Saturday 10 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४७)

एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥ ७२॥

हे पृथानन्दन ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता। इस स्थितिमें यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।
व्याख्या—
अहंतारहित होनेपर मनुष्य ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त हो जाता है । उसकी अपनी कोई स्वतन्त्र स्थिति नहीं रहती । इस ब्राह्मी स्थितिकी प्राप्ति एक बार और सदाके लिये होती है । कारणकि ब्रह्ममें हमारी स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है, पर अहंताके कारण इसका अनुभव नहीं होता । ‘मैं हूँ’ मिट जाय और ‘है’ रह जाय- यही ब्राह्मी स्थिति है । ‘है’ (सत्तामात्र) हमारा स्वरूप है । अतः ‘मैं’-पनको मिटाना नहीं है, प्रत्युत उसे अपनेमें स्वीकार नहीं करना है । जिसकी सत्ता विद्यमान ही नहीं है, उसे मिटानेका प्रयत्न करना उल्टे उसे सत्ता देना है ।
यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलने और बिछुड़नेवाली तथ उत्पन्न और नष्ट होनेवाली होती है, वह हमारी तथा हमारे लिये नहीं हो सकती । शरीर तो मिलने-बिछुड़नेवाल तथा उत्पन्न-नष्ट होनेवाल है, पर स्वयं मिलने-बिछुड़नेवाला तथा उत्पन्न-नष्ट होनेवाला नहीं है । अतः साधक दृढतापूर्वक इस सत्यको स्वीकार कर ले कि मैं (स्वयं) त्रिकालमें भी शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है तथा मेरे लिये भी नहीं है ।
‘निर्वाण’ शब्दके तो अर्थ होते हैं- लुप्त (खोया हुआ) और विश्राम (शान्त) । अतः खोये हुए ब्रह्मको पा लेना अथवा परम विश्रामको प्राप्त कर लेना ही निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति है । ‘निर्वाण’ शब्दका एक अर्थ शून्य भी होता है । शून्यका तात्पर्य है- जो न सत्‌ हो, न असत्‌ हो, न सदसत्‌हो और न सदसत्‌से भिन्न हो अर्थात्‌ जो अनिवर्चनीय तत्त्व हो- ‘अतस्तत्त्वं सदसदुभयानुभयात्मक चतुष्कोटि विनिर्मुक्तं शून्यमेव’ (सर्वदर्शनसंग्रह) ।
क्रियामात्रका सम्बन्ध संसारके साथ है । हमारा स्वरूप अक्रिय है । इसलिये शरीरके द्वारा हम अपने (स्वरूपके) लिये कुछ नहीं कर सकते । शरीरके द्वारा हम कोई भी क्रिया करेंगे तो वह संसारके ही होगी, अपने लिये नहीं ।
पूर्वपक्ष- तो फिर हम अपने लिये क्या कर सकते हैं ?
उत्तरपक्ष- हम अपने लिये अपने द्वारा निष्काम, निःस्पृह, निर्मम और निरहंकार हो सकते हैं । क्यों हो सकते हैं ? क्योंकि हम वास्तवमें स्वरूपसे निष्काम, निर्मम और निरहंकार हैं ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम
द्वितीयोऽध्याय:॥ २॥

Friday 9 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४६)

विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहङ्कार: स शान्तिमधिगच्छति॥ ७१॥

जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंतारहित होकर आचरण करता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।

व्याख्या—

जब मनुष्य कामना, स्पृहा, ममता और अहंतासे छूूट जाता है, तब उसे अपने भीतर नित्य-निरन्तर स्थित रहनेवाली शान्तिका अनुभव होता हो जाता है । मूलमें अहंता ही मुख्य है । सबका त्याग करनेपर भी अहंता शेष रह जाती है, पर अहंताका त्याग होनेपर सबका त्याग हो जाता है । अहंतासे राग, रागसे आसक्ति, आसक्तिसे ममता और ममतासे कामना तथा कामनासे फिर अनेक प्रकारके विकारोंकी उत्पत्ति होती है । साधकके लिये पहले ममताका त्याग करना सुगम पड़ता है । ममताका त्याग होनेपर कामना, स्पृहा और अहंताका त्याग करनेकी सामर्थ्य आ जाती है । वास्तवमें हम, स्पृहा और अहंतासे रहित हैं । यदि हम इनसे रहित न होते तो कभी इनका त्याग न कर पाते और भगवान्‌ भी इनके त्यागकी बात नहीं कहते । सुषुप्तिमें अहंता आदिके अभावका अनुभव सबको होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता ।

मूलमें कामना, स्पृहा, ममता और अहंताकी सत्ता है ही नहीं- ‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) । हमारा स्वरूप चिन्मय सत्ता मात्र है । चिन्मय सत्तामात्रमें कामना, स्पृहा, और अहंता होनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता । ये कामना आदि जड़में ही रहते हैं, चेतनतक पहुँचते ही नहीं । चिन्मय सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है । कामना, स्पृहा आदि निरन्तर नहीं रहते, प्रत्युत बदलते रहते हैं-यह सबका अनुभव है । प्रत्येक जन्ममें कामना, स्पृहा आदि अलग-अलग थे । इस जन्ममें भी बचपनमें कामना, स्पृहा आदि अलग थे, अब अलग हैं । हम इन्हें छोड़ते और पकड़ते रहते हैं । पहले खिलौनोंकी कामना थी फिर रुपयोंकी कामना हो गयी । पहले माँमें ममता थी, फिर पत्नीमें ममता हो गयी । इस प्रकार कामना, स्पृहा, ममता आदिका आना-जाना, उत्पत्ति-विनाश, संयोग-वियोग, आरम्भ-अन्त आदि होता रहता है, पर सत्तामात्र स्वरूपका आना-जान आदि होता ही नहीं । जो वस्तु है ही नहीं, उसे हमने पकड़ लिय अर्थात्‌ उसे सत्ता और महत्त दे दी- यही हमारी सबसे बड़ी भूल है । इस भूलको मिटानेकी जिम्मेदारी हमपर ही है, तभी भगवान्‌ इनका त्याग करनेकी बात कहते हैं, अन्य्था जो है ही नहीं, उसका त्याग स्वतःसिद्ध है । जो स्वतः-सिद्ध है, उसे ही प्राप्त करना है । नया निर्माण कुछ नहीं करना है । नया निर्माण ही हमारे बन्धनका, दुःखोंका कारण बनता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४५)

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं- समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ ७०॥

जैसे (सम्पूर्ण नदियोंका) जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है,
पर (समुद्र अपनी मर्यादामें) अचल स्थित रहता है,
 ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्यको (विकार उत्पन्न किये बिना ही) प्राप्त होते हैं,
वही मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंकी कामनावाला नहीं।

ॐ तत्सत् ! 

Thursday 8 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४४)


या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥ ६९॥

सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मा से विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रह में लगे रहते हैं),वह तत्त्वको जानने वाले मुनि की दृष्टि में रात है।

व्याख्या—

अब भगवान्‌ सांख्ययोगकी दृष्टिसे कहते हैं; क्योंकि परिणाममें कर्मयोग तथा सांख्ययोग एक ही हैं (गीता ५ । ४-५) । लोग जिस परमात्माकी तरफ से सोये हुए हैं, वह तत्त्वज्ञ महापुरुष और सच्चे साधकोंकी दृष्टिमें दिन के प्रकाश के समान है । सांसारिक लोगों का तो पारमार्थिक साधक के साथ विरोध होता है, पर पारमार्थिक साधक का सांसारिक लोगों के साथ विरोध नहीं होता- ‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥’ (मानस, उत्तर० ११२ ख) । सांसारिक लोगों ने तो केवल संसार को ही देखा है, पर पारमार्थिक साधक संसार को भी जानता है और परमात्मा को भी । संसार में रचे-पचे लोग सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति में ही अपनी उन्नति मानते हैं; परन्तु तत्त्वज्ञ महापुरुष और सच्चे साधकों की दृष्टिमें वह रातके अन्धकार की तरह है, उसका किंचिन्मात्र भी महत्त्व नहीं है ।

ॐ तत्सत् !

Monday 5 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४३)


नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम्॥ ६६॥
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥ ६७॥
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ६८॥

जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्यकी व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती और (व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे) उस अयुक्त मनुष्यमें निष्कामभाव अथवा कर्तव्यपरायणताका भाव नहीं होता। निष्कामभाव न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है?
कारण कि (अपने-अपने विषयों में) विचरती हुई इन्द्रियों में से (एक ही इन्द्रिय) जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह (अकेला मन) जल में नौका को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है।
इसलिये हे महाबाहो! जिस मनुष्यकी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे सर्वथा वशमें की हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।

व्याख्या—

कर्मयोगमें निष्कामभावकी मुख्यता है । निष्कामभावके लिये मन और इन्द्रियोंका संयम तथा एक निश्चेयवाली बुद्धिका होना आवश्यक है । अशान्तिका मूल कारण कामना है । जबतक मनुष्यके भीतर किसी प्रकारकी कामना है, तबतक उसे शान्ति नहीं मिल सकती । कामनायुक्त चित्त सदा अशान्त ही रहता है ।

जब तक साधक की बुद्धि एक उद्देश्य में दृढ़ नहीं होती, तबतक सम्पूर्ण इन्द्रियोंका तो कहना ही क्या है, एक ही इन्द्रिय मन को हर लेती है और मन बुद्धि को हरकर उसे भोगों में लगा देता है ।

ॐ तत्सत् !