Friday 23 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.११)

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥ १६॥

हे पार्थ ! जो मनुष्य इस लोक में इस प्रकार (परम्परासे) प्रचलित सृष्टि-चक्र के अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है।

व्याख्या—

जो मनुष्य लोक-मर्यादा तथा शास्त्र-मर्यादाके अनुसार अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसे संसारमें जीनेका अधिकार नहीं है । कारण कि मनुष्योंके द्वारा अपने कर्तव्य्का पालन न करनेसे संसार मात्रको हानि पहूँचती है । वर्तमानमें जो अन्न, जल, वायु आदि प्रदूषित हो रहे हैं, अकाल, अनावृष्टि आदि प्राकृतिक आपदाएँ आ रही हैं, उसमें मनुष्य का कर्तव्य-च्युत होना ही प्रधान कारण है ।
अपने लिये कर्म करना अनधिकृत चेष्टा है । कारण कि जो कुछ मिला है, वह सब संसार की सामग्री है । शरीरादि सब पदार्थ संसारके ही हैं, अपने नहीं । अतः हम पर संसार का ऋण है; जिसे उतारने के लिये हमें सब कर्म संसार के हित के लिये ही करने हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१०)

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥ १४॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥ १५॥

सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं। अन्नकी उत्पत्ति वर्षासे होती है। वर्षा यज्ञसे होती है। यज्ञ कर्मोंसे सम्पन्न होता है। कर्मोंको तू वेदसे उत्पन्न जान और वेदको अक्षर ब्रह्मसे प्रकट हुआ जान । इसलिये वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य-कर्म)-में नित्य स्थित है।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०९)

यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥ १३॥

यज्ञशेष (योग)- का अनुभव करनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं । परन्तु जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापीलोग तो पाप का ही भक्षण करते हैं ।

व्याख्या—

सम्पूर्ण पापोंका कारण है-कामना । अतः कामनापूर्वक अपने लिये कोई भी कर्म करना पाप (बन्धन) है और निष्कामभावसे दूसरोंके लिये कर्म करना पुण्य है । पापका फल दुःख और पुण्यका फल सुख है । इसलिये स्वार्थभावसे अपने लिये कर्म करनेवाले दुःख पाते हैं और निःस्वार्थभावसे दूसरोंके लिये कर्म करनेवाले सुख पाते हैं ।

ॐ तत्सत् !

Thursday 22 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०८)

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स:॥ १२॥
यज्ञसे पुष्ट हुए देवता भी तुमलोगों को (बिना माँगे ही) कर्तव्यपालन की आवश्यक सामग्री देते रहेंगे । इस प्रकार उन देवताओंकी दी हुई सामग्रीको दूसरोंकी सेवामें लगाये बिना जो मनुष्य (स्वयं ही उसका) उपभोग करता है,वह चोर ही है ।
व्याख्या—
शरीर पाञ्चभौतिक सृष्टिमात्र का एक क्षूद्रतम अंश है । अतः स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण-तीनों शरीर संसार के तथा तथा संसार के लिये ही हैं । शरीर स्वयं (स्वरूप)-के किंचिन्मात्र भी काम नहीं आता, प्रत्युत शरीर का सदुपयोग ही स्वयं के काम आता है । शरीर का सदुपयोग है- उसे दूसरों की सेवामें लगाना-संसारकी सेवामें समर्पित कर देना । जो मनुष्य मिली हुई सामग्री का भाग दूसरों (अभावग्रस्तों)-को दिये बिना अकेले ही उसका उपभोग करता है, वो चोर ही है । उसे दण्ड मिलना चाहिये, जो चोर को मिलता है |
ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०७)

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥ १०॥
देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥ ११॥
प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें कर्तव्य-कर्मोंके विधानसहित प्रजा (मनुष्य आदि)-की रचना करके (उनसे, प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा सबकी वृद्धि करो और यह (कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ) तुमलोगोंको कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो। इस (अपने कर्तव्य-कर्म)-के द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग (अपने कर्तव्यके द्वारा) तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।
व्याख्या—
अपने कर्तव्य का पालन करने से अर्थात्‌ दूसरों के लिये निष्कामभाव से कर्म करने से अपना तथा प्राणी मात्र का हित होता है । परन्तु अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे अपना तथा प्राणी मात्रका अहित होता है । कारण कि शरीरों की दृष्टि से तथा आत्मा की दृष्टिसे भी मात्र प्राणी एक हैं, अलग-अलग नहीं ।
मनुष्यशरीर केवल कल्याण-प्राप्तिके लिये ही मिला है । अतः अपना कल्याण करनेके लिये कोई नया काम करना आवश्यक नहीं है, प्रत्युत जो काम करते हैं, उसे ही फलेच्छा और आसक्ति का त्याग करके दूसरोंके हितके लिये करनेसे हमारा कल्याण हो जायगा ।
ॐ तत्सत् !