Tuesday 4 October 2016

गीता प्रबोधनी - पहला अध्याय (पोस्ट.०३)

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥ १०॥

(द्रोणाचार्यको चुप देखकर दुर्योधनके मनमें विचार हुआ कि वास्तवमें) हमारी वह सेना (पाण्डवोंपर विजय करनेमें) अपर्याप्त है, असमर्थ है; क्योंकि उसके संरक्षक (उभय-पक्षपाती) भीष्म हैं । परन्तु इन पाण्डवोंकी यह सेना (हमपर विजय करनेमें) पर्याप्त है, समर्थ है; क्योंकि इसके संरक्षक (निजसेना-पक्षपाती) भीमसेन हैं।

व्याख्या—

इस श्लोक से ऐसा प्रतीत है कि दुर्योधन पांडवों से संधि करना चाहता है | परन्तु वास्तव में ऐसी बात है नहीं | दुर्योधन ने कहा है—

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जनाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः |
केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ||
....................(गर्गसंहिता, अश्वमेध०५० | ३६)

‘मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उसमें मेरी निवृत्ति नहीं होती | मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ |’

दुर्योधन हृदय में स्थित जिस देव की बात कहता है, वह वास्तव में ‘कामना’ ही है | जब वह कामना के वशीभूत होकर उसके अनुसार चलता है तो फिर वह पाण्डवों से संधि कैसे कर सकता है ? पाण्डव मन के अनुसार नहीं चलते थे, प्रत्युत धर्म के तथा भगवान् की आज्ञा के अनुसार चलते थे | इसलिए जब गन्धर्वों ने दुर्योधन को बन्दी बना लिया था, तब युधिष्ठिर ने ही उसे छुड़वाया | वहाँ युधिष्ठिर के वचन हैं—

परै: परिभावे प्राप्ते वयं पञ्चोतरं शतम् |
परस्परविरोधे तु वयं पञ्च शतं तु ते ||
...................(महाभारत, वन० २४३)

‘दूसरों के द्वारा पराभव प्राप्त होनेपर उसका सामना करने के लिए हमलोग एक सौ पाँच भाई हैं | आपस में विरोध होनेपर ही हम पाँच भाई अलग हैं और वे सौ भाई अलग हैं |’

कामना मनुष्यों को पापों में लगाती है (गीता ३ | ३६-३७); परन्तु धर्म मनुष्यों को पुण्यकर्मों में लगाता है |

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment