अठारहवें अध्याय को सुना करता था, एक दिन अठारहवें आध्याय के श्रवण से अर्जित पुण्य कर्म से उसे श्री भगवान विष्णु की कृपा से भगवान के परम वैकुण्ठ धाम में सायुज्य मुक्ति की प्राप्ति हुई। 
अठारहवें अध्याय के श्रवण मात्र से ही मनुष्य समस्त पापों से छुटकारा पा जाता है। जो पुरुष श्रद्धा-युक्त होकर इसका नित्य श्रवण या पाठन करता है, ऎसा व्यक्ति समस्त यज्ञों के फलों को प्राप्त कर अन्त में श्रीभगवान की परम कृपा को प्राप्त करता है।

गीता के सत्रह अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:- पार्वती! अब सत्रहवें अध्याय की अनन्त महिमा श्रवण करो, राजा खड्गबाहू के पुत्र का दुःशासन नाम का एक नौकर था, वह दुष्ट बुद्धि का मनुष्य था, एक बार वह राजकुमारों के साथ बहुत धन की बाजी लगाकर हाथी पर चढ़ा और कुछ ही कदम आगे जाने पर लोगों के मना करने पर भी वह मूढ हाथी के प्रति जोर-जोर से कठोर शब्द करने लगा।
उसकी आवाज सुनकर हाथी क्रोध से अंधा हो गया और दुःशासन को गिराकर काल के समान निरंकुश हाथी ने क्रोध से भरकर उसे ऊपर की ओर फेंक दिया, ऊपर से गिरते ही उसके प्राण निकल गये, इस प्रकार कालवश मृत्यु को प्राप्त होने के बाद उसे हाथी की योनि मिली और सिंहलद्वीप के महाराज के यहाँ उसने अपना बहुत समय व्यतीत किया।
सिंहलद्वीप के राजा की महाराज खड्गबाहु से बड़ी मैत्री थी, अतः उन्होंने जल के मार्ग से उस हाथी को मित्र की प्रसन्नता के लिए भेज दिया, एक दिन राजा ने कविता से संतुष्ट होकर किसी कवि को पुरस्कार रूप में वह हाथी दे दिया और कवि ने सौ स्वर्ण मुद्राएँ लेकर मालवनरेश को बेच दिया, कुछ समय व्यतीत होने पर वह हाथी यत्न पूर्वक पालित होने पर भी असाध्य ज्वर से ग्रस्त होकर मरणासन्न हो गया।
महावतों ने जब उसे ऐसी शोचनीय अवस्था में देखा तो राजा के पास जाकर हाथी के हित के लिए शीघ्र ही सारा हाल कह सुनाया "महाराज! आपका हाथी अस्वस्थ जान पड़ता है, उसका खाना, पीना और सोना सब छूट गया है, हमारी समझ में नहीं आता इसका क्या कारण है।"
महावतों का बताया हुआ समाचार सुनकर राजा ने हाथी के रोग को पहचान वाले चिकित्सा कुशल मंत्रियों के साथ उस स्थान पर भेजा जहाँ हाथी ज्वरग्रस्त होकर पड़ा था, राजा को देखते ही उसने ज्वर की वेदना को भूलकर संसार को आश्चर्य में डालने वाली वाणी में कहा।
'सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता, राजनीति के समुद्र, शत्रु-समुदाय को परास्त करने वाले तथा भगवान विष्णु के चरणों में अनुराग रखने वाले महाराज! इन औषधियों से क्या लेना है? वैद्यों से भी कुछ लाभ होने वाला नहीं है, दान ओर जप से भी क्या सिद्ध होगा? आप कृपा करके गीता के सत्रहवें अध्याय का पाठ करने वाले किसी ब्राह्मण को बुलवाइये।'
हाथी के कथन के अनुसार राजा ने सब कुछ वैसा ही किया, तदनन्तर गीता-पाठ करने वाले ब्राह्मण ने जब उत्तम जल को अभिमंत्रित करके उसके ऊपर डाला, तब दुःशासन गजयोनि का परित्याग करके मुक्त हो गया, राजा ने दुःशासन को दिव्य विमान पर आरूढ तथा इन्द्र के समान तेजस्वी देखकर पूछा 'पूर्वजन्म में तुम्हारी क्या जाति थी? क्या स्वरूप था? कैसे आचरण थे? और किस कर्म से तुम यहाँ हाथी होकर आये थे? ये सारी बातें मुझे बताओ।'
राजा के इस प्रकार पूछने पर संकट से छूटे हुए दुःशासन ने विमान पर बैठे-ही-बैठे स्थिरता के साथ अपना पूर्वजन्म का उपर्युक्त समाचार यथावत कह सुनाया। तत्पश्चात् नरश्रेष्ठ मालवनरेश ने भी गीता के सत्रहवें अध्याय पाठ करने लगे, इससे थोड़े ही समय में उनकी मुक्ति हो गयी।

गीता के सोलह अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:- पार्वती ! अब मैं गीता के सोलहवें अध्याय का माहात्म्य बताऊँगा, सुनो, गुजरात में सौराष्ट्र नामक एक नगर है, वहाँ खड्गबाहु नाम के राजा राज्य करते थे, जो इन्द्र के समान प्रतापी थे, उनका एक हाथी था, जो सदा मद से उन्मत्त रहता था, उस हाथी का नाम अरिमर्दन था।
एक दिन रात में वह साँकलों और लोहे के खम्भों को तोड़कर बाहर निकला, महावत उसको दोनों ओर अंकुश लेकर डरा रहे थे, किन्तु क्रोधवश उन सबकी अवहेलना करके उसने अपने रहने के स्थान हथिसार को गिरा दिया, उस पर चारों ओर से भालों की मार पड़ रही थी फिर भी महावत ही डरे हुए थे, हाथी को तनिक भी भय नहीं होता था।
इस कौतूहलपूर्ण घटना को सुनकर राजा स्वयं हाथी को मनाने की कला में निपुण राजकुमारों के साथ वहाँ आये, आकर उन्होंने उस बलवान हाथी को देखा, नगर के निवासी अन्य काम धंधों की चिन्ता छोड़ अपने बालकों को भय से बचाते हुए बहुत दूर खड़े होकर उस महाभयंकर गजराज को देखते रहे, उसी समय कोई ब्राह्मण तालाब से नहाकर उसी मार्ग से लौट रहा था, वे गीता के सोलहवें अध्याय के कुछ श्लोकों का जप कर रहा था।
पुरवासियों और महावतों ने बहुत मना किया, किन्तु ब्राह्मण ने किसी की न मानी, उसे हाथी से भय नहीं था, इसलिए वे चिन्तित नहीं हुआ, उधर हाथी अपनी चिंघाड़ से चारों दिशाओं को व्याप्त करता हुआ लोगों को कुचल रहा था, वे ब्राह्मण उसके बहते हुए मद को हाथ से छूकर निर्भयता से निकल गया, इससे वहाँ राजा तथा देखने वाले पुरवासियों के मन मे विस्मय हुआ।
राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछाः- 'ब्राह्मण! आज आपने यह महान अलौकिक कार्य किया है, क्योंकि इस काल के समान भयंकर गजराज के सामने से आप सकुशल लौट आये हैं, आप किस देवता का पूजन तथा किस मन्त्र का जप करते हैं? बताइये, आपने कौन-सी सिद्धि प्राप्त की है?
ब्राह्मण ने कहाः- राजन! मैं प्रतिदिन गीता के सोलहवें अध्याय के कुछ श्लोकों का जप किया करता हूँ, इसी से सारी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं।
श्रीमहादेवजी कहते हैं:- तब हाथी का कौतूहल देखने की इच्छा छोड़कर राजा ब्राह्मण देवता को साथ ले अपने महल में आये, वहाँ शुभ मुहूर्त देखकर एक लाख स्वर्णमुद्राओं की दक्षिणा दे उन्होंने ब्राह्मण को संतुष्ट किया और उनसे गीता-मंत्र की दीक्षा ली, गीता के सोलहवें अध्याय के कुछ श्लोकों का अभ्यास कर लेने के बाद उनके मन में हाथी को छोड़कर उसके कौतुक देखने की इच्छा जागृत हुई।
एक दिन सैनिकों के साथ बाहर निकलकर राजा ने महावतों से उसी मत्त गजराज का बन्धन खुलवाया, वे निर्भय हो गये, राज्य का सुख-विलास के प्रति आदर का भाव नहीं रहा, वे अपना जीवन तृणवत् समझकर हाथी के सामने चले गये, साहसी मनुष्यों में अग्रगण्य राजा खड्गबाहु मन्त्र पर विश्वास करके हाथी के समीप गये।
मद की अनवरत धारा बहाते हुए उसके गण्डस्थल को हाथ से छूकर सकुशल लौट आये, काल के मुख से धार्मिक और खल के मुख से साधु पुरुष की भाँति राजा उस गजराज के मुख से बचकर निकल आये, नगर में आने पर उन्होंने अपने पुत्र राजकुमार को राज्य का कार्यभार सोंप कर स्वयं गीता के सोलहवें अध्याय का पाठ करके परम गति प्राप्त की।

Monday 30 November 2015

गीता के पंद्रह अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:– पार्वती! अब गीता के पंद्रहवें अध्याय का माहात्म्य सुनो, गौड़ देश में कृपाण नामक एक राजा था, जिसकी तलवार की धार से युद्ध में देवता भी परास्त हो जाते थे, उसका बुद्धिमान सेनापति शस्त्र कलाओं में निपुण था, उसका नाम था सरभमेरुण्ड, उसकी भुजाओं में प्रचण्ड बल था, एक समय उस पापी ने राजकुमारों सहित महाराज का वध करके स्वयं ही राज्य करने का विचार किया।
इस निश्चय के कुछ ही दिनों बाद वह हैजे का शिकार होकर मर गया. थोड़े समय में वह पापात्मा अपने पूर्व कर्म के कारण सिन्धु देश में एक तेजस्वी घोड़ा हुआ, उसका पेट सटा हुआ था, घोड़े के लक्षणों का ठीक-ठाक ज्ञान रखने वाले किसी वैश्य पुत्र ने बहुत सा मूल्य देकर उस अश्व को खरीद लिया और यत्न के साथ उसे राजधानी तक ले आया, वैश्यकुमार वह अश्व राजा को देने को लाया था, यद्यपि राजा उस वैश्यकुमार से परिचित था, तथापि द्वारपाल ने जाकर उसके आगमन की सूचना दी।
राजा ने पूछाः- किसलिए आये हो? तब उसने स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया सिन्धु देश में एक उत्तम लक्षणों से सम्पन्न अश्व था, जिसे तीनों लोकों का एक रत्न समझकर मैंने बहुत सा मूल्य देकर खरीद लिया है,' राजा ने आज्ञा दी 'उस अश्व को यहाँ ले आओ,' वास्तव में वह घोड़ा गुणों में उच्चैःश्रवा के समान था, सुन्दर रूप का तो मानो घर ही था, शुभ लक्षणों का समुद्र जान पड़ता था, वैश्य घोड़ा ले आया और राजा ने उसे देखा, अश्व का लक्षण जानने वाले राजा के मंत्रीयों ने इसकी बड़ी प्रशंसा की।
सुनकर राजा अपार आनन्द में निमग्न हो गया और उसने वैश्य को मुँह माँगा सुवर्ण देकर तुरन्त ही उस अश्व को खरीद लिया, कुछ दिनों के बाद एक समय राजा शिकार खेलने के लिए उत्सुक हो उसी घोड़े पर चढ़कर वन में गया, वहाँ मृगों के पीछे उन्होंने अपना घोड़ा बढ़ाया, पीछे-पीछे सब ओर से दौड़कर आते हुए समस्त सैनिकों का साथ छूट गया, वे हिरनों द्वारा आकृष्ट होकर बहुत दूर निकल गया, प्यास ने उसे व्याकुल कर दिया, तब वे घोड़े से उतर कर जल की खोज करने लगा।
घोड़े को तो उन्होंने वृक्ष के तने के साथ बाँध दिया और स्वयं एक चट्टान पर चढ़ने लगा, कुछ दूर जाने पर उसने देखा कि एक पत्ते का टुकड़ा हवा से उड़कर शिलाखण्ड पर गिरा है, उसमें गीता के पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक लिखा हुआ था, राजा उसे पढ़ने लगा, उस राजा के मुख से गीता के अक्षर सुनकर घोड़ा तुरन्त गिर पड़ा और अश्व शरीर को छोड़कर तुरंत ही दिव्य विमान पर बैठकर वह स्वर्गलोक को चला गया।
तत्पश्चात् राजा ने पहाड़ पर चढ़कर एक उत्तम आश्रम देखा, जहाँ नागकेशर, केले, आम और नारियल के वृक्ष लहरा रहे थे, आश्रम के भीतर एक ब्राह्मण बैठे हुए थे, जो संसार की वासनाओं से मुक्त थे, राजा ने उन्हे प्रणाम करके बड़े भक्ति के साथ पूछाः 'ब्रह्मन्! मेरा अश्व अभी-अभी स्वर्ग को चला गया है, इसका क्या कारण है?
राजा की बात सुनकर त्रिकालदर्शी, मंत्रवेत्ता और महापुरुषों में श्रेष्ठ विष्णु शर्मा नामक ब्राह्मण ने कहाः 'राजन! पूर्वकाल में तुम्हारे यहाँ जो सरभमेरुण्ड नामक सेनापति था, वह तुम्हें पुत्रों सहित मारकर स्वयं राज्य हड़प लेने को तैयार था, इसी बीच में हैजे का शिकार होकर वह मृत्यु को प्राप्त हो गया, उसके बाद वह उसी पाप से घोड़ा हुआ था, तुम्हें यहाँ गीता के पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक लिखा मिल गया था, उसी को तुम्हारे मुख से सुनकर वह अश्व स्वर्ग को प्राप्त हुआ है।'
तदनन्तर राजा के सैनिक राजा को ढूँढते हुए वहाँ आ पहुँचे, उन सबके साथ ब्राह्मण को प्रणाम करके राजा प्रसन्नता पूर्वक वहाँ से चले और गीता के पंद्रहवें अध्याय के श्लोकाक्षरों से अंकित उसी पत्र को पढ़कर प्रसन्न होने लगे, उनके नेत्र हर्ष से खिल उठे थे, घर आकर उन्होंने मन्त्रवेत्ता मन्त्रियों के साथ अपने पुत्र सिंहबल को राज्य सिंहासन पर अभिषिक्त किया और स्वयं पंद्रहवें अध्याय के जप से विशुद्धचित्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लिया।

गीता के चौदह अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:– हे प्रिय! अब मैं संसार-बन्धन से छुटकारा पाने के लिये चौदहवें अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो! सिंहल द्वीप में विक्रम बैताल नामक एक राजा थे, जो सिंह के समान पराक्रमी और कलाओं के भण्डार थे, एक दिन वे शिकार खेलने के लिए उत्सुक होकर राजकुमारों सहित दो कुतियों को साथ लिए वन में गये, वहाँ पहुँचने पर उन्होंने तीव्र गति से भागते हुए खरगोश के पीछे अपनी कुतिया छोड़ दी, उस समय सब प्राणियों के सामने भागता हुआ खरगोश इस प्रकार आँखो से ओझल हो गया मानो कहीं उड़ गया हो।
दौड़ते-दौड़ते बहुत थक जाने के कारण वह एक कीचड़-युक्त गड्‍डे में गिर गया था, गड्‍डे में गिरने से वह खरगोश कुतिया की पकड़ में नहीं आ पाया और ऎसे स्थान पर जा पहुँचा जहाँ का वातावरण बहुत ही शान्त था, वहाँ हिरण निर्भय होकर सभी ओर वृक्षों की छाया में बैठे रहते थे, बंदर भी अपने आप टूट कर गिरे हुए नारियल के फलों और पके हुए आमों से पूर्ण तृप्त रहते थे, वहाँ सिंह हाथी के बच्चों के साथ खेलते और साँप निडर होकर मोर के पंखो में घुस जाते थे।
राजा जहाँ शिकार खेलने गया था उस स्थान पर एक आश्रम के भीतर वत्स नामक मुनि रहते थे, जो जितेन्द्रिय और शान्त-भाव से निरन्तर गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ किया करते थे, आश्रम के पास ही वत्स मुनि के किसी शिष्यों ने अपने पैर धोये थे वह भी नित्य गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ किया करते थे, पैर धोने वाले जल से वहाँ की मिट्टी गीली हो गयी थी, खरगोश का जीवन कुछ शेष था, वह थककर उसी कीचड़ में गिर गया था।
उस कीचड़ के स्पर्श मात्र से ही खरगोश दिव्य विमान पर बैठकर स्वर्ग-लोक को चला गया फिर कुतिया भी उसका पीछा करती हुई आयी तो वहाँ उसके शरीर में भी कीचड़ के कुछ छींटे लग गये जिस के कारण कुतिया भी अपना रूप त्यागकर एक दिव्यांगना का मनोहर रूप धारण करके गन्धर्वों से सुशोभित दिव्य विमान पर सवार होकर वह भी स्वर्गलोक को चली गयी, यह देखकर मुनि के शिष्य हँसने लगे, उन दोनों के पूर्वजन्म के वैर का कारण सोचकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ था, उस समय राजा भी आश्चर्य से चकित हो उठा।
आश्चर्य-चकित होकर राजा ने पूछा:- 'विप्रवर ! नीच योनि में पड़े हुए दोनों कुतिया और खरगोश ज्ञानहीन होते हुए भी जो स्वर्ग में चले गये, इसका क्या कारण है? इसकी कथा सुनाइये।'
एक शिष्य ने कहाः- राजन! इस वन में वत्स नामक ब्राह्मण रहते थे, वे बड़े जितेन्द्रिय महात्मा थे, गीता के चौदहवें अध्याय का सदा जप किया करते हैं, मैं उन्हीं का शिष्य हूँ, मैंने भी ब्रह्म-विद्या में विशेषज्ञता प्राप्त की है, गुरुजी की ही भाँति मैं भी चौदहवें अध्याय का प्रतिदिन जप करता हूँ, मेरे पैर धोने के जल के स्पर्श होने के कारण खरगोश को कुतिया के साथ स्वर्ग-लोक की प्राप्ति हुई है, अब मैं अपने हँसने का कारण बताता हूँ।
महाराष्ट्र में प्रत्युदक नामक महान नगर है, वहाँ केशव नामक एक ब्राह्मण रहता था, जो के मनुष्यों में कपटी स्वभाव का था, उसकी पत्नी का नाम विलोभना था, विलोभना स्वछन्द विहार करने वाली स्त्री थी, एक दिन क्रोध में आकर जन्म भर की दुश्मनी को याद करके ब्राह्मण ने अपनी स्त्री का वध कर डाला और उसी पाप से उसको खरगोश की योनि में जन्म मिला था, ब्राह्मणी भी अपने पाप के कारण कुतिया योनि को प्राप्त हुई, हे राजन्! चौदहवें अध्याय के पाठ करने के कारण ही ऎसा संभव हो सका है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
श्रीमहादेवजी कहते हैं:– यह सारी कथा सुनकर श्रद्धालु राजा ने गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ आरम्भ कर दिया, जिससे उसे भी परम-गति की प्राप्ति हुई।

गीता के तेरह अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:– पार्वती ! अब तेरहवें अध्याय की महिमा का वर्णन सुनो, उसको सुनने से तुम बहुत प्रसन्न हो जाओगी, दक्षिण दिशा में तुंगभद्रा नाम की एक बहुत बड़ी नदी है, उसके किनारे हरिहरपुर नामक रमणीय नगर बसा हुआ है, वहाँ हरिहर नाम से साक्षात् भगवान शिवजी विराजमान हैं, जिनके दर्शनमात्र से परम कल्याण की प्राप्ति होती है।
हरिहरपुर में हरि दीक्षित नामक एक श्रोत्रिय ब्राह्मण रहते थे, जो तपस्या और स्वाध्याय में संलग्न तथा वेदों के परम-विद्वान थे, उनकी एक स्त्री थी, जिसे लोग दुराचार कहकर पुकारते थे, इस नाम के अनुसार ही उसके कर्म भी थे, वह सदा पति को अपशब्द कहती थी, उसने कभी भी उनके साथ शयन नहीं किया, पति से सम्बन्ध रखने वाले जितने लोग घर पर आते, उन सबको डाँट-फ़ट्कार के भगा देती थी और स्वयं व्यभिचारियों के साथ रमण किया करती थी।
एक दिन नगर को इधर-उधर आते-जाते हुए लोगों से भरा देख उसने निर्जन तथा दुर्गम वन में अपने लिए संकेत स्थान बना लिया, एक समय रात में किसी कामी को न पाकर वह घर के किवाड़ खोल नगर से बाहर संकेत-स्थान पर चली गयी, वह काम के वशीभूत होकर एक-एक कुंज में तथा प्रत्येक वृक्ष के नीचे जा-जाकर किसी प्रियतम की खोज करने लगी, किन्तु उन सभी स्थानों पर उसका परिश्रम व्यर्थ गया, उसे प्रियतम का दर्शन नहीं हुआ, तब उस वन में नाना प्रकार की बातें कहकर विलाप करने लगी।
चारों दिशाओं में घूम-घूमकर विलाप करती हुई उस स्त्री की आवाज सुनकर कोई सोया हुआ बाघ जाग उठा और उस स्थान पर पहुँचा, जहाँ वह रो रही थी, उधर वह भी उसे आते देख किसी प्रेमी आशंका से उसके सामने खड़ी होने के लिए ओट से बाहर निकल आयी, उस समय व्याघ्र ने आकर उसे नाखुनों के प्रहार से पृथ्वी पर गिरा दिया, इस अवस्था में भी वह कठोर वाणी में चिल्लाती हुई पूछ बैठी 'अरे बाघ! तू किसलिए मुझे मारना चाहता है? पहले इन सारी बातों को बता दे, फिर मुझे मारना।'
उसकी यह बात सुनकर व्याघ्र हँसता हुआ बोला 'दक्षिण देश में मलापहा नामक एक नदी है, उसके तट पर मुनिपर्णा नगरी बसी हुई है, वहाँ पँचलिंग नाम से प्रसिद्ध साक्षात् भगवान शंकर निवास करते हैं, उसी नगरी में मैं ब्राह्मण के रूप में रहता था, नदी के किनारे अकेला बैठा रहता और जो यज्ञ के अधिकारी नहीं हैं, उन लोगों से भी यज्ञ कराकर उनका अन्न खाया करता था, इतना ही नहीं, धन के लोभ से मैं सदा अपने वेदपाठ के फल को बेचा करता था।
मेरा लोभ यहाँ तक बढ़ गया था कि अन्य भिक्षुओं को गालियाँ देकर हटा देता और स्वयं दूसरो को नहीं देने योग्य धन भी बिना दिये ही हमेशा ले लिया करता था, ऋण लेने के बहाने मैं सब लोगों को छला करता था, समय व्यतीत होने पर मैं बूढ़ा हो गया, मेरे बाल सफेद हो गये, आँखों से सूझता न था और मुँह के सारे दाँत गिर गये, इतने पर भी मेरी दान लेने की आदत नहीं छूटी, पर्व आने पर दान के लोभ से मैं हाथ में कुश लिए तीर्थ के समीप चला जाया करता था।
तत्पश्चात् जब मेरे सारे अंग शिथिल हो गये, तब एक बार मैं कुछ धूर्त ब्राह्मणों के घर पर माँगने-खाने के लिए गया, उसी समय मेरे पैर में कुत्ते ने काट लिया, तब मैं मूर्च्छित होकर क्षणभर में पृथ्वी पर गिर पड़ा, मेरे प्राण निकल गये, उसके बाद मैं इसी व्याघ्र योनि में उत्पन्न हुआ, तब से इस दुर्गम वन में रहता हूँ तथा अपने पूर्व पापों को याद करके कभी धर्मिष्ठ महात्मा, यति, साधु पुरुष तथा सती स्त्रियों को नहीं खाता, पापी-दुराचारी तथा कुलटा स्त्रियों को ही मैं अपना भक्ष्य बनाता हूँ, अतः कुलटा होने के कारण तू अवश्य ही मेरा ग्रास बनेगी।'
यह कहकर वह अपने कठोर नखों से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर के खा गया, इसके बाद यमराज के दूत उस पापिनी को संयमनी पुरी में ले गये, यहाँ यमराज की आज्ञा से उन्होंने अनेकों बार उसे विष्ठा, मूत्र और रक्त से भरे हुए भयानक कुण्डों में गिराया, करोड़ों कल्पों तक उसमें रखने के बाद उसे वहाँ से ले जाकर सौ मन्वन्तरों तक रौरव नरक में रखा, फिर चारों ओर मुँह करके दीन भाव से रोती हुई उस पापिनी को वहाँ से खींचकर दहनानन नामक नरक में गिराया।
उस समय उसके केश खुले हुए थे और शरीर भयानक दिखाई देता था, इस प्रकार घोर नरक यातना भोग चुकने पर वह महा पापिनी इस लोक में आकर चाण्डाल योनि में उत्पन्न हुई, चाण्डाल के घर में भी प्रतिदिन बढ़ती हुई वह पूर्वजन्म के अभ्यास से पूर्ववत् पापों में प्रवृत्त रही फिर उसे कोढ़ और राजयक्ष्मा का रोग हो गया, नेत्रों में पीड़ा होने लगी फिर कुछ काल के पश्चात् वह पुनः अपने निवास स्थान हरिहरपुर को गयी, जहाँ भगवान शिव के अन्तःपुर की स्वामिनी जम्भका देवी विराजमान हैं, वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पवित्र ब्राह्मण का दर्शन किया, जो निरन्तर गीता के तेरहवें अध्याय का पाठ करता रहता था, उसके मुख से गीता का पाठ सुनते ही वह चाण्डाल शरीर से मुक्त हो गयी और दिव्य देह धारण करके स्वर्गलोक में चली गयी।

गीता के बारह अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:– पार्वती! दक्षिण दिशा में कोल्हापुर नामक एक नगर है, जो सब प्रकार के सुखों का आधार, सिद्ध-महात्माओं का निवास स्थान तथा सिद्धि प्राप्ति का क्षेत्र है, वह भगवती लक्ष्मी की प्रधान पीठ है, वह पोराणिक प्रसिद्ध तीर्थ भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है, वहाँ करोड़ो तीर्थ और शिवलिंग हैं, रुद्रगया भी वहाँ है, वह विशाल नगर लोगों में बहुत विख्यात है।
एक दिन कोई युवक पुरुष नगर में आया, वह कहीं का राजकुमार था, उसके शरीर का रंग गोरा, नेत्र सुन्दर, कंधे मोटे, छाती चौड़ी तथा भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं, नगर में प्रवेश करके सब ओर महलों की शोभा निहारता हुआ वह देवेश्वरी महालक्ष्मी के दर्शन करने की इच्छा से मणिकण्ठ तीर्थ में गया और वहाँ स्नान करके उसने पितरों का तर्पण किया, फिर महामाया महालक्ष्मी जी को प्रणाम करके भक्ति पूर्वक स्तुति करना आरम्भ किया।
राजकुमार बोलाः- जिसके हृदय में असीम दया भरी हुई है, जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करती है तथा अपने कटाक्ष मात्र से सारे जगत की रचना, पालन और संहार करती है, उस जगत की माता महालक्ष्मी की जय हो, जिस शक्ति के सहारे उसी के आदेश के अनुसार ब्रह्मा सृष्टि रचते हैं, भगवान विष्णु जगत का पालन करते हैं तथा भगवान शिव अखिल विश्व का संहार करते हैं, उस सृष्टि पालन और संहार की शक्ति से सम्पन्न भगवती का मैं भजन करता हूँ।
योगीजन तुम्हारे चरणकमलों का चिन्तन करते रहते हैं, तुम अपनी स्वाभाविक सत्ता से ही हमारे समस्त इन्द्रिय विषयों को जानती हो, तुम्हीं कल्पनाओं को तथा उसका संकल्प करने वाले मन को उत्पन्न करती हो, इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति ये सब तुम्हारे ही रूप हैं, तुम परमज्ञान रूपी हो तुम्हारा स्वरूप निष्काम, निर्मल, नित्य, निराकार, निरंजन, अनन्त, तथा निरामय है, तुम्हारी महिमा का वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है?
जो षट्चक्रों का भेदन करके अन्तःकरण के बारह स्थानों में विहार करती हैं, अनाहत, ध्वनि, बिन्दु, नाद और कला ये जिसके स्वरूप हैं, उस माता महालक्ष्मी को मैं प्रणाम करता हूँ, हे माता! तुम अपने मुख रूपी पूर्ण चन्द्रमा से प्रकट होने वाली अमृत की वर्षा करती हो, तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी नामक वाणी हो, मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ, तुम जगत की रक्षा के लिए अनेक रूप धारण किया करती हो,तुम्हीं ब्राह्मी, वैष्णवी, तथा माहेश्वरी शक्ति हो, वाराही, महालक्ष्मी, नरसिंही, कौमारी, चण्डिका, जगत को पवित्र करने वाली लक्ष्मी, सावित्री, चन्द्रकला तथा रोहिणी भी तुम्हीं हो, हे परमेश्वरी! तुम भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिए कल्पलता के समान हो, कृपा करके मुझ पर प्रसन्न हो।
इस प्रकार स्तुति करने पर भगवती महालक्ष्मी अपना साक्षात् स्वरूप धारण करके बोलीं - 'राजकुमार! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम कोई वरदान माँगो।'
राजपुत्र बोलाः- माँ! मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध नामक महान यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे, वे दैवयोग से रोगग्रस्त होकर स्वर्गवासी हो गये, इसी बीच में बँधे हुए मेरे यज्ञ सम्बन्धी घोड़े को, जो समूची पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटा था, किसी ने रात्रि में बँधन काट कर कहीं अन्यत्र पहुँचा दिया, उसकी खोज में मैंने कुछ लोगों को भेजा था, किन्तु वे कहीं भी उसका पता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये हैं, तब मैं गुरु की आज्ञा लेकर तुम्हारी शरण में आया हूँ, हे देवी! यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे यज्ञ का घोड़ा मुझे मिल जाये, जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके, तभी मैं अपने पिता का ऋण उतार सकूँगा, शरणागतों पर दया करने वाली जगजननी माता लक्ष्मी! जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके।
भगवती लक्ष्मी ने कहाः- राजकुमार! मेरे मन्दिर के दरवाजे पर एक ब्राह्मण रहते हैं, जो लोगों में सिद्धसमाधि के नाम से विख्यात हैं, वह मेरी आज्ञा से तुम्हारा सब काम पूरा कर देंगे, महालक्ष्मी के इस प्रकार कहने पर राजकुमार उस स्थान पर आया, जहाँ सिद्धसमाधि रहते थे, उनके चरणों में प्रणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।
तब ब्राह्मण ने कहाः- 'तुम्हें माता जी ने यहाँ भेजा है, अच्छा, देखो, अब मैं तुम्हारा सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करता हूँ,' इस प्रकार कहकर मन्त्र द्वारा ब्राह्मण ने सब देवताओं को पुकारा, राजकुमार ने देखा, उस समय सब देवता हाथ जोड़े थर-थर काँपते हुए वहाँ उपस्थित हो गये, तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मण ने समस्त देवताओं से कहा 'देवगण! इस राजकुमार का अश्व, जो यज्ञ के लिए निश्चित हो चुका था, रात में देवराज इन्द्र ने चुराकर अन्यत्र पहुँचा दिया है, उसे शीघ्र ले आओ।'
तब देवताओं ने ब्राह्मण के कहने से यज्ञ का घोड़ा लाकर दे दिया, इसके बाद उन्होंने उन्हे जाने की आज्ञा दी, देवताओं का आकर्षण देखकर तथा खोये हुए अश्व को पाकर राजकुमार ने ब्राह्मण के चरणों में प्रणाम करके कहाः 'महर्षि! आपका यह सामर्थ्य आश्चर्यजनक है, आप ही ऐसा कार्य कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं, हे ब्रह्मन्! मेरी प्रार्थना सुनिये, मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ करके दैवयोग से मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं, अभी तक उनका शरीर तपाये हुए तेल में सुखाकर मैंने रख छोड़ा है, आप उन्हें पुनः जीवित कर दीजिए।'
ब्राह्मण ने मुस्कराकर कहाः- 'चलो, वहाँ यज्ञ मण्डप में तुम्हारे पिता मौजूद हैं,' तब सिद्धसमाधि ने राजकुमार के साथ वहाँ जाकर जल अभिमन्त्रित किया और उसे शव के मस्तक पर रखा, उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे फिर उन्होंने ब्राह्मण को देखकर पूछाः 'धर्मस्वरूप! आप कौन हैं?' तब राजकुमार ने महाराज से पहले का सारा हाल कह सुनाया, राजा ने अपने को पुनः जीवनदान देने वाले ब्राह्मण को नमस्कार किया।
राजा ने पूछाः- '' हे ब्राह्मण! किस पुण्य से आपको यह अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई है?"
ब्राह्मण ने मधुर वाणी में कहाः- 'हे राजन! मैं प्रतिदिन आलस्यरहित होकर गीता के बारहवें अध्याय का जप करता हूँ, उसी से मुझे यह शक्ति मिली है, जिससे तुम्हें जीवन प्राप्त हुआ है,' यह सुनकर ब्राह्मणों सहित राजा ने उन महर्षि से उन से गीता के बारहवें अध्याय का अध्ययन किया, उसके माहात्म्य से उन सबकी सद्‍गति हो गयी।
श्री महादेवजी ने कहा:- हे प्रिय! इसी प्रकार अनेक जीव भी गीता के बाहरवें अध्याय का पाठ करके परम मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं।