Friday 14 April 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.२७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

श्रीभगवानुवाच

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ ३५॥

श्रीभगवान् बोले—हे महाबाहो! यह मन बड़ा चंचल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है—यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन! अभ्यास और वैराग्यके द्वारा इसका निग्रह किया जाता है।

व्याख्या—

अर्जुन ने दो श्लोकों में प्रश्न किया और भगवान्‌ ने आधे श्लोक में ही उसका उत्तर दिया-इससे सिद्ध होता है कि भगवान्‌ ने मन की एकाग्रता को अधिक महत्त्व नहीं दिया ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी- छठा अध्याय (पोस्ट.२६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥ ३३॥
चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥ ३४॥

अर्जुन बोले—
हे मधुसूदन! आपने समतापूर्वक जो यह योग कहा है, मनकी चंचलताके कारण मैं इस योगकी स्थिर स्थिति नहीं देखता हूँ।
कारण कि हे कृष्ण! मन (बड़ा ही) चंचल, प्रमथनशील, दृढ़ (जिद्दी) और बलवान् है। उसको रोकना मैं (आकाशमें स्थित) वायुकी तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.२५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥ ३२॥

हे अर्जुन! जो (भक्त) अपने शरीरकी उपमासे सब जगह मुझे समान देखता है और सुख अथवा दु:खको भी समान देखता है, वह परम योगी माना गया है।

व्याख्या—

जैसे सामान्य मनुष्य अपनेको शरीरमें देखता है और शरीरके सभी अंगोंको सुख पहुँचानेका तथा उनका दुःख (पीड़ा) दूर करनेका स्वाभाविक प्रयत्न करता है, वैसे ही सबमें भगवान्‌को देखनेवाला भक्त सभी प्राणियोंको सुख पहुँचानेकी तथा उनका दुःख दूर करनेकी स्वाभाविक चेष्टा करता है । ऐसा करनेमें उसके भीतर किंचिन्मात्र भी अभिमान नहीं होता ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.२४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥ ३१॥

मुझमें एकीभावसे स्थित हुआ जो भक्तियोगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित मेरा भजन करता है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मुझमें ही बर्ताव कर रहा है अर्थात् वह नित्य-निरन्तर मुझमें ही स्थित है।

व्याख्या—

भगवान्‌का भक्त अपने शरीरके सहित सम्पूर्ण संसारको भगवान्‌का ही स्वरूप समझता है । इसलिये वह नित्य-निरन्तर भगवान्‌में ही रहता है और भगवान्‌में ही सब बर्ताव करता है । उसके भवमें ये पाँच बातें रहती हैं- (१) मैं भगवान्‌का ही हूँ, (२) मैं जहाँ भी रहता हूँ, भगवान्‌के दरबारमें ही रहता हूँ, (३) मैं जो भी शुभ कार्य करता हूँ, भगवान्‌का ही कार्य करता हूँ, (४) मैं शुद्ध-सात्त्विक जो भी पाता हूँ, भगवान्‌का ही प्रसाद पाता हूँ, और (५) भगवान्‌के दिये प्रसादसे भगवान्‌के ही जनोंकी सेवा करता हूँ । जैसे गंगाजलसे गंगाका पूजन किया जाय, ऐसे ही उस भक्तका बर्ताव भगवान्‌में ही होता है । जैसे शरीर से सम्बन्ध माननेवाल मनुष्य सब क्रियाएं करते हुए भी निरन्तर शरीरमें ही रहता है, ऐसे ही भक्त सब क्रियाएं करते हुए भी निरन्तर भगवान्‌में ही रहता है ।

ॐ तत्सत् !