Thursday 9 March 2017

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.२०)


ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥ २२॥

क्योंकि हे कुन्तीनन्दन! जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्तवाले और दु:खके ही कारण हैं। अत: विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।

व्याख्या—

संसारके सभी सुख दुःखकी अपेक्षासे हैं । कोई भी सुख निरन्तर नहीं रहता । यदि सांसारिक सुख निरन्तर रहता तो वह दुःखरूप ही हो जाता । कारण कि सांसारिक भोगोंमें निरन्तर सुख देनेकी शक्ति ही नहीं है । निरन्तर सुख देनेकी शक्ति केवल मोक्षके अखण्डरसमें ही है । संसारके प्रत्येक सुखभोगका परिणाम दुःख होता है-यह नियम है ।

सांसारिक सुख मिलने-बिछुड़नेवाला है, जबकि स्वयं निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है । सांसारिक सुख स्वयंका साथी नहीं है । इसलिये विवेकी साधक सांसारिक भोगोंकी प्राप्तिमें सुखी और अप्राप्तिमें दुःखी नहीं होता ।

सांसारिक सुखभोगसे थकावट आती है और पारमार्थिक सुखसे विश्राम मिलता है । सांसारिक सुख सापेक्ष और पारमार्थिक सुख निरपेक्ष है । जब मनुष्यको नींद आती है, तब बड़े-से-बड़े सांसारिक सुखका भी त्याग करके सो जाता है । सोनेसे उसकी थकावट मिटती है, विश्राम मिलता है और ताजगी आती है । यदि वह सोये नहीं तो पागल हो जाय ! तात्पर्य है कि सांसारिक सुखका त्याग किये बिना मनुष्य रह सकता ही नहीं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१९)

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥ २१॥

बाह्यस्पर्श (प्राकृत वस्तुमात्रके सम्बन्ध)-में आसक्तिरहित अन्त:करणवाला साधक अन्त:करणमें जो (सात्त्विक) सुख है, उसको प्राप्त होता है। फिर वह ब्रह्ममें अभिन्नभावसे स्थित मनुष्य अक्षय सुखका अनुभव करता है।

व्याख्या—

जब सांसारिक प्राणी-पदार्थों की आसक्ति मिट जाती है, तब साधक को सात्त्विक सुख प्राप्त होता है । जब साधक सात्त्विक सुखका भी उपभोग नहीं करता और उसमें संतोष नहीं करता, तब उसे अखण्ड सुखका अनुभव होता है । सात्त्विक सुख तो प्राकृत होनेसे खण्डित होता रहता है, पर अखण्ड सुख कभी खण्डित नहीं होता, प्रत्युत निरन्तर एकरस रहता है । यह अखण्ड सुख मोक्षका सुख है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१७)


इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिता:॥ १९॥

जिनका अन्त:करण समतामें स्थित है, उन्होंने इस जीवित-अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है अर्थात् वे जीवन्मुक्त हो गये हैं; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिये वे ब्रह्ममें ही स्थित हैं।

व्याख्या—

परमात्मतत्त्वमें स्थित हुए महापुरुषकी पहचान है- बुद्धिमें समता आना अर्थात्‌ बुधिमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार न होना । जिसकी बुद्धि समतामें स्थित हो गयी है, उसे जीवन्मुक्त समझना चाहिये ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१६)

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदृशन:॥ १८॥

ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मणमें और चाण्डालमें तथा गाय, हाथी एवं कुत्तेमें भी समरूप परमात्माको देखनेवाले होते हैं।

व्याख्या—

बेसमझ लोगोंके द्वारा यह श्लोक प्रायः सम-व्यवहारके उदाहरणरूपमें प्रस्तुत किया जाता है । परन्तु इस श्लोकमें ‘समवर्तिनः’ न कहकर ‘समदर्शिनः’ कहा गया है, जिसका अर्थ है-समदृष्टि, न कि सम-व्यवहार । यदि स्थूलरूपसे भी देखें तो ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी,और कुत्तेके प्रति सम-व्यवहार असम्भव है । इनमें विषमता अनिवार्य है । जैसे, पूजन विद्या-विनययुक्त ब्राह्मणका ही हो सकता है, न कि चाण्डालका; दूध गायका ही पिया जाता है, न कि कुतिया का; सवारी हाथीपर ही की जा सकती है, न कि कुत्तेपर । जैसे शरीरके प्रत्येक अंगके व्यवहारमें विषमता अनिवार्य है, पर सुख-दुःखमें समता होती है अर्थात्‌ शरीरके किसी भी अंगका सुख हमारा सुख होता है और दुःख हमारा दुःख । हमें किसी भी अंगकी पीड़ा सह्य नहीं होती । ऐसे ही प्राणियोंसे विषम (यथायोग्य) व्यवहार करते हुए भी उनके सुख-दुःखमें समभाव होना चाहिये ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१४)


नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव:॥ १५॥
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥ १६॥

सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पाप-कर्म को और न शुभ-कर्म को ही ग्रहण करता है; किन्तु अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है, उसीसे सब जीव मोहित हो रहे हैं।
परन्तु जिन्होंने अपने जिस ज्ञानके द्वारा उस अज्ञानका नाश कर दिया है,उनका वह ज्ञान सूर्य की तरह परमतत्त्व परमात्मा को प्रकाशित कर देता है।

व्याख्या—

सर्वव्यापी चेतन-तत्त्व किसी के भी पाप-कर्म अथवा पुण्य-कर्म का कर्ता और भोक्ता नहीं बनता, प्रत्युत अज्ञानवश जीव ही कर्ता-भोक्ता बन जाता है ।

ज्ञानका कभी अभाव नहीं होता । अतः ‘अज्ञान’ शब्द ज्ञानके अभावका वाचक नहीं है, प्रत्युत अधूरे ज्ञानका वाचक है । बौद्धिक ज्ञान अधूरा ज्ञान है । अधूरे ज्ञानसे ही ज्ञानका अभिमान उत्पन्न होता है । पूर्ण ज्ञान होनेसे अभिमान मिट जाता है । अतः बौद्धिक ज्ञानको महत्त्व देना बहुत बड़ा अज्ञान है । बौद्धिक ज्ञानको महत्त्व देनेसे वास्तविक ज्ञानकी ओर दृष्टि नहीं जाती- यही अज्ञानके द्वारा ज्ञानको ढकना है ।

अपने विवेक को महत्त्व देने से अज्ञान का नाश हो जाता है । अज्ञान का नाश होनेपर वह विवेक ही तत्त्वज्ञान में परिणत हो जाता है ।

अज्ञानका नाश विवेकको महत्त्व देनेसे होता है, अभ्याससे नहीं । अभ्यास करनेसे जड़ता के साथ सम्बन्ध बना रहता है; क्योंकि जड़ता (शरीरादि)-की सहायता लिये बिना अभ्यास होता ही नहीं । तत्त्वज्ञानका अनुभव जड़ताके द्वारा नहीं होता, प्रत्युत जड़ताके त्यागसे होता है ।
ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१३)

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु:।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥ १४॥

परमेश्वर मनुष्योंके न कर्तापनकी, न कर्मोंकी और न कर्मफलके साथ संयोगकी रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है।

व्याख्या—

स्वरूपकी तरह परमात्मा भी किसीको कर्म करनेकी प्रेरणा नहीं करते । मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र है । कर्तापन, कर्म और कर्मफलके साथ संयोग जीवका काम है, परमात्माका नहीं । अतः इनका त्याग करनेका दायित्व भी जीवपर ही है । जीव ही अज्ञानवश प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़कर कर्मोंका कर्ता बनता है और कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखी-दुःखी होता है ।

ॐ तत्सत् !