Friday 25 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३८)

दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ ५६॥
य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ५७॥
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ५८॥

दु:खोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है।

सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ-अशुभको प्राप्त करके न तो प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।

जिस तरह कछुआ अपने अंगोंको सब ओरसे समेट लेता है, ऐसे ही जिस कालमें यह (कर्मयोगी) इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।

व्याख्या—

स्वयं नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है और शरीर नित्य-निरन्तर बदलता रहता है; अतः दोनोंके स्वभावमें कोई अन्तर नहीं पड़ता । परन्तु जब स्वयं शरीरके साथ मैं-मेरेका सम्बन्ध मान लेता है तब बुद्धिमें (शरीर-संसारका असर पड़नेसे) अन्तर पड़ने लगता है । मैं-मेरापन मिटनेसे बुद्धिमें जो अन्तर पड़ता था, वह मिट जाता है और बुद्धि स्थिर हॊ जाती है । बुद्धि स्थिर होनेसे स्वयं अपने-आपमें ही स्थिर हो जाता है ।

ॐ तत्सत् !

Thursday 24 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३७)

अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥ ५४॥

श्रीभगवानुवाच

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥ ५५॥

अर्जुन बोले—

हे केशव ! परमात्मा में स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यके क्या लक्षण होते हैं? वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है अर्थात् व्यवहार करता है?

श्रीभगवान् बोले—

हे पृथानन्दन! जिस कालमें साधक मनमें आयी सम्पूर्ण कामनाओंका भलीभाँति त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थिरबुद्धि कहा जाता है।

व्याख्या—

मनकी स्थिरताकी अपेक्षा बुद्धिकी स्थिरता श्रेष्ट है; क्योंकि मनकी स्थिरतासे तो लौकिक सिद्धियां प्रकट होती हैं, पर बुद्धिकी स्थिरतासे कल्याण हो जाता है । मनकी स्थिरता है- वृत्तियोंका निरोध और बुद्धिकी स्थिरता है-उद्देश्यकी दृढता ।
त्याग उसीका होता है जो वास्तवमें सदासे ही त्यक्त है । कामना स्वयंगत न होकर मनोगत है । परन्तु मनके साथ तादात्म्य होनेके कारण कामना स्वयंमें दीखने लगती है । जब साधकको स्वयंमें सम्पूर्ण कामनाओंके अभावका अनुभव हो जाता है, तब उसकी बुद्धि स्वतः स्थिर हो जाती है ।

ॐ तत्सत् !

Wednesday 23 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३६)


श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥ ५३॥

जिस कालमें शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मा में अचल हो जायगी, उस काल में तू योगको प्राप्त हो जायगा।

व्याख्या—

पूर्वश्लोकमें सांसारिक मोहके त्यागकी बात कहकर भगवान्‌ प्रस्तुत श्लोकमें शास्त्रीय मोह अर्थात्‌ सीखे हुए (अनुभवहीन) ज्ञानके त्यागकी बात कहते हैं । ये दोनों ही प्रकारके मोह साधकके लिये बाधक हैं । शास्त्रीय मोहके कारण साधक द्वैत, अद्वैत, आदि मतभेदोमें उलझकर खण्ड न-मण्डनमें लग जाता है । केवल अपने कल्याणका ही दृढ़ उद्देश्य होने पर साधक सुगमतापूर्वक इस (दोनों प्रकारके) मोहसे तर जाता है ।

ॐ तत्सत् !

Tuesday 22 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३५)

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ ५२॥

जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको भलीभाँति तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा।

व्याख्या—

मिलने और बिछुड़नेवाले पदार्थों और व्याक्तियोंको अपना तथा अपने लिये मानना मोह है । इस मोहरूपी दलदलसे निकलनेपर साधकको संसारसे वैराग्य हो जाता है । संसारसे वैराग्य होने पर अर्थात्‌ रागका नाश होनेपर योग की प्राप्ति हो जाती है ।

ॐ तत्सत् !

Monday 21 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३४)

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्॥ ५०॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्॥ ५१॥

बुद्धि (समता)-से युक्त मनुष्य यहाँ (जीवित अवस्थामें ही) पुण्य और पाप—दोनोंका त्याग कर देता है। अत: तू योग (समता)-में लग जा; क्योंकि कर्मोंमें योग ही कुशलता है।
कारण कि समतायुक्त बुद्धिमान् साधक कर्मजन्य फलका अर्थात् संसारमात्र का त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं।

व्याख्या—

समता में स्थित मनुष्य जल में कमल की भाँति संसार में रहते हुए भी पाप-पुण्य दोनों से नहीं बँधता अर्थात्‌ मुक्त हो जाता है । यही जीवन्मुक्ति है ।
पूर्वश्लोक में आया है कि योग की अपेक्षा कर्म दूरसे ही निकृष्ट हैं, इसलिये मनुष्य को समता में स्थित होकर कर्म करने चाहिये अर्थात्‌ कर्मयोग का आचरण करना चाहिये । महत्त्व योग (समता)- का है, कर्मों का नहीं । कल्याण करने की शक्ति योग (कर्मयोग)- में है, कर्मों में नहीं ।
[ बुद्धि, योग और बुद्धियोग-ये तीनों ही शब्द गीतामें ‘कर्मयोग’ के लिये आये हैं । ]
समता में स्थित होकर कर्म करनेवाले अर्थात्‌ कर्मयोगी साधक जन्म-मरण से रहित होकर परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाते हैं । अतः कर्मयोग मुक्ति का स्वतन्त्र साधन है ।

ॐ तत्सत् !