Friday 30 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१६)

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥ २२॥
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥ २३॥
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥ २४॥

हे पार्थ! मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्यकर्ममें ही लगा रहता हूँ।
क्योंकि हे पार्थ! अगर मैं किसी समय सावधान होकर कर्तव्य-कर्म न करूँ (तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि) मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं वर्णसंकरता को करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ।

व्याख्या—

भगवान्‌ भी अवतारकाल में सदा कर्तव्य-कर्ममें लगे रहते हैं, इसलिये जो साधक फलेच्छा व आसक्ति-रहित होकर सदा कर्तव्य-कर्म में लगा रहता है, वह सुगमतापूर्वक भगवान को प्राप्त हो जाता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१५)

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ २१॥

श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य उसीके अनुसार आचरण करते हैं।

व्याख्या—

समाजमें जिस मनुष्यको लोग श्रेष्ट मानते हैं, उसपर विशेष जिम्मेदारी रहती है कि वह ऐसा कोई आचरण न करे तथा ऐसी कोई बात न कहे, जो लोक-मर्यादा तथा शास्त्र-मर्यादाके विरुद्ध हो ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१४)

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष:॥ १९॥
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमहर्सि॥ २०॥

इसलिये तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्मका भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्ति-रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।
राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म (कर्म-योग)-के द्वारा ही परम-सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिये लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू (निष्काम-भावसे) कर्म करने के ही योग्य है अर्थात् अवश्य करना चाहिये ।

व्याख्या—

मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत आसक्तिसे बँधता है । आसक्ति ही मनुष्यका पतन करती है, कर्म नहीं । आसक्ति रहित होकर दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त होकर परमात्त्व-तत्त्वको प्राप्त हो जाता है । कर्ममें परिश्रम और कर्म-योगमें विश्राम है । शरीरकी आवश्यकता परिश्रममें है, विश्राममें नहीं । कर्मयोगमें शरीरसे होनेवाला परिश्रम (कर्म) दूसरोंकी सेवाके लिये और विश्राम (योग) अपने लिये है ।

जनकादि राजाओंने भी कर्मयोगके द्वारा ही मुक्ति प्राप्त की थी । इससे सिद्ध होता है कि कर्मयोग मुक्तिका स्वतन्त्र साधन है ।

ॐ तत्सत् !

Tuesday 27 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१३)

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥ १८॥

उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुष)-का इस संसारमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ) इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता।

व्याख्या—

जैसे ‘करना’ प्रकृति के सम्बन्ध से है, ऐसे ‘न करना’ भी प्रकृति के सम्बन्ध से है । करना और न करना-दोनों सापेक्ष है, परन्तु तत्त्व निरपेक्ष है । इसलिये स्वयं (चिन्मय सत्तामात्र)- का न तो करनेके साथ सम्बन्ध है, न नहीं करनेके साथ सम्बन्ध है । करना, न करना तथा पदार्थ-ये सब उसी सत्तामात्रसे प्रकाशित होते हैं (गीता १३ । ३३) ।

कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें करनेका राग तथा पानेकी इच्छा सर्वथा नहीं रहती, इसलिये उसका न तो कुछ करनेसे मतलब रहता है, न कुछ नहीं करनेसे मतलब रहता है और न उसका किसी भी प्राणी-पदार्थसे कुछ पानेसे ही मतलब रहता है । तात्पर्य है कि उसका प्रकृति-विभागसे सर्वथा सम्बन्ध नहीं रहता ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१२)

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥ १७॥
परन्तु जो मनुष्य अपने-आप में ही रमण करनेवाला और अपने-आप में ही तृप्त तथा अपने-आप में ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।
व्याख्या—
जबतक परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं हो जाती, तभी तक मनुष्यपर कर्तव्य-पालनकी जिम्मेदारी रहती है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर महापुरुष के लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । उसके संसारमें रहनेमात्रसे संसारका हित होता है ।
ॐ तत्सत् !

Friday 23 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.११)

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥ १६॥

हे पार्थ ! जो मनुष्य इस लोक में इस प्रकार (परम्परासे) प्रचलित सृष्टि-चक्र के अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है।

व्याख्या—

जो मनुष्य लोक-मर्यादा तथा शास्त्र-मर्यादाके अनुसार अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसे संसारमें जीनेका अधिकार नहीं है । कारण कि मनुष्योंके द्वारा अपने कर्तव्य्का पालन न करनेसे संसार मात्रको हानि पहूँचती है । वर्तमानमें जो अन्न, जल, वायु आदि प्रदूषित हो रहे हैं, अकाल, अनावृष्टि आदि प्राकृतिक आपदाएँ आ रही हैं, उसमें मनुष्य का कर्तव्य-च्युत होना ही प्रधान कारण है ।
अपने लिये कर्म करना अनधिकृत चेष्टा है । कारण कि जो कुछ मिला है, वह सब संसार की सामग्री है । शरीरादि सब पदार्थ संसारके ही हैं, अपने नहीं । अतः हम पर संसार का ऋण है; जिसे उतारने के लिये हमें सब कर्म संसार के हित के लिये ही करने हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१०)

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥ १४॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥ १५॥

सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं। अन्नकी उत्पत्ति वर्षासे होती है। वर्षा यज्ञसे होती है। यज्ञ कर्मोंसे सम्पन्न होता है। कर्मोंको तू वेदसे उत्पन्न जान और वेदको अक्षर ब्रह्मसे प्रकट हुआ जान । इसलिये वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य-कर्म)-में नित्य स्थित है।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०९)

यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥ १३॥

यज्ञशेष (योग)- का अनुभव करनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं । परन्तु जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापीलोग तो पाप का ही भक्षण करते हैं ।

व्याख्या—

सम्पूर्ण पापोंका कारण है-कामना । अतः कामनापूर्वक अपने लिये कोई भी कर्म करना पाप (बन्धन) है और निष्कामभावसे दूसरोंके लिये कर्म करना पुण्य है । पापका फल दुःख और पुण्यका फल सुख है । इसलिये स्वार्थभावसे अपने लिये कर्म करनेवाले दुःख पाते हैं और निःस्वार्थभावसे दूसरोंके लिये कर्म करनेवाले सुख पाते हैं ।

ॐ तत्सत् !

Thursday 22 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०८)

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स:॥ १२॥
यज्ञसे पुष्ट हुए देवता भी तुमलोगों को (बिना माँगे ही) कर्तव्यपालन की आवश्यक सामग्री देते रहेंगे । इस प्रकार उन देवताओंकी दी हुई सामग्रीको दूसरोंकी सेवामें लगाये बिना जो मनुष्य (स्वयं ही उसका) उपभोग करता है,वह चोर ही है ।
व्याख्या—
शरीर पाञ्चभौतिक सृष्टिमात्र का एक क्षूद्रतम अंश है । अतः स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण-तीनों शरीर संसार के तथा तथा संसार के लिये ही हैं । शरीर स्वयं (स्वरूप)-के किंचिन्मात्र भी काम नहीं आता, प्रत्युत शरीर का सदुपयोग ही स्वयं के काम आता है । शरीर का सदुपयोग है- उसे दूसरों की सेवामें लगाना-संसारकी सेवामें समर्पित कर देना । जो मनुष्य मिली हुई सामग्री का भाग दूसरों (अभावग्रस्तों)-को दिये बिना अकेले ही उसका उपभोग करता है, वो चोर ही है । उसे दण्ड मिलना चाहिये, जो चोर को मिलता है |
ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०७)

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥ १०॥
देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥ ११॥
प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें कर्तव्य-कर्मोंके विधानसहित प्रजा (मनुष्य आदि)-की रचना करके (उनसे, प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा सबकी वृद्धि करो और यह (कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ) तुमलोगोंको कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो। इस (अपने कर्तव्य-कर्म)-के द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग (अपने कर्तव्यके द्वारा) तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।
व्याख्या—
अपने कर्तव्य का पालन करने से अर्थात्‌ दूसरों के लिये निष्कामभाव से कर्म करने से अपना तथा प्राणी मात्र का हित होता है । परन्तु अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे अपना तथा प्राणी मात्रका अहित होता है । कारण कि शरीरों की दृष्टि से तथा आत्मा की दृष्टिसे भी मात्र प्राणी एक हैं, अलग-अलग नहीं ।
मनुष्यशरीर केवल कल्याण-प्राप्तिके लिये ही मिला है । अतः अपना कल्याण करनेके लिये कोई नया काम करना आवश्यक नहीं है, प्रत्युत जो काम करते हैं, उसे ही फलेच्छा और आसक्ति का त्याग करके दूसरोंके हितके लिये करनेसे हमारा कल्याण हो जायगा ।
ॐ तत्सत् !

Saturday 17 December 2016

गीता प्रबोधनी- तीसरा अध्याय (पोस्ट.०६)


नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण:॥ ८॥
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर॥ ९॥

तू शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्तव्य-कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
यज्ञ (कर्तव्य-पालन)-के लिये किये जानेवाले कर्मोंसे अन्यत्र (अपने लिये किये जानेवाले) कर्मोंमें लगा हुआ यह मनुष्य-समुदाय कर्मोंसे बँधता है; इसलिये हे कुन्तीनन्दन! तू आसक्तिरहित होकर उस यज्ञके लिये ही कर्तव्य-कर्म कर।

व्याख्या—

जो कर्म दूसरोंके लिये नहीं किये जाते, प्रत्युत अपने लिये किये जाते हैं, उन कर्मोंसे मनुष्य बँध जाता है । अतः साधकको ये तीन बातें स्वीकार कर लेनी चाहिये- (१) शरीरसहित कुछ भी मेरा नहीं है, (२) मुझे कुछ भी नहीं चाहिये, और (३) मुझे अपने लिये कुछ भी नहीं करना है । पहली बात स्वीकार करनेसे दूसरी बात सुगम हो जायगी और दूसरी बात स्वीकार करनेसे तीसरी बात सुगम हो जायगी ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०५)

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते॥ ७॥
परन्तु हे अर्जुन ! जो मनुष्य मन से इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके आसक्तिरहित होकर (निष्कामभावसे) कर्मेन्द्रियों (समस्त इन्द्रियों)-के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
व्याख्या—
फलेच्छा और आसक्ति का त्याग करके दूसरों के लिये कर्म करने वाला कर्मयोगी ज्ञानयोग से भी श्रेष्ट है । आगे पाँचवें अध्याय में भी भगवान्‌ कर्मयोग को ज्ञानयोग से श्रेष्ट बतायेंगे (गीता ५। २) ।
ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०४)

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते॥ ६॥
जो कर्मेन्द्रियों (सम्पूर्ण इन्द्रियों)- को हठपूर्वक रोककर मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए बैठता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है।
व्याख्या—
दूसरे अध्यायमें भगवान्‌ कह चुके हैं कि विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यका पतन हो जाता है (गीता २ । ६२-६३) । यहाँ लोगोंको दिखानेके लिये बाहरसे स्थिर होकर बैठनेवाले तथा मनसे विषयोंका चिन्तन करने वाले मनुष्यको मिथ्याचारी कहा गया है ।
वास्तवमें (भोगबुद्धिसे) बाहर से भोग भोगने और मन से उनका चिन्तन करने में कोई अन्तर नहीं है । दोनों का अन्तःकरण पर समान प्रभाव पड़ता है । एक दृष्टि से मन से भोगों का चिन्तन करने से साधक का विशेष पतन होता है; क्योंकि जिन भोगों की प्राप्ति नहीं होती या जिन भोगों को वह लोक-मर्यादासे भोग नहीं पाता अथवा जिन भोगों को भोगने में वह असमर्थ होता है, उनको भी वह मन से भोग सकता है ।
ॐ तत्सत् !

Thursday 15 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०३)


न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥ ५॥

कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति के परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं ।

व्याख्या—

प्रकृति का विभाग अलग है और स्वरूप का विभाग अलग है । क्रियामात्र प्रकृति-विभाग में है । स्वरूप अक्रिय है । प्रकृति में श्रम है और स्वरूपमें विश्राम है । अतः जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता ।

ॐ तत्सत् !

Wednesday 14 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०२)

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥ ४॥

मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताका अनुभव करता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है।

व्याख्या—

जबतक साधकमें क्रियाका वेग रहता है, तबतक साधकके लिये निष्कामभाव पूर्वक केवल दूसरोंके लिये कर्म करने आवश्यक हैं । दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे क्रियाका वेग शान्त हो जाता है और सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात्‌ बाँधनेवाले नहीं रहते । केवल कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेपर क्रियाका वेग शान्त नहीं होता । क्रियाका वेग शान्त हुए बिना प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता । प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हुए बिना सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती ।

ॐ तत्सत् !

Monday 12 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०१)

अर्जुन उवाच

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ १॥
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥ २॥

श्रीभगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥ ३॥

अर्जुन बोले—हे जनार्दन! अगर आप कर्मसे बुद्धि (ज्ञान)-को श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर हे केशव ! मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? आप अपने मिले हुए-से वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं। अत: आप निश्चय करके उस एक बात को कहिये, जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ।

श्रीभगवान् बोले—हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्यलोक में दो प्रकार से होनेवाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें ज्ञानियों की निष्ठा ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है।

व्याख्या—

कर्मयोग और ज्ञानयोग-दोनों लौकिक निष्ठाएं होनेसे समकक्ष हैं और दोनोंका एक ही फल है (गीता ५ । ४-५) । यद्यपि कर्मायोगमें क्रियाकी और सांख्ययोगमें विवेककी मुख्यता है, तथापि फलमें दोनों एक हैं ।
पूर्वपक्ष- यहाँ भक्तियोग-निष्ठाकी बात नहीं कहीगयी है, इससे सिद्ध हुआ कि कर्मयोग और ज्ञानयोग-ये दोनों ही साधन मान्य हैं ?
उत्तरपक्ष- ऐसा नहीं है । कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनोंकी अपनी निष्टाएँ हैं, पर भक्तियोग साधककी अपनी निष्टा न होकर भगवन्निष्टा है । भक्तियोगमें साधक भगवान्‌पर निर्भर रहता है ।
कर्मयोग और भक्तियोग-दोनों लौकिक निष्टाएँ हैं । कर्मयोगमें जगत्‌की और ज्ञानयोगमें जीवकी मुख्यता है । जगत्‌ और जीव दोनों लौकिक हैं-‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च’ (गीता १५ । १६); क्योंकि जगत्‌ (जड़) और जीव (चेतन)- ये दोनों विभाग हमारे जाननेमें आते हैं, पर भगवान जाननेमें नहीं आते । भगवान्‌ माननेके विषय हैं, जाननेके नहीं । परन्तु भक्तियोग अलौकिक निष्टा है ; क्योंकि इसमें भगवान्‌की मुख्यता है, जो जगत्‌ और जीव दोनोंसे उत्तम हैं- ‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः’ (गीता १५ । १७) ।

ॐ तत्सत् !

Saturday 10 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४७)

एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥ ७२॥

हे पृथानन्दन ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता। इस स्थितिमें यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।
व्याख्या—
अहंतारहित होनेपर मनुष्य ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त हो जाता है । उसकी अपनी कोई स्वतन्त्र स्थिति नहीं रहती । इस ब्राह्मी स्थितिकी प्राप्ति एक बार और सदाके लिये होती है । कारणकि ब्रह्ममें हमारी स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है, पर अहंताके कारण इसका अनुभव नहीं होता । ‘मैं हूँ’ मिट जाय और ‘है’ रह जाय- यही ब्राह्मी स्थिति है । ‘है’ (सत्तामात्र) हमारा स्वरूप है । अतः ‘मैं’-पनको मिटाना नहीं है, प्रत्युत उसे अपनेमें स्वीकार नहीं करना है । जिसकी सत्ता विद्यमान ही नहीं है, उसे मिटानेका प्रयत्न करना उल्टे उसे सत्ता देना है ।
यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलने और बिछुड़नेवाली तथ उत्पन्न और नष्ट होनेवाली होती है, वह हमारी तथा हमारे लिये नहीं हो सकती । शरीर तो मिलने-बिछुड़नेवाल तथा उत्पन्न-नष्ट होनेवाल है, पर स्वयं मिलने-बिछुड़नेवाला तथा उत्पन्न-नष्ट होनेवाला नहीं है । अतः साधक दृढतापूर्वक इस सत्यको स्वीकार कर ले कि मैं (स्वयं) त्रिकालमें भी शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है तथा मेरे लिये भी नहीं है ।
‘निर्वाण’ शब्दके तो अर्थ होते हैं- लुप्त (खोया हुआ) और विश्राम (शान्त) । अतः खोये हुए ब्रह्मको पा लेना अथवा परम विश्रामको प्राप्त कर लेना ही निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति है । ‘निर्वाण’ शब्दका एक अर्थ शून्य भी होता है । शून्यका तात्पर्य है- जो न सत्‌ हो, न असत्‌ हो, न सदसत्‌हो और न सदसत्‌से भिन्न हो अर्थात्‌ जो अनिवर्चनीय तत्त्व हो- ‘अतस्तत्त्वं सदसदुभयानुभयात्मक चतुष्कोटि विनिर्मुक्तं शून्यमेव’ (सर्वदर्शनसंग्रह) ।
क्रियामात्रका सम्बन्ध संसारके साथ है । हमारा स्वरूप अक्रिय है । इसलिये शरीरके द्वारा हम अपने (स्वरूपके) लिये कुछ नहीं कर सकते । शरीरके द्वारा हम कोई भी क्रिया करेंगे तो वह संसारके ही होगी, अपने लिये नहीं ।
पूर्वपक्ष- तो फिर हम अपने लिये क्या कर सकते हैं ?
उत्तरपक्ष- हम अपने लिये अपने द्वारा निष्काम, निःस्पृह, निर्मम और निरहंकार हो सकते हैं । क्यों हो सकते हैं ? क्योंकि हम वास्तवमें स्वरूपसे निष्काम, निर्मम और निरहंकार हैं ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम
द्वितीयोऽध्याय:॥ २॥

Friday 9 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४६)

विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहङ्कार: स शान्तिमधिगच्छति॥ ७१॥

जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंतारहित होकर आचरण करता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।

व्याख्या—

जब मनुष्य कामना, स्पृहा, ममता और अहंतासे छूूट जाता है, तब उसे अपने भीतर नित्य-निरन्तर स्थित रहनेवाली शान्तिका अनुभव होता हो जाता है । मूलमें अहंता ही मुख्य है । सबका त्याग करनेपर भी अहंता शेष रह जाती है, पर अहंताका त्याग होनेपर सबका त्याग हो जाता है । अहंतासे राग, रागसे आसक्ति, आसक्तिसे ममता और ममतासे कामना तथा कामनासे फिर अनेक प्रकारके विकारोंकी उत्पत्ति होती है । साधकके लिये पहले ममताका त्याग करना सुगम पड़ता है । ममताका त्याग होनेपर कामना, स्पृहा और अहंताका त्याग करनेकी सामर्थ्य आ जाती है । वास्तवमें हम, स्पृहा और अहंतासे रहित हैं । यदि हम इनसे रहित न होते तो कभी इनका त्याग न कर पाते और भगवान्‌ भी इनके त्यागकी बात नहीं कहते । सुषुप्तिमें अहंता आदिके अभावका अनुभव सबको होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता ।

मूलमें कामना, स्पृहा, ममता और अहंताकी सत्ता है ही नहीं- ‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) । हमारा स्वरूप चिन्मय सत्ता मात्र है । चिन्मय सत्तामात्रमें कामना, स्पृहा, और अहंता होनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता । ये कामना आदि जड़में ही रहते हैं, चेतनतक पहुँचते ही नहीं । चिन्मय सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है । कामना, स्पृहा आदि निरन्तर नहीं रहते, प्रत्युत बदलते रहते हैं-यह सबका अनुभव है । प्रत्येक जन्ममें कामना, स्पृहा आदि अलग-अलग थे । इस जन्ममें भी बचपनमें कामना, स्पृहा आदि अलग थे, अब अलग हैं । हम इन्हें छोड़ते और पकड़ते रहते हैं । पहले खिलौनोंकी कामना थी फिर रुपयोंकी कामना हो गयी । पहले माँमें ममता थी, फिर पत्नीमें ममता हो गयी । इस प्रकार कामना, स्पृहा, ममता आदिका आना-जाना, उत्पत्ति-विनाश, संयोग-वियोग, आरम्भ-अन्त आदि होता रहता है, पर सत्तामात्र स्वरूपका आना-जान आदि होता ही नहीं । जो वस्तु है ही नहीं, उसे हमने पकड़ लिय अर्थात्‌ उसे सत्ता और महत्त दे दी- यही हमारी सबसे बड़ी भूल है । इस भूलको मिटानेकी जिम्मेदारी हमपर ही है, तभी भगवान्‌ इनका त्याग करनेकी बात कहते हैं, अन्य्था जो है ही नहीं, उसका त्याग स्वतःसिद्ध है । जो स्वतः-सिद्ध है, उसे ही प्राप्त करना है । नया निर्माण कुछ नहीं करना है । नया निर्माण ही हमारे बन्धनका, दुःखोंका कारण बनता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४५)

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं- समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ ७०॥

जैसे (सम्पूर्ण नदियोंका) जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है,
पर (समुद्र अपनी मर्यादामें) अचल स्थित रहता है,
 ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्यको (विकार उत्पन्न किये बिना ही) प्राप्त होते हैं,
वही मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंकी कामनावाला नहीं।

ॐ तत्सत् ! 

Thursday 8 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४४)


या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥ ६९॥

सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मा से विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रह में लगे रहते हैं),वह तत्त्वको जानने वाले मुनि की दृष्टि में रात है।

व्याख्या—

अब भगवान्‌ सांख्ययोगकी दृष्टिसे कहते हैं; क्योंकि परिणाममें कर्मयोग तथा सांख्ययोग एक ही हैं (गीता ५ । ४-५) । लोग जिस परमात्माकी तरफ से सोये हुए हैं, वह तत्त्वज्ञ महापुरुष और सच्चे साधकोंकी दृष्टिमें दिन के प्रकाश के समान है । सांसारिक लोगों का तो पारमार्थिक साधक के साथ विरोध होता है, पर पारमार्थिक साधक का सांसारिक लोगों के साथ विरोध नहीं होता- ‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥’ (मानस, उत्तर० ११२ ख) । सांसारिक लोगों ने तो केवल संसार को ही देखा है, पर पारमार्थिक साधक संसार को भी जानता है और परमात्मा को भी । संसार में रचे-पचे लोग सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति में ही अपनी उन्नति मानते हैं; परन्तु तत्त्वज्ञ महापुरुष और सच्चे साधकों की दृष्टिमें वह रातके अन्धकार की तरह है, उसका किंचिन्मात्र भी महत्त्व नहीं है ।

ॐ तत्सत् !

Monday 5 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४३)


नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम्॥ ६६॥
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥ ६७॥
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ६८॥

जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्यकी व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती और (व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे) उस अयुक्त मनुष्यमें निष्कामभाव अथवा कर्तव्यपरायणताका भाव नहीं होता। निष्कामभाव न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है?
कारण कि (अपने-अपने विषयों में) विचरती हुई इन्द्रियों में से (एक ही इन्द्रिय) जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह (अकेला मन) जल में नौका को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है।
इसलिये हे महाबाहो! जिस मनुष्यकी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे सर्वथा वशमें की हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।

व्याख्या—

कर्मयोगमें निष्कामभावकी मुख्यता है । निष्कामभावके लिये मन और इन्द्रियोंका संयम तथा एक निश्चेयवाली बुद्धिका होना आवश्यक है । अशान्तिका मूल कारण कामना है । जबतक मनुष्यके भीतर किसी प्रकारकी कामना है, तबतक उसे शान्ति नहीं मिल सकती । कामनायुक्त चित्त सदा अशान्त ही रहता है ।

जब तक साधक की बुद्धि एक उद्देश्य में दृढ़ नहीं होती, तबतक सम्पूर्ण इन्द्रियोंका तो कहना ही क्या है, एक ही इन्द्रिय मन को हर लेती है और मन बुद्धि को हरकर उसे भोगों में लगा देता है ।

ॐ तत्सत् !

Saturday 3 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४२)

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैॢवधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥ ६४॥
प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते॥ ६५॥

परन्तु वशीभूत अन्त:करणवाला (कर्मयोगी साधक) राग-द्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ (अन्त:करणकी) निर्मलताको प्राप्त हो जाता है। (अन्त:करणकी) निर्मलता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दु:खोंका नाश हो जाता है और ऐसे शुद्ध चित्तवाले साधककी बुद्धि नि:सन्देह बहुत जल्दी (परमात्मामें) स्थिर हो जाती है।

व्याख्या—

यदि विषयोंमें रागबुद्धि न हो तो शास्त्रविहित भोगोंका सेवन करते हुए भी पतन नहीं होता, प्रत्युत उत्थान ही होता है ।

ॐ तत्सत् !

Friday 2 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४१)

ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते॥ ६२॥
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ ६३॥

विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे (बाधा लगनेपर) क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धि (विवेक)-का नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।

व्याख्या—

विषयभोगों को भोगना तो दूर रहा, उनका रागपूर्वक चिन्तन करनेमात्र से साधक पतन की ओर चला जाता है; कारण कि भोगों का चिन्तन भी भोग भोगने से कम नहीं है ।

ॐ तत्सत् !

Sunday 27 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४०)

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ६१॥

कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके मेरे परायण होकर बैठे;क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।

व्याख्या—

साधनकी पूर्णताके लिये भगवान्‌की परायणता आवश्यक है । भगवान्‌के परायण होनेसे इन्द्रियाँ सुगमतापूर्वक वशमें हो जाती हैं । अपने पुरुषार्थसे इन्द्रियोंको सर्वथा वशमें करना कठिन है । इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें होनेसे ही बुद्धि स्थिर होती है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३९)


विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥ ५९॥
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:॥ ६०॥

निराहारी (इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेवाले) मनुष्य-के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता। परन्तु परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे इस स्थितप्रज्ञ मनुष्यका रस भी निवृत्त हो जाता है अर्थात् उसकी संसारमें रसबुद्धि नहीं रहती।
कारण कि हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहनेसे) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं।

व्याख्या—

भोगोंके प्रति सूक्ष्म आसक्तिका नाम ‘रस’ है । यह रस साधककी अहंतामें रहता है । जबतक यह रस रहता है, तबतक परमात्माका अलौकिक रस (प्रेम) प्रकट नहीं होता । इस रसबुद्धिके कारणही भोगोंकी पराधीनता रहती है । साधकके द्वारा भोगोंका त्याग करनेपर भी रसबुद्धि बनी रहती है, जिसके कारण भोगोंके त्यागका बड़ा महत्त्व दीखता है और अभिमान भी होता है कि मैंने भोगोंका त्याग कर दिया है ।
यद्यपि यह रस तत्त्वप्राप्तिके पहले भी नष्ट हो सकता है, तथापि तत्त्वप्राप्तिके बाद यह सर्वथा नष्ट हो ही जाता है ।
बुद्धिमान्‌ साधकको अपनी इन्द्रियोंपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये । कारण कि जबतक अहंतामें रसबुद्धि पड़ी है, तबतक साधकका पतन होनेकी सम्भावना रहती है ।

ॐ तत्सत् !

Friday 25 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३८)

दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ ५६॥
य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ५७॥
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ५८॥

दु:खोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है।

सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ-अशुभको प्राप्त करके न तो प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।

जिस तरह कछुआ अपने अंगोंको सब ओरसे समेट लेता है, ऐसे ही जिस कालमें यह (कर्मयोगी) इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।

व्याख्या—

स्वयं नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है और शरीर नित्य-निरन्तर बदलता रहता है; अतः दोनोंके स्वभावमें कोई अन्तर नहीं पड़ता । परन्तु जब स्वयं शरीरके साथ मैं-मेरेका सम्बन्ध मान लेता है तब बुद्धिमें (शरीर-संसारका असर पड़नेसे) अन्तर पड़ने लगता है । मैं-मेरापन मिटनेसे बुद्धिमें जो अन्तर पड़ता था, वह मिट जाता है और बुद्धि स्थिर हॊ जाती है । बुद्धि स्थिर होनेसे स्वयं अपने-आपमें ही स्थिर हो जाता है ।

ॐ तत्सत् !

Thursday 24 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३७)

अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥ ५४॥

श्रीभगवानुवाच

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥ ५५॥

अर्जुन बोले—

हे केशव ! परमात्मा में स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यके क्या लक्षण होते हैं? वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है अर्थात् व्यवहार करता है?

श्रीभगवान् बोले—

हे पृथानन्दन! जिस कालमें साधक मनमें आयी सम्पूर्ण कामनाओंका भलीभाँति त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थिरबुद्धि कहा जाता है।

व्याख्या—

मनकी स्थिरताकी अपेक्षा बुद्धिकी स्थिरता श्रेष्ट है; क्योंकि मनकी स्थिरतासे तो लौकिक सिद्धियां प्रकट होती हैं, पर बुद्धिकी स्थिरतासे कल्याण हो जाता है । मनकी स्थिरता है- वृत्तियोंका निरोध और बुद्धिकी स्थिरता है-उद्देश्यकी दृढता ।
त्याग उसीका होता है जो वास्तवमें सदासे ही त्यक्त है । कामना स्वयंगत न होकर मनोगत है । परन्तु मनके साथ तादात्म्य होनेके कारण कामना स्वयंमें दीखने लगती है । जब साधकको स्वयंमें सम्पूर्ण कामनाओंके अभावका अनुभव हो जाता है, तब उसकी बुद्धि स्वतः स्थिर हो जाती है ।

ॐ तत्सत् !

Wednesday 23 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३६)


श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥ ५३॥

जिस कालमें शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मा में अचल हो जायगी, उस काल में तू योगको प्राप्त हो जायगा।

व्याख्या—

पूर्वश्लोकमें सांसारिक मोहके त्यागकी बात कहकर भगवान्‌ प्रस्तुत श्लोकमें शास्त्रीय मोह अर्थात्‌ सीखे हुए (अनुभवहीन) ज्ञानके त्यागकी बात कहते हैं । ये दोनों ही प्रकारके मोह साधकके लिये बाधक हैं । शास्त्रीय मोहके कारण साधक द्वैत, अद्वैत, आदि मतभेदोमें उलझकर खण्ड न-मण्डनमें लग जाता है । केवल अपने कल्याणका ही दृढ़ उद्देश्य होने पर साधक सुगमतापूर्वक इस (दोनों प्रकारके) मोहसे तर जाता है ।

ॐ तत्सत् !

Tuesday 22 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३५)

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ ५२॥

जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको भलीभाँति तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा।

व्याख्या—

मिलने और बिछुड़नेवाले पदार्थों और व्याक्तियोंको अपना तथा अपने लिये मानना मोह है । इस मोहरूपी दलदलसे निकलनेपर साधकको संसारसे वैराग्य हो जाता है । संसारसे वैराग्य होने पर अर्थात्‌ रागका नाश होनेपर योग की प्राप्ति हो जाती है ।

ॐ तत्सत् !

Monday 21 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३४)

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्॥ ५०॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्॥ ५१॥

बुद्धि (समता)-से युक्त मनुष्य यहाँ (जीवित अवस्थामें ही) पुण्य और पाप—दोनोंका त्याग कर देता है। अत: तू योग (समता)-में लग जा; क्योंकि कर्मोंमें योग ही कुशलता है।
कारण कि समतायुक्त बुद्धिमान् साधक कर्मजन्य फलका अर्थात् संसारमात्र का त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं।

व्याख्या—

समता में स्थित मनुष्य जल में कमल की भाँति संसार में रहते हुए भी पाप-पुण्य दोनों से नहीं बँधता अर्थात्‌ मुक्त हो जाता है । यही जीवन्मुक्ति है ।
पूर्वश्लोक में आया है कि योग की अपेक्षा कर्म दूरसे ही निकृष्ट हैं, इसलिये मनुष्य को समता में स्थित होकर कर्म करने चाहिये अर्थात्‌ कर्मयोग का आचरण करना चाहिये । महत्त्व योग (समता)- का है, कर्मों का नहीं । कल्याण करने की शक्ति योग (कर्मयोग)- में है, कर्मों में नहीं ।
[ बुद्धि, योग और बुद्धियोग-ये तीनों ही शब्द गीतामें ‘कर्मयोग’ के लिये आये हैं । ]
समता में स्थित होकर कर्म करनेवाले अर्थात्‌ कर्मयोगी साधक जन्म-मरण से रहित होकर परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाते हैं । अतः कर्मयोग मुक्ति का स्वतन्त्र साधन है ।

ॐ तत्सत् !

Saturday 19 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३३)


दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव:॥ ४९॥

बुद्धियोग (समता)-की अपेक्षा सकामकर्म दूरसे (अत्यन्त) ही निकृष्ट हैं। अत: हे धनंजय ! तू बुद्धि (समता)-का आश्रय ले; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं ।

व्याख्या—

योगकी अपेक्षा कर्म दूरसे ही निकृष्ट हैं, उनकी परस्पर तुलना नहीं हो सकती । योग नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला (अविनाशी) है और कर्म आदि-अन्तवाला (नाशवान्‌) है, फिर उनकी तुलना हो ही कैसे सकती है ? इसलिये कर्मोंका आश्रय न लेकर योगका ही आश्रय लेना चाहिये । योगकी प्राप्ति कर्मॊंके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत कर्म तथा कर्मफलके साथ सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर होती है । कर्मोंका आश्रय जन्म-मरण देनेवाला और योगका आश्रय मुक्त करनेवाला है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३२)


योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥ ४८॥

हे धनंजय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।

व्याख्या—

एक वस्तु या व्यक्तिमें राग होगा तो दूसरी वस्तु या व्यक्तिमें द्वेष होना स्वाभाविक है । राग-द्वेषके न रहते हुए कर्मकी सिद्धि-असिद्धिमें समताका आना असम्भव है । राग-द्वेषके न रहनेपर जो समता आती है, उस समतामें स्थित रहकर कर्तव्य-कर्मोंको करना चाहिये । समता को ही ‘योग’ कहा जाता है । कर्म तो करणसापेक्ष होते हैं, पर योग करणनिरपेक्ष है । इस समतारूपी योगमें स्थित साधक कभी विचलित (योगभ्रष्ट) नहीं होता ।

ॐ तत्सत् !

Friday 18 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३१)

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ ४७॥

कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं। अत: तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो।

व्याख्या—

एक कर्म-विभाग (करना) है और एक फल-विभाग (होना) है । ‘करना’ मनुष्यके अधीन है और ‘होना’ प्रारब्ध अथवा परमात्माके अधीन है । प्रारब्धसे अथवा परमात्माके विधानसे मनुष्यको जो कुछ मिला है, उसे अपने भोगमें न लगाकर दूसरोंकी सेवामें लगाना मनुष्यका कर्तव्य है ।

ॐ तत्सत् !

Thursday 17 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३०)

यावानर्थ उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत:॥ ४६॥

सब तरफसे परिपूर्ण महान् जलाशयके प्राप्त होनेपर छोटे गड्ढोंमें भरे जलमें मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता, (वेदों और शास्त्रोंको) तत्त्वसे जाननेवाले ब्रह्मज्ञानीका सम्पूर्ण वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता।

व्याख्या—

इस श्लोकमें ऐसे महापुरुषका वर्णन हुआ है, जिसे परमविश्रामकी प्राप्ति हो गयी है । परमविश्रामकी प्राप्ति होनेपर फिर किसी क्रिया तथा पदार्थकी आवश्यकता नहीं रहती । वह पूर्णताको प्राप्त हो जाता है । ऐसे महापुरुषको ‘ब्राह्मण’ कहनेका तात्पर्य है कि जिसने पूर्णताको प्राप्त कर लिया है, वही वास्तविक ‘ब्राह्मण’ है ।

ॐ तत्सत् !

Wednesday 16 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२९)


त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥ ४५॥

वेद तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं; हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंसे रहित हो जा, राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित हो जा, निरन्तर नित्यवस्तु परमात्मामें स्थित हो जा, योगक्षेमकी चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा।

व्याख्या—

भगवान्‌ अर्जुनको आज्ञा देते हैं कि वेदोंके जिस अंशमें सकामभावका वर्णन है, उसका त्याग करके तू निष्कामभावको ग्रहण कर । मिलने और बिछुड़नेवाले संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके तू नित्यरहनेवाली चिन्मय सत्तामें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव कर । योग (अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तुकी रक्षा)- की कामनाका भी त्याग कर दे; क्योंकि कामनामात्र बन्धनकारक है ।

पहले बयालीसवें श्लोकमें भगवान्‌ने बताया कि जो मनुष्य ‘वेदवादरताः’ (वेदोक्त सकाम कर्मोंमें रुचि रखनेवाले) होते हैं, उनकी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं होती, कारणकि व्यवसायात्मिका बुद्धिके लिये निष्काम होना आवश्यक है । वेद तीनों गुणोंके कार्यका वर्णन करनेवाले हैं, इसलिये भगवान्‌ अर्जुन्‌को तीनोंके गुणोंसे रहित होनेकी आज्ञा देते हैं- ‘निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन’ ।

वेदोक्त सकाम अनुष्ठानोंको करनेवाले मनुष्योंको योगक्षेमकी प्राप्ति नहीं होती और वे संसार-चक्रमें पड़े रहते हैं- ‘एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते’ (गीता ९ । २१) । संसार-चक्रमें पड़नेका कारण वेद नहीं हैं, प्रत्युत कामना है ।

भगवत्परायण साधक को भोग व संग्रह की कामना तो दूर रही, योगक्षेम की भी कामना नहीं करनी चाहिये । इसलिये भगवान्‌ अर्जुनसे कहते हैं कि तू मेरे परायण होकर योगक्षेम की भी कामना का त्याग कर दे अर्थात्‌ सांसारिक अथवा पारमार्थिक कोई भी कामना न रखकर सर्वथा निष्काम हो जा ।

भगवान्‌ के समान दयालु कोई नहीं है । वे कहते हैं कि भक्तों का योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्‌’ (गीता ९ । २२) मैं उनके साधन की सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओं को भी दूर कर देता हूँ--‘मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि’ (१८ । ५८) और उनका उद्धार भी कर देता हूँ- तेषामहं समुद्धर्ता०’ (१२ । ७) अतः भगवान्‌ के भजन में लगे हुए साधक को अपने साधन तथा उद्धार के विषय में कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिये ।

ॐ तत्सत् !

Tuesday 15 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२८)

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।
वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:॥ ४२॥
कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥ ४३॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते॥ ४४॥

हे पृथानन्दन ! जो कामनाओं में तन्मय हो रहे हैं, स्वर्ग को ही श्रेष्ठ माननेवाले हैं, वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों में प्रीति रखनेवाले हैं, (भोगोंके सिवाय) और कुछ है ही नहीं—ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकारकी जिस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणीको कहा करते हैं, जो कि जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है तथा भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुत-सी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है।
उस पुष्पित वाणीसे जिसका अन्त:करण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है, और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती।

व्याख्या—

भोग और ऐश्वर्य (संग्रह)-की आसक्ति कल्याणमें मुख्य बाधक है । सांसारिक भोगोंको भोगने तथा रुपयों आदिका संग्रह करनेवाला मनुष्य अपने कल्याणका निश्चाय भी नहीं कर सकता, फिर कल्याण करना तो दूर रहा ! इसलिये भगवान्‌ निष्कामभाव (योग)- का अन्वय-व्यतिरेक से वर्णन करते हैं ।

ॐ तत्सत् !

Monday 14 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२७)


व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥ ४१॥

हे कुरुनन्दन ! इस (समबुद्धिकी प्राप्ति)-के विषयमें निश्चयवाली बुद्धि एक ही होती है। जिनका एक निश्चय नहीं है, ऐसे मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त और बहुत शाखाओंवाली ही होती हैं।

व्याख्या—

समता की प्राप्ति उसी को होती है, जिसका उद्देश्य एक होता है । अनेक उद्देश्य कामना के कारण होते हैं ।

ॐ तत्सत् !

Sunday 13 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२६)


एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥ ३९॥
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥ ४०॥

हे पार्थ ! यह समबुद्धि तेरे लिये (पहले) सांख्य-योगमें कही गयी और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन; जिस समबुद्धि से युक्त हुआ तू कर्म-बन्धन का त्याग कर देगा।

मनुष्यलोक में इस समबुद्धिरूप धर्म के आरम्भ का नाश नहीं होता तथा (इसके अनुष्ठान का) उलटा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान (जन्म-मरणरूप) महान् भयसे रक्षा कर लेता है।

व्याख्या—

भगवान्‌ ने इकतीसवें से सैंतीसवें श्लोक तक कर्तव्य विज्ञान (धर्मशास्त्र) अर्थात्‌ ‘कर्म’ का वर्णन किया, अब इस उन्तालीसवें श्लोक से तिरपनवें श्लोकतक योग-विज्ञान (मोक्षशास्त्र) अर्थात्‌ ‘कर्मयोग’ का वर्णन करते हैं ।

भगवान्‌ ने चार प्रकार से समताकी महिमा कही है- (१) समतासे मनुष्य कर्म-बन्धनसे छूट जाता है, (२) समताके आरम्भ अर्थात्‌ उद्देश्यका भी कभी नाश नहीं होता, (३) समताके अनुष्ठानमें यदि कोई भूल हो जाय तो उसक उल्टा फल नहीं होता, और (४) समता का थोड़ा-सा भी भाव हो जाय तो वह कल्याण कर देता है । जीवनमें थोड़ी भी समता आ जाय तो उसका नाश नहीं होता । भय कितना ही महान्‌ हो, उसका नाश हो जाता है ।

असत्‌को सत्ता तथा महत्ता देनेसे महान्‌ समता भी स्वल्प हो जाती है और स्वल्प भय भी महान्‌ हो जाता है । यदि हम असत्‌को सत्ता तथा महत्ता न दें तो समता महान्‌ और भय स्वल्प (नष्ट) हो जाता है ।

ॐ तत्सत् !

Friday 11 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२५)

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥ ३७॥
सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ ३८॥

अगर (युद्धमें) तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी प्राप्ति होगी और अगर (युद्धमें) तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा। अत: हे कुन्तीनन्दन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:खको समान करके फिर युद्धमें लग जा। इस प्रकार (युद्ध करनेसे) तू पापको प्राप्त नहीं होगा।

व्याख्या—

भगवान्‌ व्यवहार में परमार्थ की कला बताते हैं- सिद्धि-असिद्धिमें सम (तठस्थ) रहकर निष्कामभाव से अपने कर्तव्य कर्मका पालन करना । ऐसा करनेसे मनुष्य युद्ध-जैसा घोर कर्म करते हुए भी अपना कल्याण कर सकता है । इससे सिद्ध हुआ कि मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में अपना कल्याण करनेमें समर्थ तथा स्वतन्त्र है ।

ॐ तत्सत् !

Wednesday 9 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२४)

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥ ३२॥
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
तत: स्वधर्मं कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥ ३३॥
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
तत: स्वधर्मं कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥ ३३॥
अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥ ३४॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥ ३५॥
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता:।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दु:खतरं नु किम्॥ ३६॥

अपने-आप प्राप्त हुआ युद्ध खुला हुआ स्वर्ग का दरवाजा भी है। हे पृथानन्दन ! वे क्षत्रिय बड़े सुखी (भाग्यशाली) हैं, जिनको ऐसा युद्ध प्राप्त होता है। अब अगर तू यह धर्ममय युद्ध नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति का त्याग करके पापको प्राप्त होगा । और सब प्राणी भी तेरी सदा रहनेवाली अपकीर्ति का कथन अर्थात् निन्दा करेंगे । वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्यके लिये मृत्युसे भी बढ़कर दु:खदायी होती है। तथा महारथी लोग तुझे भयके कारण युद्धसे हटा हुआ मानेंगे। जिनकी धारणा में तू बहुमान्य हो चुका है, (उनकी दृष्टिमें) तू लघुता को प्राप्त हो जायगा। तेरे शत्रुलोग तेरी सामर्थ्य की निन्दा करते हुए बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे । उससे बढ़कर और दु:खकी बात क्या होगी ?

ॐ तत्सत् !

Tuesday 8 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२३)

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमहर्सि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥ ३१॥

और अपने क्षात्रधर्म को देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात् कर्तव्य-कर्म से विचलित नहीं होना चाहिये; क्योंकि धर्ममय युद्धसे बढ़कर क्षत्रिय के लिये दूसरा कोई कल्याणकारक कर्म नहीं है।

व्याख्या—
यदि साधककी रुचि, विश्वास और योग्यता ज्ञानयोगकी नहीं है तो उसे कर्मयोगका पालन करना चाहिये । कारणकि ज्ञानयोग और कर्मयोग-दोनोंका फल एक ही है (गीता ५ । ४-५) । तात्पर्य है कि शरीर-शरीरीके विवेकको महत्त्व देनेसे जो तत्त्व मिलता है, वही तत्त्व शरीर द्वारा स्वधर्म (कर्तव्य-कर्म)- का पालन करनेसे भी मिल सकता है । अतः भगवान्‌ कर्तव्य-कर्म (क्षात्रधर्म)-के पालनका प्रकरण आरम्भ करते हैं ।

ॐ तत्सत् !

Monday 7 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२२)

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमहर्सि॥ ३०॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! सब के देहमें यह देही नित्य ही अवध्य है। इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अर्थात् किसी भी प्राणी के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।

व्याख्या—

प्राणीमात्र परमात्माका अंश है-‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५।७) ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर ० ११७।१) । परमात्माका अंश होनेके नाते कभी नाश हुआ ही नहीं, कभी नाश होगा ही नहीं, कभी नाश हो सकता ही नहीं । अविनाशित्व, ज्ञान और आनन्द शरीरि के गुण नहीं हैं, प्रत्युत स्वरूप हैं ।

शरीर केवल कर्म करनेका तथा उसका फल भोगनेका उपकरण है । अतः शरीरका सम्बन्ध नाशवान संसारके साथ है; क्योंकि यह संसारका ही अंश है ।

व्याकरणकी दृष्टिसे देखें तो मतुप्‌, इनि आदि प्रत्यय छः अर्थों में प्रयुक्त होते हैं ।

भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने ।
संसर्गेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः ॥

‘अस्तिविवक्षामें जो मतुप्‌ आदि प्रत्यय होते हैं, वे सब बहुत्व, निंदा, प्रशंसा, नित्ययोग, अतिशय और संसर्ग-इन छः विषयोंमें ही होते हैं ।’
यहाँ जीवात्माके लिये ‘निन्दा’ अर्थमें ‘इनि’ प्रत्यय किया गया है, जिससे ‘देही’, ‘शरीरी’ आदि शब्द बनते हैं । कारण कि जिस चिन्मय एवं अविनाशी सत्ता (आत्मा)-का जड़ एवं नाशवान्‌ शरीर या देहीसे किंचिन्मात्र भी कोई सम्बन्ध है ही नहीं, उसे शरीरी या देही कहना वास्तवमें उसकी निन्दा ही है । उदाहरणार्थ, जिस मनुष्यको कोढ़ है, उसे कोढ़ी कहना वास्तवमें उसकी निन्दा है; क्योंकि कोढ़ उसका स्वरूप नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक दोष है । इसी तरह शरीर उत्पन्न और नष्ट होनेवाला है- ‘अन्तवन्त इमे देहाः’ (गीता २ । १८), पर आत्मा उत्पन्न और नष्ट होनेवाला नहीं है- ‘देही नित्यमवध्यो$यम्‌’ (गीता २। ३० ), ‘न हन्यमाने शरीरे’ (गीता २। २० ) । जब शरीर ही नहीं रहेगा तो फिर शरीरी कैसे रहेगा ? कोढ़ीको तो कोढ़ खराब दीखता है, पर जीवको अज्ञानवश शरीर खराब न दीखकर उल्टे बढ़िया दीखता है । तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्‌ने कृपापूर्वक अज्ञानी मनुष्योंको समझानेके लिये ही जीवात्मा (चेतन-तत्त्व)-को शरीरी और देही कहा है । वास्तव में जीवात्म शरीरी अथवा देही नहीं है ।

ॐ तत्सत् !

Sunday 6 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२१)


आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: शृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥ २९॥

कोई इस शरीरी को आश्चर्य की तरह देखता (अनुभव करता) है और वैसे ही दूसरा कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्य की तरह सुनता है और इसको सुनकर भी कोई नहीं जानता अर्थात् यह दुर्विज्ञेय है।

व्याख्या—

यह शरीरी इतना विलक्षण है कि इसका अनुभव भी आश्चर्यजनक होता है, वर्णन भी आश्चर्यजनक होता है और इसका वर्णन सुनना भी आश्चर्यजनक होता है । परन्तु शरीरी का अनुभव सुननेमात्र से अर्थात्‌ अभ्यास से नहीं होता, प्रत्युत स्वीकार करने से होता है । इसका उपाय है- चुप होना, शान्त होना, कुछ न करना ।

ॐ तत्सत् !

Friday 4 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२०)


अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥ २८॥

हे भारत ! सभी प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे, केवल बीचमें ही प्रकट दीखते हैं। अत: इसमें शोक करनेकी बात ही क्या है?

व्याख्या—

शरीरी स्वयं अविनाशी है, शरीर विनाशी है । स्थूलदृष्टि से केवल शरीरों को ही देखें तो वे जन्म से पहले भी हमारे साथ नहीं थे और मरने के बाद भी वे हमारे साथ नहीं रहेंगे । वर्तमान में वे हमारे साथ मिल हुए-से दीखते हैं, पर वास्तवमें हमारा उनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । इस तरह मिले हुए और बिछुड़ने वाले प्राणियों के लिये शोक करने से क्या लाभ ?

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१९)

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमहर्सि॥ २६॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमहर्सि॥ २७॥

हे महाबाहो ! अगर तुम इस देही को नित्य पैदा होने वाला अथवा नित्य मरनेवाला भी मानो, तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये । कारण कि पैदा हुए की जरूर मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा। अत: (इस जन्म-मरणरूप परिवर्तन के प्रवाह का) निवारण नहीं हो सकता। अत: इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।

व्याख्या—

जो मिला है और बिछुड़ने वाला है, उस पर किसी का स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता । कारण कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु अपनी और अपने लिये नहीं होती, प्रत्युत संसार की और संसार के लिये ही होती है । उसका उपयोग केवल संसार की सेवा के लिये ही हो सकता है, अपने लिये नहीं ।

ॐ तत्सत् !

Wednesday 2 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१८)


अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमहर्सि॥ २५॥

यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तनका विषय नहीं है और यह निर्विकार कहा जाता है। अत: इस देहीको ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये।

व्याख्या—

साधकका स्वरूप अव्यक्त है; परन्तु शरीर रूपसे वह अपनेको व्यक्त मानता है-यह साधककी मूल भूल है । इस भूलका प्रायश्चित्त करनेके लिये तीन बातें हैं-(१) साधक अपनी भूलको स्वीकार करे कि अपनेको शरीर मानकर मैंने भूल की, (२) साधक अपनी भूलका पश्चात्ताप करे कि साधक होकर मैने ऐसी भूल की और (३) साधक यह निश्चय करे कि अब आगे मैं कभी ऐसी भूल नहीं करूँगा ।

शरीरी (सत्‌-तत्त्व)- का अनुभव तो किया जा सकता है, पर वर्णन नहीं किया जा सकता । उसका जो भी वर्णन या चिन्तन किया जाता है, वह वास्तवमें प्रकृतिका ही होता है । एक बार शरीरीका अनुभव होनेपर फिर मनुष्य सदाके लिये शोकरहित होजाता है ।

ॐ तत्सत् !

Tuesday 1 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१७)

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥ २४॥

यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है।

व्याख्या—

जड़ वस्तु शरीरी में कोई भी विकार उत्पन्न नहीं कर सकती; क्योंकि शरीरी स्वतः-स्वाभाविक निर्विकार है । निर्विकारता इसका स्वरूप है ।
शरीरी सर्वगत है, शरीरगत नहीं । जो चौरासी लाख योनियों से होकर आया, वह शरीरगत कैसे हो सकता है ? जो सर्वगत है, वह शरीरगत (एकदेशीय) नहीं हो सकता और जो शरीरगत है, वह सर्वगत नहीं हो सकता ।

ॐ तत्सत् !

Saturday 29 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१६)


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥ २३॥

शस्त्र इस शरीरी को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती।

व्याख्या—

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार-यह अपरा प्रकृति (जड़-विभाग) है और स्वरूप परा प्रकृति (चेतन-विभाग) है (गीता ७।४-५) । अपरा प्रकृति परा प्रकृति तक पहुँच ही नहीं सकती । जड़ पदार्थ चेतन-तत्त्व तक कैसे पहुँच सकता है ? इसलिये जड़ वस्तु चेतनमें शरीरी में किन्चिन्मात्र कोई विकार उत्पन्न नहीं कर सकती ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१५)

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ २२॥

मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है।

व्याख्या—

जैसे कपड़े बदलनेसे मनुष्य बदल नहीं जाता, ऐसे ही अनेक शरीरोंको धारण करने और छोड़नेपर भी शरीरी वही-का-वही रहता है, बदलता नहीं । तात्पर्य है कि शरीरके परिवर्तन तथा नाशसे स्वयंका परिवर्तन तथा नाश नहीं होता । यह सबका अनुभव है कि हम रहते हैं, बचपन आता और चला जाता है । हम रहते हैं, जवानी आती और चली जाती है । हम रहते हैं, बुढ़ापा आता और चला जाता है । वास्तवमें न बचपन है, न जवानी है, न बुढ़ापा है, न मृत्यु है, प्रत्युत केवल हमारी सत्ता ही है ।

ॐ तत्सत् !

Friday 28 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१४)

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥ २१॥

हे पृथानन्दन ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये ?

व्याख्या—

शरीर की किसी भी क्रिया से शरीरी में किंचिन्मात्र भी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता । अतः शरीरी किसी भी क्रिया का न तो कर्ता (तथा भोक्ता) बनता है, न कारयिता ही बनता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१३)

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ २०॥

यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और अनादि है। शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।

व्याख्या—

उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना-ये छः विकार शरीरमें ही होते हैं । शरीरीमें ये विकार कभी हुए ही नहीं, कभी होंगे नहीं, कभी हो सकते ही नहीं ।

शरीरी कभी उत्पन्न नहीं होता-‘न जायते’, ‘अजः’; उत्पन्न होकर विकारी सत्तावाला नहीं होता-‘अयं भूत्वा भविता वा न भूय:’; यह बदलता नहीं- ‘शाश्वतः’; यह बढ़ता नहीं-‘पुराणः’, यह क्षीण नहीं होता-‘नित्यः’; और यह मरता नहीं-‘न म्रियते’, न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ ।

मुख्य विकार दो ही हैं-उत्पन्न होना और नष्ट होना । अतः प्रस्तुत श्लोकमें इस दोनों विकारोंका दो-दो बार निषेध किया गया है; जैसे-‘न जायते म्रियते’ और ‘अजः’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ ।

ॐ तत्सत् !

Wednesday 26 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१२)

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥ १९॥

जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है।

व्याख्या—

शरीरीमें कर्तापन नहीं है और मृत्युरूप विकार भी नहीं है । कर्तापन आदि सभी विकार प्रकृतिसे मानेहुए सम्बन्ध (मैं-पन)- में ही हैं ।

ॐ तत्सत् !

Tuesday 25 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.११)


अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥ १८॥

अविनाशी, जाननेमें न आनेवाले और नित्य रहनेवाले इस शरीरीके ये देह अन्तवाले कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन ! तुम युद्ध करो ।
व्याख्या—
पूर्वश्लोकमें शरीरीको अविनाशी बताकर अब भगवान्‌ यह कहते हैं कि मात्र शरीर नाशवान्‌ हैं, मरनेवाले हैं । तात्पर्य है कि मिला हुआ तथा बिछुड़नेवाला शरीर हमारा स्वरूप नहीं है । शरीर तो केवल कर्म-सामग्री, जिसका उपयोग केवल दूसरोंकी सेवा करनेमें ही है । अपने लिये उसका किंचिन्मात्र भी उपयोग नहीं है । अतः शरीरके नाशसे अपनी कोई हानि नहीं होती ।
ॐ तत्सत् !

Monday 24 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१०)

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमहर्ति॥ १७॥

अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश कोई भी नहीं कर सकता।

व्याख्या—

जिस सत्‌-तत्त्वका अभाव विद्यमान नहीं है, वही अविनाशी तत्त्व है, जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है । अविनाशी होने के कारण तथा सम्पूर्ण जगत्‌में व्याप्त होनेके कारण उसका कभी कोई नाश कर सकता ही नहीं । नाश उसीका होता है, जो नाशवान्‌ तथा एक देशमें स्थित हो ।

ॐ तत्सत् !

Sunday 23 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.०९)

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥ १६॥

असत् का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है। तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इन दोनों का ही तत्त्व देखा अर्थात् अनुभव किया है।

व्याख्या—

दो विभाग हैं- चेतन-विभाग (‘है’) और जड़-विभाग (नहीं) । परमात्मा तथा सम्पूर्ण जीव चेतन-विभागमें है और संसार-शरीर जड़-विभागमें हैं । जड़ और चेतन – दोनों का स्वभाव परस्पर विरुद्ध है । यह नियम है कि परस्परविरुद्ध विश्वास एक साथ नहीं रह सकते । इसलिये ‘है’ पर विश्वास होते ही ‘नहीं’ का विश्वास निर्जीव हो जाता है और ‘नहीं’ से विश्वास उठते ही ‘है’ का विश्वास सजीव हो जाता है । सच्चा साधक एक ‘है’ (सत्‌-तत्त्व) के सिवाय अन्य (असत्‌) की सत्ता स्वीकार ही नहीं करता । अन्यकी सत्ता स्वीकार न करने पर साधकमें स्वतः ‘है’ की स्मृति जाग्रत्‌ हो जाती है । ‘है’ की स्मृतिसे साधककी साध्यके साथ अभिन्नता हो जाती है ।

कोई मनुष्य ‘नहीं’ को कितनी ही दृढतासे स्वीकार करे, उसकी निवृत्ति होती ही है, प्राप्ति होती ही नहीं । परन्तु ‘है’ को कितना ही अस्वीकार करे, उसकी प्राप्ति होती ही है । उसकी विस्मृति तो हो सकती है, पर निवृत्ति होती ही नहीं । अतः एक सत्तामात्र ‘है’ के सिवाय कुछ नहीं है- यह सार बात है, जिसका महापुरुषों ने अनुभव किया है ।

संसारमें अभाव ही मुख्य है । इसके भावमें भी अभाव है, अभावमें भी अभाव है । परन्तु परमात्मामें भाव ही मुख्य है । उनके अभावमें में भी भाव है, भावमें भी भाव है । संसार दीखे या न दीखे, मिले या न मिले, उसका ‘वियोग’ ही मुख्य है । परमात्मा दीखें या न दीखें, मिलें या न मिलें, उनका ‘योग’ ही मुख्य है। संसारका नित्यवियोग है । परमात्माका नित्ययोग है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.०८)


यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥ १५॥

कारण कि हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दु:खमें सम रहनेवाले जिस बुद्धिमान् मनुष्य को ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) विचलित (सुखी-दु:खी) नहीं करते, वह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।

व्याख्या—

मिले हुए और बिछुडनेवाले शरीरको मैं, मेरा तथा मेरे लिये मानना मनुष्यकी मूल भूल है । यह भूल स्वतः-स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत मनुष्यके द्वारा रची हुई (कृत्रिम) है । अपने विवेकको महत्त्व न देनेसे ही यह भूल उत्पन्न होती है । इस एक भूलसे फिर अनेक तरहकी भूलें उत्पन्न होती हैं । इसलिये इस भूलको मिटाना बहुत आवश्यक है और इसको मिटानेकी जिम्मेवारी मनुष्य पर ही है । इसको मिटानेके लिये भगवान्‌ने मनुष्यको विवेक प्रदान किया है । जब साधक अपने विवेकको महत्त्व देकर इस भूलको मिटा देता है, तब वह निर्मम-निरहंकार हो जाता है । निर्मम-निरहंकार होते ही साधकमे समता आजाती है ।

ॐ तत्सत् !

Saturday 22 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.०७)

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥ १४॥

हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियोंके विषय (जड़ पदार्थ) तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता)-के द्वारा सुख और दु:ख देनेवाले हैं तथा आने-जानेवाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो।

व्याख्या—

संसारकी समस्त परिस्थितियाँ आने-जानेवाली, मिलने-बिछुड़नेवाली हैं । मनुष्य यह चाहता है कि सुखदायी परिस्थितिबनी रहे और दुःखदायी परिस्थिति न आये । परन्तु सुखदायी परिस्थिति जाती ही है और दःखदायी परिस्थिति आती ही है- यह प्राकृतिक नियम है अथवा प्रभुका मंगलमय विधान है । अतः साधकको प्रत्येक परिस्थिति प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करनी चाहिये । निरन्तर परिवर्तनशील वस्तुओंमें स्थिरता देखना भूल है । इस भूलसे ही ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है । देखनेमें वस्तु मुख्य दीखती है, क्रिया गौण । पर वास्तवमें क्रिया-ही-क्रिया है, वस्तु है ही नहीं ।

ॐ तत्सत् !

Thursday 20 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.०६)

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:।
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम्॥ १२॥
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥ १३॥
किसी काल में मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजा लोग नहीं थे, यह बात भी नहीं है; और इसके बाद (भविष्य में मैं, तू और राजालोग) हम सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है। देहधारी के इस मनुष्यशरीर में जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।
व्याख्या—
मनुष्यमात्र को ‘मैं हूँ’- इस रूप में अपनी एक सत्ता का अनुभव होता है । इस सत्ता में अहम्‌ (‘मैं’) मिला हुआ होनेसे ही ‘हूँ’ के रूपमें अपनी अलग एकदेशीय सत्ता अनुभवमें आती है । यदि अहम्‌ न रहे तो ‘है’ के रूपमें एक सर्वदेशीय सत्ता ही अनुभवमें आयेगी । वह सर्वदेशीय सत्ता ही प्राणीमात्रका वास्तविक स्वरूप है । उस सत्तामें जड़ताका मिश्रण नहीं है अर्थात्‌ उसमें मैं, तु, यह और वह- ये चारों ही नहीं हैं । सार बात यह है कि एक चिन्मय सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं है ।
जीव स्वयं तो निरन्तर अमरत्त्वमें ही रहता है, पर शरीर निरन्तर मृत्युमें जा रहा है । जीवके गर्भ में आते ही मृत्यु का यह क्रम आरम्भ हो जाता है । गर्भावस्था मरती है तो बाल्यावस्था आती है । बाल्यावस्था मरती है तो युवावस्था आती है । युवावस्था मरती है तो वृद्धावस्था आती है । वृद्धावस्था मरती है तो देहान्तर-अवस्था आती है अर्थात्‌ दूसरे जन्म की प्राप्ति होती है । इस प्रकार शरीर की अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उसमें रहनेवाला शरीरी ज्यों-का-त्यों रहता है । कारण यह है कि शरीर और शरीरी- दोनोंके विभाग ही अलग-अलग हैं । अतः साधक अपनेको कभी शरीर न माने । बन्धन-मुक्ति स्वयं की होती है, शरीर की नहीं ।
ॐ तत्सत् !

Wednesday 19 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.०५)


तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच:॥ १०॥
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:॥ ११॥

हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र ! दोनों सेनाओं के मध्य भाग में विषाद करते हुए उस अर्जुन के प्रति हँसते हुए-से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।
श्रीभगवान् बोले—
तुमने शोक न करनेयोग्य का शोक किया है और विद्वत्ता (पण्डिताई)-की बातें कह रहे हो; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पण्डितलोग शोक नहीं करते।
व्याख्या—
इस श्लोक से भगवान् शरीर और शरीरी (स्वयं) के विवेक का उपदेश आरम्भ करते हैं, जो प्रत्येक मार्ग के साधक के लिए अत्यंत आवश्यक है | शरीर सदा मृत्यु में रहता है और शरीरी सदा अमरत्व में रहता है, इसलिए दोनों के लिए ही शोक करने का कोई औचित्य नहीं है—यह इस सम्पूर्ण उपदेश का सार है |
यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने की है कि भगवान् ने इस प्रकरण में चिन्मय सत्तारूप अपने अंश (आत्मा) को ही सामान्य लोगों को समझाने की दृष्टि से ‘शरीरी’ तथा ‘देही’ नामों से कहा है | वास्तव में शरीरी का शरीरसे सम्बन्ध है ही नहीं, हो सकता ही नहीं, असम्भव है |
ॐ तत्सत् !

Tuesday 18 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.०४)

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं- राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥ ८॥

(अर्जुन कहते हैं कि) पृथ्वीपर धन-धान्यसमृद्ध और शत्रुरहित राज्य तथा (स्वर्गमें) देवताओंका आधिपत्य मिल जाय तो भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा जो शोक है, वह दूर हो जाय—ऐसा मैं नहीं देखता हूँ।
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥ ९ ॥
संजय बोले—
हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र ! ऐसा कहकर निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी भगवान् गोविन्दसे “मैं युद्ध नहीं करूँगा”--- ऐसा साफ-साफ कहकर चुप हो गये।
ॐ तत्सत् !

Monday 17 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.०३)

कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता:।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥७॥
कायरतारूप दोष से तिरस्कृत स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित अन्त:करणवाला मैं आपसे पूछता हूँ कि जो निश्चित कल्याण करनेवाली हो,वह बात मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ। आपके शरण हुए मुझे शिक्षा दीजिये।
व्याख्या—
प्रत्येक मनुष्य वास्तव में साधक है । कारण कि चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए जीव को भगवान्‌ यह मनुष्य शरीर केवल अपना कल्याण करने के लिए ही प्रदान करते हैं । इसलिये किसी भी मनुष्य को अपने कल्याण से निराश नहीं होना चाहिये । मनुष्यमात्र को परमात्मप्राप्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है । साधक होने के नाते मनुष्यमात्र अपने साध्य को प्राप्त करने में स्वतन्त्र, समर्थ, योग्य और अधिकारी है । सबसे पहले इस बात की आवश्यकता है कि मनुष्य अपने उद्देश्य को पहचानकर दृढ़तापूर्वक यह स्वीकार कर ले कि मैं संसारी नहीं हूँ, प्रत्युत साधक हूँ ।
मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं वैश्य हूँ, मैं शूद्र हूँ, मैं ब्रह्मचारी हूँ, मैं गृहस्थ हूँ, मैं वानप्रस्थ हूँ, मैं सन्यासी हूँ आदि मान्यताएँ केवल सांसारिक व्यवहार (मर्यादा)- के लिये तो ठीक हैं, पर परमात्म प्राप्तिमें ये बाधक है। ये मान्यताएँ शरीर को लेकर हैं । परमात्मप्राप्ति शरीर को नहीं होती, प्रत्युत स्वयं साधक को होती है । साधक स्वयं अशरीरी ही होता है ।
अर्जुन ने अपने वास्तविक उद्देश्य को पहचान लिया है कि मुझे अपना कल्याण करना है । इसलिये वे युद्ध करने अथवा न करनेकी बात न पूछकर अपने कल्याणका निश्चित उपाय पूछते हैं ।
ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.०२)


कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभि: प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥ ४॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्॥ ५॥
न चैतद्विद्म: कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु:।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिता: प्रमुखे धार्तराष्ट्रा:॥ ६॥
अर्जुन बोले—
हे मधुसूदन! मैं रणभूमिमें भीष्म और द्रोणके साथ बाणोंसे कैसे युद्ध करूँ? क्योंकि हे अरिसूदन! ये दोनों ही पूजाके योग्य हैं।
महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर इस लोक में मैं भिक्षाका अन्न खाना भी श्रेष्ठ समझता हूँ; क्योंकि गुरुजनोंको मारकर यहाँ रक्तसे सने हुए तथा धनकी कामनाकी मुख्यतावाले भोगोंको ही तो भोगूँगा!
हम यह भी नहीं जानते कि हमलोगोंके लिये (युद्ध करना और न करना—इन) दोनोंमेंसे कौन-सा अत्यन्त श्रेष्ठ है अथवा हम उन्हें जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे। जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्रके सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं।
ॐ तत्सत् !

Saturday 15 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.०१)


सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:॥ १॥
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्ति करमर्जुन ॥ २॥
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥ ३॥
संजय बोले—
वैसी कायरतासे व्याप्त हुए उन अर्जुनके प्रति, जो कि विषाद कर रहे हैं और आँसुओं के कारण जिनके नेत्रों की देखनेकी शक्ति अवरुद्ध हो रही है,भगवान् मधुसूदन यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।
श्रीभगवान् बोले—
हे अर्जुन! इस विषम अवसरपर तुम्हें यह कायरता कहाँसे प्राप्त हुई, जिसका कि श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, जो स्वर्गको देनेवाली नहीं है और कीर्ति करनेवाली भी नहीं है। हे पृथानन्दन अर्जुन ! इस नपुंसकता को मत प्राप्त हो; क्योंकि तुम्हारे में यह उचित नहीं है। हे परन्तप ! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता का त्याग करके (युद्धके लिये) खड़े हो जाओ।
ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी- पहला अध्याय (पोस्ट.१३)


उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥ ४४॥
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता:॥ ४५॥
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणय:।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥ ४६॥

सञ्जय उवाच

एवमुक्त्वार्जुन: सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस:॥ ४७॥

हे जनार्दन ! जिनके कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, उन मनुष्यों का बहुत काल तक नरकों में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं। यह बड़े आश्चर्य और खेदकी बात है कि हमलोग बड़ा भारी पाप करनेका निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुखके लोभसे अपने स्वजनोंको मारनेके लिये तैयार हो गये हैं। अगर ये हाथोंमें शस्त्र-अस्त्र लिये हुए धृतराष्ट्र के पक्षपाती लोग युद्धभूमि में सामना न करनेवाले तथा शस्त्ररहित मुझे मार भी दें तो वह मेरे लिये बड़ा ही हितकारक होगा।

संजय बोले—

ऐसा कहकर शोकाकुल मनवाले अर्जुन बाणसहित धनुष का त्याग करके युद्धभूमि में रथ के मध्यभाग में बैठ गये।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम
प्रथमोऽध्याय:॥ १॥

Friday 14 October 2016

गीता प्रबोधनी - पहला अध्याय (पोस्ट.१२)


अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्कर:॥ ४१॥
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया:॥ ४२॥
दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकै:।
उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता:॥ ४३॥ 
हे कृष्ण ! अधर्म के अधिक बढ़ जानेसे कुलकी स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं, और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियोंके दूषित होनेपर वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं। वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरकमें ले जानेवाला ही होता है। श्राद्ध और तर्पण न मिलनेसे इन कुलघातियों के पितर भी (अपने स्थानसे) गिर जाते हैं। इन वर्णसंकर पैदा करनेवाले दोषों से कुलघातियों के सदा से चलते आये कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं। 
ॐ तत्सत् !

Wednesday 12 October 2016

गीता प्रबोधनी - पहला अध्याय (पोस्ट.११)

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस:।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥ ३८॥
कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥ ३९॥
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥ ४०॥

यद्यपि लोभके कारण जिनका विवेक-विचार लुप्त हो गया है, ऐसे ये (दुर्योधन आदि) कुलका नाश करनेसे होनेवाले दोषको और मित्रोंके साथ द्वेष करनेसे होनेवाले पापको नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुलका नाश करनेसे होनेवाले दोषको ठीक-ठीक जाननेवाले हमलोग इस पापसे निवृत्त होनेका विचार क्यों न करें? कुलका क्षय होनेपर सदासे चलते आये कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्मका नाश होनेपर बचे हुए सम्पूर्ण कुलको अधर्म दबा लेता है।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पहला अध्याय (पोस्ट.१०)

निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिन:॥ ३६॥
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव॥ ३७॥

हे जनार्दन ! इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को मारकर हमलोगों को क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा। इसलिये अपने बान्धव इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि हे माधव! अपने कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?

ॐ तत्सत् !

Monday 10 October 2016

गीता प्रबोधनी - पहला अध्याय (पोस्ट.०९)

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥ ३३॥
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा:।
मातुला: श्वशुरा: पौत्रा: श्याला: सम्बन्धिनस्तथा॥ ३४॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते॥ ३५॥

जिनके लिये हमारी राज्य, भोग और सुखकी इच्छा है, वे ही ये सब अपने प्राणोंकी और धनकी आशाका त्याग करके युद्धमें खड़े हैं। आचार्य, पिता, पुत्र और उसी प्रकार पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा अन्य जितने भी सम्बन्धी हैं, मुझ पर प्रहार करने पर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता और हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिये तो मैं इनको मारूँ ही क्या?

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पहला अध्याय (पोस्ट.०८)


निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥ ३१॥
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥ ३२॥

हे केशव! मैं लक्षणों (शकुनों)-को भी विपरीत देख रहा हूँ और युद्धमें स्वजनोंको मारकर श्रेय (लाभ) भी नहीं देख रहा हूँ। हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ और न सुखोंको ही चाहता हूँ। हे गोविन्द! हमलोगोंको राज्यसे क्या लाभ? भोगोंसे क्या लाभ? अथवा जीनेसे भी क्या लाभ ?

ॐ तत्सत् !

Sunday 9 October 2016

गीता प्रबोधनी - पहला अध्याय (पोस्ट.०७)

तान्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥ २७॥
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

अर्जुन उवाच

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥ २८॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥ २९॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन:॥ ३०॥

अपनी-अपनी जगहपर स्थित उन सम्पूर्ण बान्धवोंको देखकर वे कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरतासे युक्त होकर विषाद करते हुए ऐसा बोले ।

अर्जुन बोले—

हे कृष्ण! युद्धकी इच्छावाले इस कुटुम्ब-समुदायको अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीरमें कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है और मैं खड़े रहनेमें भी असमर्थ हो रहा हूँ।

ॐ तत्सत् !

Friday 7 October 2016

गीता प्रबोधनी - पहला अध्याय (पोस्ट.०६)

सञ्जय उवाच

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥ २४॥
भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति॥ २५॥
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थ: पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥ २६॥
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।

संजय बोले—

हे भरतवंशी राजन्! निद्रा-विजयी अर्जुनके द्वारा इस तरह कहनेपर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओं के मध्यभाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने श्रेष्ठ रथको खड़ा करके इस प्रकार कहा कि 'हे पार्थ ! इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियों को देख। उसके बाद पृथानन्दन अर्जुनने उन दोनों ही सेनाओंमें स्थित पिताओं को, पितामहों को, आचार्यों को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा।

व्याख्या—

‘युद्ध के लिए एकत्र हुए इन कुरुवंशियों को देख’—ऐसा कहने में भगवान् की यह गूढ़ाभिसंधि थी कि इन कुरुवंशियों को देखकर अर्जुन के भीतर छिपा कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत हो जाय और मोह जाग्रत होनेसे अर्जुन जिज्ञासु बन जाय, जिससे अर्जुन का तथा उनके निमित्त से भावी मनुष्यों का भी मोहनाश करने के लिए गीता का महान उपदेश दिया जा सके |

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पहला अध्याय (पोस्ट.०५)


अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वज:।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डव:॥ २०॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥ २१॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे॥ २२॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागता:।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षव:॥ २३॥
हे महीपते धृतराष्ट्र! अब शस्त्र चलनेकी तैयारी हो ही रही थी कि उस समय अन्यायपूर्वक राज्यको धारण करनेवाले राजाओं और उनके साथियोंको व्यवस्थितरूपसे सामने खड़े हुए देखकर कपिध्वज पाण्डुपुत्र अर्जुनने अपना गाण्डीव धनुष उठा लिया और अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णसे यह वचन बोले।
अर्जुन बोले—
हे अच्युत ! दोनों सेनाओंके मध्यमें मेरे रथको (आप तबतक) खड़ा कीजिये, जबतक मैं (युद्धक्षेत्रमें) खड़े हुए इन युद्धकी इच्छावालोंको देख न लूँ कि इस युद्धरूप उद्योगमें मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है। दुष्टबुद्धि दुर्योधन का युद्ध में प्रिय करने की इच्छावाले जो ये राजालोग इस सेनामें आये हुए हैं, युद्ध करनेको उतावले हुए (इन सबको) मैं देख लूँ।
ॐ तत्सत् !

Thursday 6 October 2016

गीता प्रबोधनी - पहला अध्याय (पोस्ट.०४)

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिता:।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्त: सर्व एव हि॥ ११॥
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्ध: पितामह:।
सिंहनादं विनद्योच्चै: शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्॥ १२॥
तत: शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा:।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥ १३॥
तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधव: पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतु:॥ १४॥
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदर:॥ १५॥
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर:।
नकुल: सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥ १६॥
काश्यश्च परमेष्वास: शिखण्डी च महारथ:।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजित:॥ १७॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश: पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहु: शङ्खान्दध्मु: पृथक्पृथक्॥ १८॥
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्॥ १९॥

दुर्योधन बाह्यदृष्टिसे अपनी सेनाके महारथियोंसे बोला—आप सब-के-सब लोग सभी मोर्चोंपर अपनी-अपनी जगह दृढ़तासे स्थित रहते हुए निश्चितरूपसे पितामह भीष्मकी ही चारों ओरसे रक्षा करें। उस (दुर्योधन)-के हृदयमें हर्ष उत्पन्न करते हुए कौरवोंमें वृद्ध प्रभावशाली पितामह भीष्मने सिंहके समान गरजकर जोरसे शंख बजाया।उसके बाद शंख और भेरी (नगाड़े) तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।उसके बाद सफेद घोड़ोंसे युक्त महान् रथपर बैठे हुए लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुनने भी दिव्य शंखोंको बड़े जोरसे बजाया।अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने पांचजन्य नामक तथा धनंजय अर्जुनने देवदत्त नामक शंख बजाया और भयानक कर्म करनेवाले वृकोदर भीमने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने अनन्तविजय नामक शंख बजाया तथा नकुल और सहदेवने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये। हे राजन्! श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी तथा धृष्टद्युम्न एवं राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र तथा लम्बी-लम्बी भुजाओंवाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु—इन सभी ने सब ओर से अलग-अलग (अपने-अपने) शंख बजाये । और (पाण्डवसेना के शंखों के) उस भयंकर शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए अन्यायपूर्वक राज्य हड़पने वाले दुर्योधन आदि के हृदय विदीर्ण कर दिये।

ॐ तत्सत् !

Tuesday 4 October 2016

गीता प्रबोधनी - पहला अध्याय (पोस्ट.०३)

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥ १०॥

(द्रोणाचार्यको चुप देखकर दुर्योधनके मनमें विचार हुआ कि वास्तवमें) हमारी वह सेना (पाण्डवोंपर विजय करनेमें) अपर्याप्त है, असमर्थ है; क्योंकि उसके संरक्षक (उभय-पक्षपाती) भीष्म हैं । परन्तु इन पाण्डवोंकी यह सेना (हमपर विजय करनेमें) पर्याप्त है, समर्थ है; क्योंकि इसके संरक्षक (निजसेना-पक्षपाती) भीमसेन हैं।

व्याख्या—

इस श्लोक से ऐसा प्रतीत है कि दुर्योधन पांडवों से संधि करना चाहता है | परन्तु वास्तव में ऐसी बात है नहीं | दुर्योधन ने कहा है—

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जनाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः |
केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ||
....................(गर्गसंहिता, अश्वमेध०५० | ३६)

‘मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उसमें मेरी निवृत्ति नहीं होती | मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ |’

दुर्योधन हृदय में स्थित जिस देव की बात कहता है, वह वास्तव में ‘कामना’ ही है | जब वह कामना के वशीभूत होकर उसके अनुसार चलता है तो फिर वह पाण्डवों से संधि कैसे कर सकता है ? पाण्डव मन के अनुसार नहीं चलते थे, प्रत्युत धर्म के तथा भगवान् की आज्ञा के अनुसार चलते थे | इसलिए जब गन्धर्वों ने दुर्योधन को बन्दी बना लिया था, तब युधिष्ठिर ने ही उसे छुड़वाया | वहाँ युधिष्ठिर के वचन हैं—

परै: परिभावे प्राप्ते वयं पञ्चोतरं शतम् |
परस्परविरोधे तु वयं पञ्च शतं तु ते ||
...................(महाभारत, वन० २४३)

‘दूसरों के द्वारा पराभव प्राप्त होनेपर उसका सामना करने के लिए हमलोग एक सौ पाँच भाई हैं | आपस में विरोध होनेपर ही हम पाँच भाई अलग हैं और वे सौ भाई अलग हैं |’

कामना मनुष्यों को पापों में लगाती है (गीता ३ | ३६-३७); परन्तु धर्म मनुष्यों को पुण्यकर्मों में लगाता है |

ॐ तत्सत् !

Monday 3 October 2016

गीता प्रबोधनी- पहला अध्याय (पोस्ट.०२)

सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्॥ २॥
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥ ३॥
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ:॥ ४॥
धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गव:॥ ५॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा:॥ ६॥
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते॥ ७॥
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जय:।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥ ८॥
अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता:।
नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा:॥ ९॥
संजय बोले—
उस समय वज्रव्यूह से खड़ी हुई पाण्डव-सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर राजा दुर्योधन यह वचन बोला । हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नके द्वारा व्यूहरचना से खड़ी की हुई पाण्डवों की इस बड़ी भारी सेनाको देखिये। यहाँ (पाण्डवोंकी सेनामें) बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा जो युद्धमें भीम और अर्जुनके समान हैं। उनमें युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं। धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं। पुरुजित् और कुन्तिभोज—ये (दोनों भाई) तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं। ये सब-के-सब महारथी हैं। हे द्विजोत्तम! हमारे पक्षमें भी जो मुख्य हैं, उनपर भी आप ध्यान दीजिये। आपको याद दिलाने के लिये मेरी सेना के जो नायक हैं, उनको मैं कहता हूँ। आप (द्रोणाचार्य) और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्रभूरिश्रवा । इनके अतिरिक्त बहुत-से शूरवीर हैं, जिन्होंने मेरे लिये अपने जीने की इच्छा का भी त्याग कर दिया है, और जो अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने वाले हैं तथा जो सब-के-सब युद्धकला में अत्यन्त चतुर हैं।
ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी -पहला अध्याय (पोस्ट.०१)

धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥ १॥

धृतराष्ट्र बोले—हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने भी क्या किया ?

व्याख्या—

यह हिन्दू संस्कृति की विलक्षणता है कि इसमें प्रत्येक कार्य अपने कल्याण का उद्देश्य सामने रखकर ही करने की प्रेरणा की गयी है। इसलिए युद्ध-जैसा घोर कर्म भी 'धर्मक्षेत्र' ( धर्मभूमि ) एवं 'कुरुक्षेत्र' ( तीर्थभूमि ) - में किया गया है, जिसमें युद्ध में मरने वालों का भी कल्याण हो जाय। भगवान् की ओर से सृष्टि में कोई भी (मेरे और तेरे का) विभाग नहीं किया गया है | सम्पूर्ण सृष्टि पाँचभौतिक है | सभी मनुष्य समान हैं और उन्हें आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी भी समान रूप से मिले हुए हैं | परन्तु मनुष्य मोह के वशीभूत होकर उनमें विभाग कर लेता है कि ये मनुष्य,घर, गाँव,प्रांत, देश, आकाश,जल आदि मेरे हैं और ये तेरे हैं | इस ‘मेरे’ और ‘तेरे’ भेद से ही सम्पूर्ण संघर्ष उत्पन्न होते हैं | महाभारत का युद्ध भी ‘मामका:’ (मेरे पुत्र) और ‘पांडवा:’ (पांडु के पुत्र)—इस भेद के कारण आरम्भ हुआ है |

ॐ तत्सत् !

Tuesday 12 July 2016

गीताका प्रभाव

जो स्त्री पर-पुरुषका चिन्तन करती रहती है तथा जिसकी पुरुषमें बहुत ज्यादा आसक्ति होती है, वह मरनेके बाद ‘चुड़ैल’ बन जाती है । भूत-प्रेतोंका प्रायः यह नियम रहता है कि पुरुष भूत-प्रेत पुरुषोंको ही पकड़ते हैं और स्त्री भूत-प्रेत स्त्रियोंको ही पकड़ते हैं; परन्तु चुड़ैल केवल पुरुषोंको ही पकड़ती है । चुड़ैल दो प्रकारकी होती‒एक तो पुरुषका शोषण करती रहती है अर्थात् उसका खून चूसती रहती है,उसकी शक्ति क्षीण करती है; और दूसरी पुरुषका पोषण करती है, उसको सुख-आराम देती है । ये दोनों ही प्रकारकी चुड़ैलें पुरुषको अपने वशमें रखती हैं ।

एक सिपाही था । वह रातके समय कहींसे अपने घर आ रहा था । रास्तेमें उसने चन्द्रमाके प्रकाशमें एक वृक्षके नीचे एक सुन्दर स्त्री देखी । उसने उस स्त्रीसे बातचीत की तो उस स्त्रीने कहा‒मैं आ जाऊँ क्या ? सिपाहीने कहा‒हाँ, आ जा । सिपाहीके ऐसा कहनेपर वह स्त्री, जो चुड़ैल थी, उसके पीछे आ गयी । अब वह रोज रातमें उस सिपाहीके पास आती, उसके साथ सोती, उसका संग करती और सबेरे चली जाती । इस तरह वह उस सिपाहीका शोषण करने लगी । एक बार रातमें वे दोनों लेट गये, पर बत्ती जलती रह गयी तो सिपाहीने उससे कहा कि तू बत्ती बन्द कर दे । उसने लेटे-लेटे ही अपना हाथ लम्बा करके बत्ती बन्द कर दी । अब सिपाहीको पता लगा कि यह कोई सामान्य स्त्री नहीं है, यह तो चुड़ैल है ! वह बहुत घबराया । चुड़ैलने उसको धमकी दी कि अगर तू किसीको मेरे बारेमें बतायेगा तो मैं तेरेको मार डालूँगी । इस तरह वह रोज रातमें आती और सबेरे चली जाती । सिपाहीका शरीर दिन-प्रतिदिन सूखता जा रहा था । लोग उससे पूछते कि भैया ! तुम इतने क्यों सूखते जा रहे हो ? क्या बात है, बताओ तो सही । परन्तु चुड़ैलके डरके मारे वह किसीको कुछ बताता नहीं था । एक दिन वह दूकानसे दवाई लाने गया । दूकानदारने दवाईकी पुड़िया बाँधकर दे दी । सिपाही उस पुड़ियाको जेबमें डालकर घर चला आया । रातके समय जब वह चुड़ैल आयी, तब वह दूरसे ही खड़े-खड़े बोली कि तेरी जेबमें जो पुड़िया है, उसको निकालकर फेंक दे । सिपाहीको विश्वास हो गया कि इस पुड़ियामें जरूर कुछ करामात है, तभी तो आज यह चुड़ैल मेरे पास नहीं आ रही है ! सिपाहीने उससे कहा कि मैं पुड़िया नहीं फेकूँगा । चुड़ैलने बहुत कहा, पर सिपाहीने उसकी बात मानी नहीं । जब चुड़ैलका उसपर वश नहीं चला, तब वह चली गयी । सिपाहीने जेबमेंसे पुड़ियाको निकालकर देखा तो वह गीताका फटा हुआ पन्ना था ! इस तरह गीताका प्रभाव देखकर वह सिपाही हर समय अपनी जेबमें गीता रखने लगा । वह चुड़ैल फिर कभी उसके पास नहीं आयी ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘दुर्गति से बचो’ पुस्तकसे

Saturday 14 May 2016

The great war fought at Kurukshetra to decide the right of claim

War had to be declared. This is the great war fought at Kurukshetra to decide the right of claim. The hundred Kouravas, Bhisma, Drona, Asvasthama, etc.; were on the other. Krishna did not actually fight. He was charioteer of Arjuna and hence He is called Parathasarathy. Krishna was very impartial. He gave his army to kouravas and himself offered to serve the Pandavas.

The Kouravas and the Pandava armies arrayed themselves for the war. The Kouravas planned their attacks under the supervision of Bhisma, and under Bhima’s management the Pandavas army marched into formation. Arjuna asked Krishna to drive his chariot into the heart of battlefield, into the no-man’s land between two forces, so that he could get a clear view of all. He was bubbling over with the war-spirit. He faced his enemy forces…….but there he saw not his enemies but his revered grand-sire Bhisma, his beloved teacher Drona , and his dear and near kinsmen and friends. He felt a growing weakness in his heart. He lost his enthusiasm to fight. He turned to Krishna and told him clearly that he did not wish to fight against his seniors, friends and cousins to win a paltry kingdom. How can he enjoy the luxuries and the glories of a kingdom won by spilling the blood of so many of his relatives and friends!

When Arjuna refused to fight, Krishna gave him good advice

When Arjuna refused to fight, Krishna gave him good advice. Enlightening him upon where his duty lay. Its essence was active conquest of evil and not passive resistance to it. Arjuna was a different person altogether after he had tasted this spiritual Elixir. It cured not only his weakness but revived his spirits. This marvelous advice is Bhagvad Geeta, which gives in a nut shell, the essence of the vast and deep learning enshrined in the scriptures.

The advice was obviously given by Krishna to Arjuna in a battle-field. But it is not in any sense narrow in its scope. It is a universal guide, meant for the entire humanity, in all climes, for all times, irrespective of age, sex caste and creed. It was applicable in the age of Puranas, i.e. Dwapar Yuga in Bharat varsha in the case of Arjuna at he Kurukshetra war . It is equally applicable in the Kali Yuga, in any place on the globe, now and for ever, to every individual young or old, man or women.

We are the dual personality of good and bad. We must conquer the evil and cultivate good in us. Strave the Demon and feed the God. How? For instance, if you are angry and want to smash the nose and break the chin of your friend, you may raise your hand ….but…pause a moment……and remember what Geeta says..make a rapid review of Geeta and then proceed. You shall find it easier and wiser to smash his entire being more effectively and with less effort and procure him as a slave till death, by shaking hand with him. Patience ,forgiveness,friendship that is what geeta teaches us.So don’t do anything rashly in haste. Then you may come to suffer and regret. Always see wheather Geeta offers any solution. Follow Geeta-instructions.

The duty of Arjuna, a Kshatriya prince is to conquer his enemies. The duty of students is to study, acquire pure, faultless learning. The duty of a cobbler is to mend shoes well: and of a butcher to supply meat to the needy. Well, Geeta teaches us to discharge our duties, to put our whole heart into them, regardless of outcome. Evidently then there would be no such word as “failure” in our life.



Bhagavad Geeta is a practical guide

Bhagavad Geeta is a practical guide. It teaches the art of living this life in harmony with the spiritual one. It teaches the art of self-discipline and self-perfection. Man is a synthesis of Matter and Spirit and nobody can afford to ignore the one in order to perfect the other. We have to blend them in proper proportions, assigning their due importance to both. Geeta is really a treasure-house of most precious pearls of wisdom.It offers a solution to all our personal problems, though they vary in nature from individual to individual. There lies the simple beauty of Geeta.

Lord’s Song Divine is in the form of dialogue,between two characters, Arjuna and Krishna –Nara and Narayana—wherein Nara symbolizes man, and Narayana represents the Refuge of man, God. The god directs and guides the dejected ,depressed, helpless and erring man along the right path.This struggle in man between himself and the Lord of his heart and ultimately the Lord coming to his rescue when he surrenders to him are quite common in every day life. But generally we fail to notice the play of god in our day-to-day activities.

Geeta is a poem in eighteen chapters, containing 701 stanzas. The philosophy preached in these lyrical stanzas constitutes the Bharat Culture , the time honored culture of Indian fore-fathers, the very glory of nation-India.

The Bhagawad Gita or the song of the Lord,

The Gita is comparable to a bouquet made of the most beautiful flowers of spiritual truths collected from the Upanishads. No better commentary on the Vedas has been written or can be written so far other than by the Bhagawad Gita. The knowledge of the Atma and liberation of the conditioned consciousness or jivahood is the highest aim of the Gita. The central idea of the Gita is to remain calm and steadfast in all circumstances, with one`s body,mind and intellect centred at the Divine altar.The Gita avers that the goal of the humans is to realize oneness with the Supreme being. Work, work, work day and night ,says the Gita. The goal of mankind is to attain true Knowledge and attaining freedom while living. The knowledge of the Self -the highest destiny of man, is the ultimate goal. Divinity is present in each and every being . The goal of life is to manifest this Divinity within by controlling/ conquering the play of the gunas viz., Satva, Rajas and Tamas.
The Bhagawad Gita or the song of the Lord, brings the Vedik truths from the caves of Himalaya into the active fields of political life in Mahabharata and into the tensions of an imminent war between cousins. On the eve of the war,Arjuna was under the stress of delusion and got shattered in his mental balance and seemed to have lost his capacity to act with right discrimination. Lord Krishna took in hand the despondent mind of Arjuna for treatment with Vedik Truths. The Lord declared the new message of the Gita, which,as you all know is nothing but a reinterpretation of the ancient wisdom of the Upanishads , with proper emphasis upon vital concepts which had got distorted. If the Upanishads are the text book of the philosophical principles discussing man(jiva), world(prapancha) and God(Iswara), the Bhagawad Gita, is a handbook of instructions as to how every human being can live the subtle philosophical principles of Vedanta in the day-to-day world and be a true citizen of the nation. The Gita is not addressed to to the physical entity in Arjuna but to the mental and intellectual constitution of that heroic prince. Gita is not just a message of action but a message of living. And Gita is not a book for casual reading or appreciation. One of the several assertions of the Lord in the Gita is that Niskamya karma (desireless activity) without egoism would purify man`s inner nature and help him to evolve more and more to the status of a God-man. If we try to digest properly the implications of the Gita`s advice in the light of the Vedik lore, it becomes amply clear how actions performed without ego-centric desires purge the mind of its vasanas (deep-seated impressions) and make it increasingly subtle and pure in its sadhana for attaining the Infinite. It has been stated that the Gita is one of the most authoratitive sources of Hindu doctorine and ethics, and is accepted as such by Hindus of all denominations. A study of even selected verses from the Gita, accompanied by earnest thinking or churning of the mind about those selected verses, will enable us to understand the religion of our forefathers, which is the background of all the noble philosophy, art,literature and civilization that we have inherited. To take the battle of Kurukshetra literally and to interpret all that is said in the Gita in the light of the developments and utterances leading to the war, would not lead one to understand the Gita correctly; rather it would lead him to an erronous understanding. It is true that the teachings in the Gita are of universal validity and would also be applicable to the Mahabharata scene and must help to solve Arjuna`s delusion and doubts. We fail to understand the teachings in the right perspective when we are obsessed with the particular scene in Mahabharata and thereby we seek to interpret the general by the particular. We should forget the battle- scene when we study the Gita as a scripture of Sanatana Dharma.