Friday 9 June 2017

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 
  
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्यस्ये मनोरथम् । 
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥१३॥  
 
(वे इस प्रकार के मनोरथ किया करते हैं कि-) इतनी वस्तुएँ तो हमने आज प्राप्त कर लीं और अब मनोरथ को प्राप्त (पूरा) कर लेंगे। इतना धन तो हमारे पास है ही, इतना धन फिर भी हो जायगा। 
 
 व्याख्या- 
पूर्वपक्ष- दैवी-सम्पत्ति वाले साधकों के मन में भी कभी-कभी व्यापार आदि को लेकर ऐसी स्फुरणाएँ होती हैं कि इतना काम तो हो गया, इतना काम करना बाकी है और इतना काम आगे हो जायगा, इतना पैसा (व्यापार आदि में) आ गया है और इतना पैसा वहाँ देनला है, आदि-आदि। फिर उनमें और आसुरी-सम्पत्ति वाले मनुष्यों में क्या अन्तर हुआ?  
उत्तरपक्ष- दोनों की वृत्तियाँ एक-सी दीखने पर भी दोनों के उद्देश्य में बहुत अन्तर है। साधक का उद्देश्य परमात्म प्राप्ति का होता है; अतः वह उन वृत्तियों में तल्लीन नहीं होता। परन्तु आसुरी सम्पत्ति वालों का उद्देश्य धन का संग्रह करने तथा भोग भोगने को रहता है; अतः वे उन वृत्तियों में ही तल्लीन रहते हैं।

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 
  
आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा: । 
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान् ॥१२॥  
 
वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर पदार्थों का भोग करने के लिये अन्यायपूर्वक धन-संचय करने की चेष्टा करते रहते हैं।  
 
व्याख्या- 
जब तक मनुष्य का सम्बन्ध शरीर-संसार के साथ रहता है, तब तक उसकी कामनाओं का अन्त नहीं आता। दूसरे अध्याय के इकतालीसवें श्लोक में भी आया है कि अव्यवसायी मनुष्यों की बुद्धियाँ अनन्त और बहुशाखाओं वाली होती हैं। कारण कि उन्होंने अविनाशी तत्त्व से विमुख होकर नाशवान को सत्ता और महत्ता दे दी तथा उसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया।  
आसुर स्वभाव वाले मनुष्य काम और क्रोध को स्वाभाविक मानते हैं। काम और क्रोध के सिवाय उन्हें और कुछ दीखता ही नहीं, इनसे आगे उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। मनुष्य समझता है कि क्रोध करने से दूसरा हमारे वश में रहेगा। परन्तु जो मजबूर, लाचार होकर हमारे वश में हुआ है वह कब तक वश में रहेगा? मौका पड़ते ही वह घात करेगा। अतः क्रोध का परिणाम बुरा ही होता है।

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता: । 
मोहादृगृहीत्वासद्ग्राहान्प्रर्तन्तेऽशुचिव्रता: ॥१०॥  
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिता: । 
कामोपभोग परमा एतावदिति निश्चिता: ॥११॥  

कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर दम्भ, अभिमान और मद में चूर रहने वाले तथा अपवित्र व्रत धारण करने वाले मनुष्य मोह के कारण दुराग्रहों को धारण करके (संसार में) विचरते रहते हैं।   
वे मृत्यु पर्यन्त रहने वाली अपार चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, पदार्थों का संग्रह और उनका भोग करने में ही लगे रहने वाले और ‘जो कुछ है, वह इतना ही है’- ऐसा निश्चय करने वाले होते हैं।

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥८॥ 
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धय: ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माण:क्षयाय जगतोऽहिता: ॥९॥

वे कहा करते हैं कि संसार असत्य, बिना मर्यादा के और बिना ईश्वर के अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से पैदा हुआ है। इसलिये काम ही इसका कारण है, इसके सिवाय और क्या कारण है? (और कारण हो ही नहीं सकता।)
 इस (पूर्वाक्त नास्तिक) दृष्टि का आश्रयम लेने वाले जो मनुष्य अपने नित्य स्वरूप को नहीं मानते, जिनकी बुद्धि तुच्छ है, जो उग्र कर्म करने वाले और संसार के शत्रु हैं, उन मनुष्यों की सामथ्र्य का उपयोग जगत का नाश करने के लिये ही होता है।  

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु ॥६॥
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा: ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥७॥ 

इस लोक में दो तरह के ही प्राणियों की सृष्टि है- दैवी और आसुरी। दैवी को तो मैंने विस्तार से कह दिया, अब हे पार्थ! तु मुझ से आसुरी को (विस्तार से) सुनो।
आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य किस में प्रवृत्त होना चाहिये और किससे निवृत्त होना चाहिये- इसको नहीं जानते और उनमें न तो बाह्य शुद्धि, न श्रेष्ठ आचरण तथा न सत्य- पालन ही होता है।

व्याख्या-
आसुर मनुष्य केवल अपना सुख-आराम, अपना स्वार्थ देखते हैं। जिससे अपने को सुख मिलता दीखे, उसी में उनकी प्रवृत्ति होती है और जिससे दुःख मिलता दीखे, स्वार्थ सिद्ध होता न दीखे, उसी से उनकी निवृत्ति होती है। वास्तव में प्रवृत्ति और निवृत्ति में शास्त्र ही प्रमाण है; परन्तु अपने शरीर और प्राणों में मोह रहने के कारण आसुर मनुष्यों की प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्र को लेकर नहीं होती। आसुर स्वभाव के कारण वे शास्त्र की बात सुनते ही नहीं और अगर सुन भी लें तो उसे समझ सकते ही नहीं। कभी सन्त-महात्मओं से शास्त्र की बात सुनने पर भी वे उन्हें स्वीकार नहीं करते।  

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

दैवीसंपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुच: संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥५॥

दैवी सम्पत्ति मुक्ति के लिये और आसुरी सम्पत्ति बन्धन के लिये मानी गयी है। हे पाण्डव! तुम दैवी-सम्पत्ति को प्राप्त हुए हो, इसलिये तुम शोक (चिन्ता) मत करो।

व्याख्या-

जीव के एक ओर भगवान हैं और एक ओर संसार है। जब वह भगवान के सम्मुख होता है तब उसमें दैवी-सम्पत्ति आती है और जब वह संसार के सम्मुख होता है तब उसमें आसुरी-सम्पत्ति आती है।
दूसरों के सुख के लिये कर्म करना अथवा दूसरों का सुख चाहना ‘चेतनता’ है, और अपने सुख के लिये कर्म करना अथवा सुख चाहना, ‘जड़ता’ है। भजन-ध्यान भी आपके सुख के लिये, अपने मान-आदर के लिये करना जड़ता है। चेतनता की मुख्यता से दैवी-सम्पत्ति आती है और जड़ता की मुख्यता से आसुरी-सम्पत्ति आती है। मूल दोध एक ही है, जिससे सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्ति उत्पन्न होती है, और मूल गुण भी एक ही है, जिससे सम्पूर्ण दैवी-सम्पत्ति प्रकट होती है।
मूल दोष है- शरीर-संसार की सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उससे सम्बन्ध जोड़ना। मूल गुण है- भगवान की सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उनसे सम्बन्ध-जोड़ना। यह मूल दोष और मूल गुण ही स्थान भेद से अनेक रूपों में दीखता है।
जब गुणों के साथ अवगुण रहते हैं, तभी तक गुणों की महत्ता दीखती है और उनका अभिमान होता है। कोई भी अवगुण न रहे तो अभिमान नहीं होता। अभिमान आसुरी-सम्पत्ति का मूल है। अभिमान के कारण मनुष्य को दूसरों की अपेक्षा अपने में विशेषता दीखने लगती है-यह आसुरी-सम्पत्ति है। अभिमान होने के कारण दैवी-सम्पत्ति भी आसुरी-सम्पत्ति की वृद्धि करने वाली बन जाती है। जब गुणों के साथ अवगुण नहीं रहते, तब गुणों की महत्ता नहीं दीखती और उनका अभिमान भी नहीं होता। अभिमान न होने के कारण अर्जुन को अपने में गुण (श्रेष्ठता) नहीं दीखते। इसलिये उनकी चिन्ता दूर करने के लिये भगवान उन से कहते हैं कि तुम्हारे में दैवी-सम्पत्ति है, भले ही वह तुम्हें न दीखे।
गीता में ‘मा शुचः’ पद दो बार आये हैं- एक यहाँ और दूसरा अठारहवें अध्याय के छाछठवें श्लोक में। यहाँ ये पद ‘साधन’ के विषय में और अठारहवें अध्याय में ‘सिद्धि’ के विषय में चिन्ता न करने के लिये आये हैं। अतः भक्त को इन दोनों ही विषयों में चिन्ता नहीं करनी चाहिये। 

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥३॥
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोध: पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ॥४॥

तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, वैर-भाव का न होना और मान को न चाहना; हे भरतवंशी अर्जुन! ये सभी दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं। 
हे पृथानन्दन! दम्भ करना, घमण्ड करना और अभिमान करना, क्रोध करना तथा कठोरता रखना और अविवेक का होना भी-ये सभी आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं।


ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति: ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥१॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ॥२॥
श्रीभगवान बोले -
भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की अत्यन्त शुद्धि ज्ञान के लिये योग में दृढ़ स्थिति और सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्य-पालन के लिये कष्ट सहना और शरीर-मन-वाणी की सरलता।
अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोध न करना, संसार की कामना का त्याग, अन्तःकरण में राग-द्वेषजनित हल चल का न होना, चुगली न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, अन्तःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा, चपलता का अभाव। 


ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

इति गुह्रातमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृकृत्यश्च भारत ॥२०॥

हे निष्पाप अर्जुन! इदस प्रकार यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया है। हे भरतवंशी अर्जुन! इसकेा जानकर मनुष्य ज्ञानवान (ज्ञात-ज्ञातव्य) तथा कृतकृत्य हो जाता है। व्

याख्या-

भगवान ने इस अध्याय में अपने-आप को पुरुषोत्तमरूप से अर्थात अलौकिक समग्ररूप से प्रकट किया है, इसलिये इसे ‘गुह्यतम शास्त्र’ कहा गया है।
पूर्वश्लोक में सर्वभाव से भगवान का भजन करने अर्थात अव्यभिचारिणी भक्ति की बात विशेषरूप से आयी है। भक्ति में मनुष्य प्राप्त प्राप्तव्य हो जाता है। अतः पूर्वश्लोक में प्राप्त प्राप्तव्य होने की बात माननी चाहिये। इस श्लोक में (‘बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च’ पद में) ज्ञातज्ञातव्य तथा कृतकृत्य होने की बात आयी है।
लौकिक क्षर और अक्षर तो प्राप्त हैं; अतः अलौकिक परमात्मा ही प्राप्तव्य हैं। इस श्लोक में यह भाव निकलता है कि भक्त को ज्ञानयोग तथा कर्मयोग- दोनों का फल प्राप्त हो जाता है अर्थात वह ज्ञातज्ञातव्य और कृतकृत्य भी हो जाता है।
ऊँ तत्सदिति

श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पंचदशोऽध्यायः।।१५।। 

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  यो मामेवमसंमूढ़ो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥१९॥

हे भरतवंशी अर्जुन! इस प्रकार जो मोह रहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ सब प्रकार से मेरा ही भजन करता है।

व्याख्या-

किसी विशेष महत्वपूर्ण बात पर मन रागपूर्वक लगता है और बुद्धि श्रद्धापूर्वक। जब मनुष्य भगवान को क्षर से अतीत जान लेता है, तब उसका मन क्षर से हट कर भगवान में लग जाता है। जब वह भगवान को अक्षर से उत्तम जान लेता है, तब उसकी बुद्धि भगवान में लग जाती है फिर उसकी प्रत्येक वृत्ति और क्रिया से स्वतः भगवान का भजन होता है। कारण कि उसकी दृष्टि में एक भगवान के सिवाय दूसरा कोई होता ही नहीं।
गीता में ‘सर्ववित्’ शब्द केवल भक्त के लिये ही यहाँ आया है। भक्त समग्र को अर्थात लौकिक और अलौकिकदोनों को जानता है, इसलिये वह सर्ववित् होता है। कारण कि लौकिक के अन्तर्गत अलौकिक नहीं आ सकता, पर अलौकिक के अन्तर्गत लौकिक भी आ जाता है। अतः निर्गुण तत्त्व (अक्षर)- को जानने वाला ब्रह्मज्ञानी सर्ववित् नहीं होता, प्रत्युत समग्र भगवान को जानने वाला भक्त सर्ववित होता है। 


ॐ तत्सत् !

Saturday 13 May 2017

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१७)


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।१८।।

मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ ।

व्याख्या—

क्षर और अक्षर की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं, पर परमात्मा की स्वतन्त्र सत्ता है । क्षर और अक्षर दोनों परमात्मा में ही रहते हैं । परन्तु अक्षर अर्थात्‌ जीव क्षर के साथ सम्बन्ध जोड़कर उसके अधीन हो जाता है-‘ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७ । ५) । परमात्मा क्षर के अधीन नहीं होते, प्रत्युत क्षर से अतीत रहते हैं । इसलिये परमात्मा अक्षर (जीव)-से भी उत्तम हैं । यदि जीव जगत्‌ के साथ सम्बन्ध न जोड़कर उसके स्वामी परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़े तो वह परमात्मा से अभिन्न (आत्मीय) हो जायगा-‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌’ (गीता ७ । १८) ।

मुक्ति में तो अक्षर (स्वरूप)-में स्थिति होती है, पर भक्ति में अक्षर से भी उत्तम पुरुषोत्तम की प्राप्ति होती है । स्वरूप अंश है, परुषोत्तम अंशी हैं ।


ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।१७।।

उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो परमात्मा नाम से कहा गया है । वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सब का भरणपोषण करता है।

व्याख्या—
पुरुषोत्तमको ‘अन्य’ कहनेका तात्पर्य है कि क्षर और अक्षर तो लौकिक हैं, पर पुरुषोत्तम्को ‘अन्य’ कहनेका तात्पर्य है कि क्षर और अक्षर तो अलौकिक हैं, पर पुरुषोत्तम दोनोंसे विलक्षण अर्थात्‌ अलौकिक हैं । अतः परमात्मा विचारके विषय नहीं हैं, प्रत्युत श्रद्धा-विश्‍वास्के विषय हैं । परमात्माके होनेमें भक्त, सन्त-महात्मा, वेद और शास्त्र ही प्रमाण हैं । ‘अन्य’ का स्पष्टीकरण भगवान्‌ ने अगले श्लोक में किया है ।
भगवान्‌ मात्र प्राणियों का पालन-पोषण करते हैं । पालन-पोषण करने में भगवान्‌ किसी के साथ कोई पक्षपात (विषमता) नहीं करते । वे भक्त-अभक्त, पापी-पुण्यात्मा, आस्तिक-नास्तिक आदि सब का समानरूप से पालन-पोषण करते हैं । प्रत्यक्ष देखने में भी आता है कि भगवान्‌ द्वारा रचित सृष्टि में सूर्य सब को समानरूप से प्रकाश देता है, पृथ्वी सब को समानरूप से धारण करती है, वायु श्‍वास लेने के लिये सब को समानरूप से प्राप्त होती है, अन्न-जल सबको समानरूप से तृप्त करते हैं, इत्यादि । जब भगवान्‌ के द्वारा रचित सृष्टि भी इतनी निष्पक्ष, उदार है तो फिर भगवान्‌ स्वयं कितने निष्पक्ष, उदार होंगे !
आधुनिक वेदान्तियों ने ईश्‍वर को कल्पित बताकर साधक-जगत्‌ की बड़ी हानि की है ! उन्हें इस बात का भय है कि ईश्‍वर को मानने से अपने अद्वैत सिद्धान्त में कमी आ जायगी ! परन्तु ईश्‍वर किस की कल्पना है--इसका उत्तर उनके पास नहीं है । वास्तव में सत्ता एक ही है । दूसरी सत्ता का तात्पर्य संसार से है, ईश्‍वर से नहीं; क्योंकि संसार ‘पर’ है और ईश्‍वर ‘स्व’ (स्वकीय) है । अपना राग मिटाये बिना दूसरी सत्ता नहीं मिटेगी । राग तो अपना है, पर मान लिया ईश्‍वरको कल्पित ! अतः ईश्‍वरको कल्पित न मानकर अपना राग मिटाना चाहिये । ईश्‍वर कल्पित नहीं है, प्रत्युत अलौकिक है । वह मायारूपी धेनुका बछड़ा नहीं है, प्रत्युत साँड़ है ! उपनिषद्‌में भी आया है-मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तो महेश्‍वरम्‌’ (श्वेताश्वतर० ४ । १०) ‘माया तो प्रकृतिको समझना चाहिये और मायापति महेश्वरको समझना चाहिये । आजतक जिस ईश्‍वरके असंख्य भक्त हो चुके हैं, वह कल्पित कैसे हो सकता है ?’

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१५)


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।१६।।

इस संसार में क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी) -- ये दो प्रकार के पुरुष हैं । सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है।

व्याख्या—

पहले छ्ठे श्लोक में और फिर बारहवें से पन्द्रहवें श्लोक तक भगवान्‌ ने अलौकिक तत्त्व का वर्णन किया कि स्वतन्त्र सत्ता अलौकिक की ही है, लौकिक की नहीं । लौकिक की सत्ता अलौकिक से ही है । अलौकिक से ही लौकिक प्रकाशित होता है । लौकिक में जो प्रभाव देखने में आता है, वह सब अलौकिक का ही है । अब सोलहवें श्लोक में भगवान्‌ ‘लोके’ पद से ‘लौकिक तत्त्व’ का वर्णन करते हैं ।
क्षर (जगत्‌) तथा अक्षर (जीव)-दोनों लौकिक हैं, और भगवान्‌ इस दोनोंसे विलक्षण अर्थात्‌ अलौकिक हैं-‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः’ (गीता १५ । १७) । कर्मयोग और ज्ञानयोग-ये दो योगमार्ग भी लौकि हैं-‘लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा......’ (गीता ३ । ३) । क्षरको लेकर कर्मयोग और अक्षरको लेकर ज्ञानयोग चलता है; परन्तु भक्तियोग अलौकिक है, जो भगवान्‌ को लेकर चलता है । सातवें अध्यायमें वर्णित अपरा प्रकृति को यहाँ ‘क्षर’ नाम से और परा प्रकृति को यहाँ ‘अक्षर’ नाम से कह गया है ।



ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । '
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥१५॥ 

मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ तथा मुझ से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषों का नाश) होता है। सम्पूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। वेदों के तत्त्व का निर्णय करने वाला और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ। 

व्याख्या-
पिछले तीन श्लोकों में भगवान ने प्रभाव और क्रियारूप से अपनी विभूतियों का वर्णन किया, अब प्रस्तुत श्लोक में स्वयं अपना वर्णन करते हैं। तात्पर्य है कि इस श्लोक में स्वयं भगवान का वर्णन है, आदित्यगत, चन्द्रगत, अग्निगत अथवा वैश्वानरगत भगवान का वर्णन नहीं। मूल में एक ही तत्त्व है, केवल वर्णन में भिन्नता है। 
पहले ‘ममैवांशो जीवलोके’पदों से यह सिद्ध हुआ कि भगवान अपने हैं और यहाँ ‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ पदों से यह सिद्ध होता है कि भगवान अपने में हैं। भगवान को अपना स्वीकार करने से उनमें स्वाभाविक प्रेम होगा और अपने में स्वीकार करने से उन्हें पाने के लये दूसरी जगह जाने की जरूरत नहीं रहेगी। सबके हृदय में रहने के कारण भगवान प्राणिमात्र को नित्यप्राप्त हैं; अतः किसी भी साधक को भगवान की प्राप्ति से निराश नहीं होना चाहिये। 
भगवान कहते हैं कि वेद अनेक है, पर उन सब में जानने योग्य एक मैं ही हूँ और उन सबको जानने वाला भी मैं ही हूँ। तात्पर्य है कि सब कुछ मैं ही हूँ- ‘वासुदेवः सर्वम्।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः* पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।१४।।

प्राणियों के शरीर में रहनेवाला मैं प्राण-अपान से युक्त वैश्वानर (जठराग्नि) होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।

व्याख्या—

पृथ्वी में प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करना, चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण वनस्पतियों का पोषण करना, फिर उनको खानेवाले प्राणियों के भीतर जठराग्नि होकर खाये हुए अन्न को पचाना आदि सम्पूर्ण कार्य भगवान्‌ की ही शक्ति से होते हैं । परन्तु मनुष्य व्यर्थ में ही अभिमान कर लेता है; जैसे बैलगाड़ी के नीचे छाया में चलने वाला कुत्ता समझता है कि बैलगाड़ी मैं चलाता हूँ !

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* गीता में सब जगह प्राण और अपान—इन दोनों का ही वर्णन हुआ है ; जैसे—
(१).अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे | प्राणाऽपानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा: ||....(४.२९)
(२).प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यांतरचारिणौ ||...(५.२७)

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१२ )


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक: ॥१३॥

मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ और (मैं ही) रसस्वरूप चन्द्रमा होकर समस्त ओषधियों (वनस्पतियों)-को पुष्ट करता हूँ।

व्याख्या-
पृथ्वी, चन्द्रमा आदि सब भगवान की अपरा प्रकृति है। अतः इसके उत्पादक, धारक, पालक, संरक्षक, प्रकाशक आदि सब कुछ भगवान ही हैं। भगवान की शक्ति होने से अपरा प्रकृति भगवान से अभिन्न है।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.११)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥१२॥

सूर्य को प्राप्त हुआ जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है और जो तेज चन्द्रमा में है तथा जो तेज अग्नि में है, उस तेज को मेरा ही जान।

व्याख्या-
प्रभाव और महत्व की तरफ आकर्षित होना जीव का स्वभाव है। प्राकृत पदार्थों के सम्बन्ध से जीव प्राकृत पदार्थों के प्रभाव और महत्व से प्रभावित हो जाता है। अतः हीवपर पड़े प्राकृत पदार्थों के प्रभाव और महत्व को हटाने के लिये भगवान का यह रहस्य प्रकट करते हैं कि उन पदार्थों में जो प्रभाव और महत्व देखने में आता है, वह वस्तुतः (मूल में) मेरा ही है, उनका नहीं। सर्वोपरि प्रभावशाली तथा महत्वशाली मैं ही हूँ। मेरे ही प्रकाश से सब प्रकाशित हो रहे हैं।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
 
   यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । 
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतस: ॥११॥  
 
यत्न करने वाले योगी लोग अपने-आप में स्थित इस परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं। परन्तु जिन्होंने अपना अन्तःकरण शुद्ध नहीं किया, ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्त्व का अनुभव नहीं करते।  
 
व्याख्या- 
सदा न भोग साथ रहता है, न संग्रह साथ रहता है- यह विवेक मनुष्य में स्वतः है। परन्तु जो मनुष्य शास्त्र पढ़ते हुए, सत्संग करते हुए, साधन करते हुए भी अपने विवेक की तरफ ध्यान नहीं देते, भोग और संग्रह से अलगाव का अनुभव नहीं करते, वे मनुष्य ‘अकृतात्मा’ हैं। ऐसे मनुष्यों को अठारहवें अध्याय के सालहवें श्लोक में भगवान ने ‘अकृतबुद्धि’ और ‘दुर्मति’ कहा है। यद्यपि परमात्मप्राप्ति कठिन नहीं है, तथापि भीतर में राग, आसक्ति, सुखबुद्धि पड़ी रहने से साधन करते हुए भ्ज्ञी परमात्मा को नहीं जानते। कारण कि भोग तथा संग्रह में रुचि रखने वाले मनुष्य का विवेक स्थिर नहीं रहता।  
पूर्वश्लोक में जिन्हें ‘विमूढाः’ कहा गया है, उन्हीं को यहाँ ‘अचेतसः कहा गया है। गुणों से मोहित होने के कारण वे न तो विषयेां के विभाग को जानते हैं और न स्वयं के विभाग को ही जानते हैं अर्थात भेागों का संयोग-वियोग अलग है और स्वयं अलग है-यह नहीं जानते।  
सातवें से ग्यारहवें श्लोक तक के इस प्रकरण में भगवान यह बताना चाहते हैं कि मेरा अंश जीवात्मा सर्वथा अलग है और जिस सामग्री (शरीरादि पदार्थ और क्रिया)- को वह भूल से अपनी मानता है, वह सर्वथा अलग है। सूर्य और अमावस्या की रात्रि की तरह दोनों का विभाग ही अलग-अलग है। उनका परस्पर संयोग होना सम्भव ही नहीं है। जो उपर्युक्त जड़ और चेतन-दोनों के विभाग को सर्वथा अलग-अलग देखता है, वही ज्ञानी और योगी है। परन्तु जो दोनों को मिला हुआ देखता है, वह अज्ञानी और भोगी है।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुष: ॥१०॥

शरीर को छोड़कर जाते हुए या दूसरे शरीर में स्थित हुए अथवा विषयों को भोगते हुए भी गुणों से युक्त जीवात्मा के स्वरूप को मूढ़ मनुष्य नहीं जानते, ज्ञानरूपी नेत्रों वाले (ज्ञानी मनुष्य ही) जानते हैं।

व्याख्या-
शरीर को छोड़कर जाना, दूसरे शरीर में स्थित होना और विषयों को भोगना-तीनों क्रियाएँ अलग-अलग हैं, पर उनमें रहने वाला जीवात्म एक ही है-यह बात प्रत्यक्ष होते हुए भी अविवेकी मनुष्य इसको नहीं जानता अर्थात अपने अनुभव को महत्व नहीं देता। कारण कि तीनों गुणों से मोहित होने के कारण वह बेहोश-सा रहता है।
 भगवान ने पिछले श्लोक में पाँच क्रियाएँ बतायी थीं-सुनना, देखना, स्पर्श करना, स्वाद लेना तथा सूँघना, और इस श्लोक में तीन क्रियाएँ बतायी हैं- शरीर को छोड़कर जाना, दूसरे शरीर में स्थित होना तथा विषयों को भोगना। इन आठों में कोई भी क्रिया निरन्तर नहीं रहती, पर स्वयं निरन्तर रहता है। क्रियाएं तो आठ हैं, पर इन सब में स्वयं एक ही रहता है। इसलिये इनके भाव और अभाव का, आरम्भ और अन्त का ज्ञान सब को होता है। जिसे आरम्भ और अन्त का ज्ञान होता है, वह स्वयं नित्य होता है- यह नियम है।
अनेक अवस्थाओं में स्वयं एक रहता है और एक रहते हुए अनेक अवस्थाओं में जाता है। यदि स्वयं एक न रहता तो सब अवस्थाओं का अलग-अलग अनुभव कौन करता? परन्तु ऐसी बात प्रत्यक्ष होते हुए भी विमूढ़ मनुष्य इस तरफ नहीं देखते, प्रत्युत ज्ञानरूपी नेत्रों वाले योग मनुष्य ही देखते हैं। 

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
 
  श्रोत्रं चक्षु: स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । 
 अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥९॥  
 
यह जीवात्मा मन का आश्रय लेकर ही श्रोत्र और नेत्र तथा त्वचा, रसना और घ्राण-इन पाँचों इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता है।  
 
व्याख्या- 
जैसे कोई व्यापारी किसी कारणवश एक जगह से दुकान उठाकर दूसरी जगह लगाता है, ऐसे ही जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है और जैसे पहले शरीर में जाने पर (वही स्वभाव होने से) विषयों का सेवन करने लगता है। इस प्रकार जीवात्मा बार-बार विषयों में आसक्ति के कारण ऊँच-नीच योनियों में भटकता रहता है। कारण कि विषयों का सेवन करने से स्वयं की गौणता और शरीर-संसार की मुख्यता हो जाती है। इसलिये स्वयं भी जगद्रूप हो जाता है। 

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
 शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।८।।

जैसे वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ग्रहण करके ले जाती है, ऐसे ही शरीरादि का स्वामी बना हुआ जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ता है, वहाँ से मनसहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें चला जाता है ।

व्याख्या—
वास्तव में शुद्ध चेतन (आत्मा)-का किसी शरीर को प्राप्त करना उसका त्याग करके दूसरे शरीर में जाना हो नहीं सकता; क्योंकि आत्मा अचल और समानरूप से सर्वत्र व्याप्त है (गीता २ । १७,२४) । शरीरों का ग्रहण और त्याग परिच्छिन्न (एकदेशीय) तत्त्व के द्वारा ही होना सम्भव है, जबकि आत्मा कभी भी देश-कालादि में परिच्छिन्न नहीं हो सकती । परन्तु जब यह आत्मा प्रकृतिके कार्य शरीरसे तदात्म्य कर लेती है अर्थात्‌ शरीर को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान लेती है, तब सूक्ष्म शरीर के आने-जाने को उसका आना-जाना कहा जाता है ।
वायु का दृष्टान्त देने का तात्पर्य है कि जीव वायु की तरह निर्लिप्त रहता है । शरीर से लिप्त होने पर भी वास्तव में इसकी निर्लिप्तता ज्यों-की-त्यों रहती है-‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।७।।

इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है (अपना मान लेता है)।

व्याख्या—
प्रस्तुत श्लोकमें ‘ममैवांशः’ पद में ‘एव’ कहनेका तात्पर्य है कि जीव केवल भगवान्‌ का ही अंश है, इसमें प्रकृतिका अंश किंचिन्मात्र भी नहीं है । जैसे शरीरमें माता और पिता- दोनोंके अंशका मिश्रण होता है, ऐसे जीवमें भगवान्‌ और प्रकृति के अंशका मिश्रण (संयोग) नहीं है, प्रत्युत यह केवल भगवान्‌ का ही अंश है । अतः इसका सम्बन्ध केवल भगवान्‌ का ही अंश है । अतः इसका सम्बन्ध केवल भगवान्‌ के साथ है, प्रकृतिके साथ नहीं । प्रकृतिके साथ सम्बन्ध तो यह खुद जोड़ता है ।
प्रकृतिके कार्य स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही अनर्थका कारण है । जीव शरीरको अपनी तरफ खींचता है (कर्षति) अर्थात्‌ उसे अपना मानता है, पर जो वास्तवमें अपना है, उस परमात्माको अपना मानता ही नहीं ! यही जीवकी मूल भूल है ।
हमारा सम्बन्ध परमात्मा के साथ है-‘ममैवांशो जीवलोके’, इसलिये हम परमात्मा में ही स्थित हैं । परन्तु शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिका सम्बन्ध अपरा प्रकृति के साथ है, इसलिये वे प्रकृति में ही स्थित हैं-‘प्रकृतिस्थानि’ । शरीर के साथ हमारा मिलन कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं और परमात्मा से अलग हम कभी हुए नहीं, होंगे ही नहीं, हो सकते ही नहीं । हमसे दूर-से-दूर कोई वस्तु है तो वह शरीर है और समीप-से-समीप कोई वस्तु है तो वह परमात्मा है । परन्तु शरीर को मैं, मेरा और मेरे लिये मानने के कारण मनुष्यको उलटा दीखता है अर्थात्‌ शरीर तो समीप दीखता है, परमात्मा दूर ! शरीर तो प्राप्त दीखता है, परमात्मा अप्राप्त !

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
 
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥६॥ 
उस परमपद को न सूर्य, न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर संसार में नहीं आते, वही मेरा परम धाम है। 

व्याख्या-
यह छठा श्लोक पाँचवें और सातवें श्लोकों को जोड़ने वाला है। इन श्लोकों में भगवान यह बताते हैं कि वह अविनाशी पद मेरा ही धाम है, जो मुझ से अभिन्न है और जीव भी मेरा सनातमन अंश होने के कारण मुझ से अभिन्न है। अतः भगवान का जो धाम है, वहीं हमारा धाम है। इसी कारण उस धाम की प्राप्ति होने पर फिर लौटकर संसार में नहीं आना पड़ता। जब तक हम अपने उस धाम में नहीं जायँगे, तब तक हम मुसाफिर की तरह अनेक योनियों में तथा अनेक लोकों में घूमते ही रहेंगे, कहीं भी ठहर नहीं सकेंगे। यदि हम ऊँचे-से-ऊँचे ब्रह्मलोक में भी चले जायँ तो वहाँ से भी लौटकर आना पड़ेगा[1]। कारण कि यह सम्पूर्ण संसार (मात्र ब्रह्माण्ड) परदेश है, स्वदेश नहीं, यह पराया घर है, अपना घर नहीं। विभिन्न योनियों और लोकों में हमारा भटकना तभी बन्द होगा, जब हम अपने असली घर में पहुँच जायँगे। 
परमपद को न तो आधिभौतिक प्रकाश (सूर्य, चन्द्र आदि) प्रकाशित कर सकता है, न आधिदैविक प्रकाश (नेत्र, मन, बुद्धि, वाणी आदि) ही प्रकाशित कर सकता है। कारण कि यह स्वयं प्रकाश है। इसमें प्रकाश्य-प्रकाशक का भेद नहीं है।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।५।।

जो मान और मोह से रहित हो गये हैं, जिन्होंने आसक्ति से होनेवाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्यनिरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं, जो (अपनी दृष्टिसे) सम्पूर्ण कामनाओंसे रहित हो गये हैं? जो सुखदुःखरूप द्वन्द्वोंसे मुक्त हो गये हैं, ऐसे (ऊँची स्थितिवाले) मोहरहित साधक भक्त उस अविनाशी परमपद (परमात्मा) को प्राप्त होते हैं ।

व्याख्या—
जिस परमात्माको इसी अध्यायके प्रथम श्लोकमें ‘ऊर्ध्वमूलम्‌’ पदसे कहा गया तथा जिस परमपदरूपी परमात्माकी खोज करनेके लिये चौथे श्लोकमें प्रेरणा की गयी और आगे छठे श्लोकमें जिसकी महिमाका वर्णन किया गया है, उसी परमत्मस्वरूप परमपदको यहाँ ‘अव्ययम्‌ पदम्‌’ कहा गया है । जो ऊँची स्थितिके साधक भक्त मान, मोह, ममता आदि दोषोंसे सर्वथा रहित हो जाते हैं, वे उस अविनाशी परमपदको अवश्य प्राप्त होते हैं, जिसे प्राप्त होनेपर जीव लौटकर नाशवान्‌ संसारमें नहीं आता ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।३।। 
ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।४।।

इस संसारवृक्ष का जैसा रूप देखने में आता है, वैसा यहाँ (विचार करनेपर) मिलता नहीं क्योंकि इसका न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति ही है । इसलिये इस दृढ़ मूलों वाले संसाररूप अश्वत्थवृक्ष को दृढ़ असङ्गतारूप शस्त्र के द्वारा काटकर –
उसके बाद उस परमपद (परमात्मा) की खोज करनी चाहिये जिसको प्राप्त होने पर मनुष्य फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिससे अनादिकाल से चली आनेवाली यह सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई है, उस आदिपुरुष परमात्मा के ही मैं शरण हूँ।

व्याख्या—

भगवान्‌ आदिमें भी हैं, अन्तमें भी हैं और मध्यमें भी हैं (गीता १० । २०, ३२); परन्तु संसार न आदिमें है, न अन्तमें है और न मध्यमें ही है अर्थात्‌ संसारकी सत्ता ही नहीं है-‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) । अतः एक भगवान्‌के सिवाय कुछ भी नहीं है ।
इस श्लोकमें आये ‘छित्त्वा’ पदका तात्पर्य काटना अथवा नाश (अभाव) करना नहीं है, प्रत्युत सम्बन्ध-विच्छेद करना है । कारण कि यह संसार-वृक्ष भगवान्‌की अपरा प्रकृति होनेसे अव्यय है ।
संसार रागके कारण ही दीखता है । जिस वस्तुमें राग होता है, उसी वस्तुकी स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता दीखती है । यदि राग न रहे तो नेत्रोंसे संसारकी सत्ता दीखते हुए भी महत्ता नहीं रहती । अतः ‘असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा’ पदोंका तात्पर्य है- संसारके रागको सर्वथा मिटा देना अर्थात्‌ अपने अन्तःकरणमें एक परमात्माके सिवाय अन्य किसीसे सम्बन्ध न मानना, सृष्टिमात्रकी किसी भी वस्तुको अपनी और अपने लिये न मानना । वास्तवमें संसारकी सत्ता बन्धनकारक नहीं है, प्रत्युत उससे रागपूर्वक माना हुआ सम्बन्ध ही बन्धनकारक है । सत्ता बाधक नहीं है, महत्ता बाधक है । हम जिस वस्तुको महत्ता देते हैं, वही बाँधनेवाली हो जाती है । महत्ता हमारी दी हुई है, उसमें है नहीं । संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेपर संसारका संसाररूपसे अभाव हो जाता है और वह भगवद्‌रूपसे दीखने लगता है-‘वासुदेवः सर्वम्‌’ ।
संसार नित्यनिवृत्त है, इसलिये उसका त्याग होता है-‘असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा’ और परमात्मा नित्यप्राप्त हैं, इसलिये उनकी खोज होती है-‘ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्‌’ । निर्माण और खोज-दोनोंमें बहुत अन्तर है । निर्माण उस वस्तुका होता है, जिसका पहलेसे अभाव है और खोज उस वस्तुकी होती है, जो पहलेसे ही विद्यमान है । परमात्मा नित्यप्राप्त और स्वतःसिद्ध हैं, इसलिये उनकी खोज होती है, निर्माण नहीं होता । जब साधक परमात्माकी सत्ताको स्वीकार करता है, तब खोज होती है । खोज करनेके दो प्रकार हैं-एक तो कण्ठी कहीं रखकर भूल जाय तो हम जगह-जगह उसकी खोज करते हैं और दूसरा, कण्ठी गलेमें ही हो पर न दीखनेसे बहम हो जाय कि कण्ठी खो गयी तो हम उसकी खोज करते हैं । परमात्मा गलेमें पड़ी कण्ठीकी खोजके समान हैं । तात्पर्य है कि वास्तवमें परमात्मा खोये नहीं हैं, पर संसारकी ओर दृष्टि (सम्मुखता) रहनेसे हमारी दृष्टि परमात्माकी ओर नहीं जाती । उधर दृष्टि न जाना ही उसका खोना है ।
परमात्मा कभी अप्राप्त हुए नहीं, अप्राप्त हैं नहीं, अप्राप्त हो सकते ही नहीं । उनकी अप्राप्ति नहीं हुई है, प्रत्युत विस्मृति हुई है, उनसे विमुखता हुई है, उनकी अप्राप्तिका वहम हुआ है । परमात्माकी खोज करनेका उपाय है-अप्राप्त संसारका त्याग करना अर्थात्‌ उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना, उसे अस्वीकार करना । अतः संसारके त्यागमें ही परमात्माकी खोज निहित है-‘अतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः’ (श्रीमद्भा० १० । १४ । २८) ।
संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर साधक मुक्त हो जाता है । मुक्त होने पर संसार की कामना तो मिट जाती है, पर प्रेम की भूख नहीं मिटती । ब्रह्मसूत्र में आया है-‘मुक्तोपसृप्यव्यपदेशात्‌ (१।३।२) ‘उस प्रेमस्वरूप भगवान्‌को मुक्त पुरुषों के लिये भी प्राप्तव्य बताया गया है’ । तात्पर्य है कि स्वरूप जिसका अंश है, उस अंशी (परमात्मा)-के प्रेमकी प्राप्तिमें ही मानव-जीवनकी पूर्णता है । अंश (स्वरूप)-में निजानन्द (अखण्ड आनन्द) है और अंशीमें परमानन्द (अनन्त आनन्द) है । जो मुक्ति में नहीं अटकता, उसमें सन्तोष नहीं करता, उसे प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम (अनन्त आनन्द)-की प्राप्ति होती है-‘मद्भक्तिं लभते पराम्‌’ (गीता १८ । ५४) । इसलिये प्रस्तुत श्लोकमें संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करने अर्थात्‌ मुक्त होनेके बाद परमात्मा की खोज करके उनकी शरण ग्रहण करने की बात कही गयी है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।२।।

उस संसारवृक्षकी गुणों (सत्त्व, रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई तथा विषयरूप कोंपलोंवाली शाखाएँ नीचे, मध्य में और ऊपर सब जगह फैली हुई हैं । मनुष्यलोक में कर्मों के अनुसार बाँधनेवाले मूल भी नीचे और ऊपर (सभी लोकों में) व्याप्त हो रहे हैं।

व्याख्या—

प्रथम श्लोक में आये ‘ऊर्ध्वमूलम्‌’ पद का तात्पर्य है-परमात्मा, जो संसार के रचयिता तथा उसके मूल आधार हैं; और यहाँ ‘मूलानि’ पदका तात्पर्य है-तादात्म्य, ममता और कामनारूप मूल, जो संसारमें मनुष्य को बाँधते हैं । साधक को इन मूलों का तो छेदन करना है और ऊर्ध्वमूल परमात्मा का आश्रय लेना है ।

ॐ तत्सत् !

Friday 12 May 2017

गीता प्रबोधनी - पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

श्री भगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।१।।

श्रीभगवान् बोले –

ऊपर की ओर मूलवाले तथा नीचे की ओर शाखावाले जिस संसाररूप अश्वत्थवृक्ष को अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसारवृक्ष को जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदों को जाननेवाला है ।

व्याख्या—

परिवर्तनशील होने पर भी संसारको ‘अव्यय’ कहने का तात्पर्य है कि संसार में निरन्तर परिवर्तन होने पर भी कुछ व्यय (खर्चा) नहीं होता अर्थात्‌ अन्त नहीं होता । जैसे समुद्रके ऊपर कितनी लहरें उठती दीखती हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर उसका जल उतना ही रहता है, घटता-बढ़ता नहीं । ऐसे ही निरन्तर परिवर्तन दीखने पर भी संसार अव्यय ही रहता है ।

परिवर्तनशील संसार भी परमात्मा की शक्ति ‘अपरा प्रकृति’ का कार्य होने से परमात्मा का ही स्वरूप है-‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९ । १९) । परिवर्तनरूप अपरा प्रकृति भी परमात्मा का स्वरूप है । यह संसार उस परमात्मा की ही लहरें हैं । जैसे ऊपरसे लहरें दीखनेपर भी समुद्रके भीतर कोई लहर नहीं है, भीतर से समुद्र सम-शान्त है, ऐसे ही ऊपर से संसार परिवर्तनशील दीखते हुए भी भीतर से एक सम, शान्त परमात्मातत्त्व है (गीता १३ । २७) । तात्पर्य यह हुआ कि संसार संसाररूप से अव्यय नहीं है, प्रत्युत भगवद्‌रूप से अव्यय है ।

ॐ तत्सत् !



गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.२३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
  
  ब्रह्राणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । 
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥२७॥ 
 
क्योंकि ब्रह्म का और अविनाशी तथा शाश्वत धर्म का और ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं ही हूँ। 
 
व्याख्या- 
‘बह्म तथा अविनाशी अमृत का आश्रय मैं हूँ’- यह निर्गुण-निराकार की तथा ‘ज्ञानयोग’ की बात है। ‘शाश्वत धर्म का आश्रय मैं हू’- यह सगुण-साकार की तथा ‘कर्मयोग’ की बात है। ‘ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं हूँ’- यह सगुण-निराकार की तथा ‘ध्यानयोग’ की बात है। तात्पर्य यह हुआ कि मेरी (सगुण-साकार की) उपासना करने से, मेरा आश्रय लेने से भक्त को ज्ञानयोग, कर्मयोग और ध्यानयोग-तीनों की सिद्धि हो जाती है। कारण कि समग्र भगवान के एक अंश में सब कुछ विद्यमान है। भगवान ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग आदि सबकी प्रतिष्ठा (आश्रय) हैं। 
 
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु 
ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः।।१४।। 
 
ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.२२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
  
  मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्राभूयाय कल्पते ॥२६॥  
 
और जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है।  
 
व्याख्या- 
भक्ति से साधक जो भी चाहता है, उसी की प्राप्ति हो जाती है। जो साधक मुख्यरूप से ब्रह्म की प्राप्ति अर्थात् मुक्ति, तत्त्वज्ञान चाहता है, उसे भक्ति से ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है; क्योंकि ब्रह्म की प्रतिष्ठा भगवान ही हैं। ब्रह्म समग्र भगवान का ही एक अंग (स्वरूप) है। तेरहवें अध्याय के दसवें श्लोक में भी भक्ति को ज्ञानप्राप्ति का साधन बताया गया है।  श्रीमद्भागवत महापुराण में सगुण की उपासना को निर्गुण (सत्वादि गुणों से अतीत) बताया गया है; जैसे-‘मन्निकेतं तु निर्गुणम्’‘मत्सेवायां तु निर्गुणाआदि। इसलिये सगुणोपासक भक्त तीनों गुणों से अतीत हो जाता है।  सगुण भगवान भी गुणों के आश्रित नहीं हैं, प्रत्युत गुण उनके आश्रित हैं। जो सत्व-रज-तम गुणों के वश में है, उसका नाम ‘सगुण’ नहीं है, प्रत्युत जिसमें असीम ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, औदार्य आदि अनन्त दिव्य गुण नित्य विद्यमान रहते हैं, उसका नाम ‘सगुण’ है। भगवान के द्वारा सात्विक, राजस अथवा मासम क्रियाएँ तो हो सकती है, पर वे उन गुणों के वश में नहीं होते। भगवान की तरफ चलने से भक्त स्वतः और सुगमता से गुणातीत हो जाता है। इतना ही नहीं, उसे भगवान के समग्र रूप का भी ज्ञान हो जाता है और प्रेम भी प्राप्त हो जाता है।
 
ॐ तत्सत् !

Thursday 11 May 2017

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.२१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
  
समदु:खसुख: स्वस्थ: समलोष्टाश्मकाञ्चन: । 
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति: ॥२४॥ 
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो: । 
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते ॥२५॥  
 
जो धीर मनुष्य दुःख-सुख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में सम रहता है; जो प्रिय-अप्रिय में सम रहता है; जो अपनी निन्दा-स्तुति में सम रहता है; जो मान-अपमान में सम रहता है; जो मित्र- शत्रु के पक्ष्ज्ञ में सम रहता है और जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।  
 
व्याख्या- 
यहाँ भगवान ने सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, निन्दा-स्तुति और मान-अपमान-ये आठ परस्पर विरुद्ध नाम लिये हैं, जिनमें साधारण मनुष्यों की तो विषमता हो ही जाती है। इन आठ कठिन स्थलों में जिसकी समता हो रखना सुगम हो जाता है। गुणातीत महापुरुष की इन आठों स्थलों में स्वतः स्वाभाविक समता रहती है।
 
ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.२०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
  
  उदासीनवदासीनो गुणैर्या न विचाल्यते । 
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेग्ङते ॥२३॥  
 
जो उदासीन की तरह स्थित है और जो गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही गुणों में बरत रहे हैं- इस भाव से जो (अपने स्वरूप में ही) स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता।  
 
व्याख्या- 
तीन विभाग हैं-‘करना’, ‘होना’ और ‘है’। ‘करना’ होने में और ‘होना’ ‘है’ में बदल जाय तो अहंकार सर्वथा नष्ट हो जाता है। जिसके अन्तःकरण में क्रिया और पदार्थ का महत्व है, ऐसा संसारी मनुष्य मानता है कि मैं क्रिया कर रहा हूँ-‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’[1]। जो कर्ता बनता है, उसे भोक्ता बनना ही पड़ता है। जिसमें विवेक की प्रधानता है, ऐसा साधक तो अनुभव करता है कि क्रिया हो रही है-गुणा गुणेषु वर्तन्ते’[2]अर्थात मैं कुछ भी नहीं करता हूँ- ‘नैव किन्चित्करोमीति’[3]। परन्तु जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है, ऐसा गुणातीत महापुरुष केवल सत्ता तथा ज्ञप्तिमात्र (‘है’) का ही अनुभव करता है- ‘योऽवतिष्ठति नेगते’। वह चिन्मय सत्ता सम्पूर्ण क्रियाओं में ज्यों-की-त्यों परिपूर्ण है। क्रियाओं का तो अन्त हो जाता है, पर चिन्मय सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। महापुरुष की दृष्टि क्रियाओं पर न रहकर स्वतः एकमात्र चिन्मय सत्ता (‘है’)- पर ही रहती है। 

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.१९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
  
अर्जुन उवाच 
कैर्लिग्ङैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो । 
किमाचार: कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥२१॥  
 
श्रीभगवानुवाच- 
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव । 
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥२२॥  
 
अर्जुन बोले- 
हे प्रभो! इन तीनों गुणों से अतीत हुआ मनुष्य किन लक्षणों से युक्त होता है? उसके आचरण कैसे होते हैं? और इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है। 
 
श्रीभगवान बोले 
हे पाण्डव! प्रकाश और प्रवृत्ति तथा मोह- ये सभी अच्छी तरह से प्रवृत्त हो जायँ तो भी गुणातीत मनुष्य इनसे द्वेष नहीं करता और ये सभी निवृत्त हो जायँ तो इनकी इच्छा नहीं करता।  
 
व्याख्या- 
वृत्तियाँ एक समान किसी की भी नहीं रहतीं। तीनों गुणों की वृत्तियाँ तो गुणातीत महापुरुष के अन्तःकरण में भी होती हैं, पर उसका उन वृत्तियों से राग-द्वेष नहीं होता। वृत्तियाँ अपने-आप आती और चली जाती हैं। गुणातीत महापुरुष की दृष्टि उधर जाती ही नहीं; क्योंकि उसकी दृष्टि में एक परमात्मतत्त्व के सिवाय और कुछ रहता ही नहीं। गुणातीत महापुरुष में ‘अनुकूलता बनी रहे, प्रतिकूलता मिट जाय’- ऐसी इच्छा नहीं होती। निर्विकारता का अनुभव होने पर उसे अनुकूलता- प्रतिकूलता का ज्ञान तो होता है, पर स्वयं पर उनका असर नहीं पड़ता। अन्तःकरण में वृत्तियाँ बदलती हैं, पर स्वयं उनसे निर्लिप्त रहता है। साधक पर भी वृत्तियों का असर नहीं पड़ना चाहिये; क्योंकि गुणातीत मनुष्य साधक का आदर्श होता है, साधक उसका अनुयायी होता है।  साधकमात्र के लिये यह आवश्यक है कि वह शरीर का धर्म अपने में न माने। वृत्तियाँ अन्तःकरण में हैं, अपने में नहीं। अतः साधक वृत्तियों को न तो अच्छा माने, न बुरा माने और न अपने में ही माने। कारण कि वृत्तियाँ तो आने-जाने वाली हैं, पर स्वयं निरन्तर रहने वाला है। वृत्तियाँ हम में नहीं होतीं, प्रत्युत अन्तःकरण में ही होती हैं। यदि वृत्तियाँ हम में होतीं तो जब तक हम रहते, तब तक वृत्तियाँ भी रहतीं। परन्तु यह सबका अनुभव है कि हम तो निरन्तर रहते हैं, पर वृत्तियाँ आती-जाती रहती हैं। वृत्तियों का सम्बन्ध प्रकृति के साथ है और हमारा (स्वयं का) सम्बन्ध परमात्मा के साथ है। इसलिये वृत्तियों के परिवर्तन का अनुभव करने वाला स्वयं एक ही रहता है। 

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.१८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् । 
जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नते ॥२०॥ 
 
देहधारी (विवेकी मनुष्य) देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करने जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था रूप दुःखों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है। 
 
व्याख्या- 
मनुष्य मात्र के भीतर यह भाव रहता है कि मैं बना रहूँ, कभी मरूँ नहीं। वह अमर रहना चाहता है। अमरता की इस इच्छा से सिद्ध होता है कि वास्तव में वह अमर है। यदि वह अमर न होता तो उसमें अमरता की इच्छा भी नहीं होती। उदाहरणार्थ, हमें भूख और प्यास लगती है तो इससे सिद्ध होता है कि ऐसी वस्तु (अन्न और जल) है, जिससे भूख और प्यास मिट जाती है। यदि अन्न-जल न होते तो भूख-प्यास भी नहीं लगती। अतः अमरता स्वतःसिद्ध है[1]। परन्तु जब मनुष्य अपने विवेक को महत्व न देकर शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है अर्थात ‘मैं शरीर हूँ’ ऐसा मान लेता है, तब उसमें मृत्यु का भय और अमरता की इच्छा पैदा हो जाती है। जब वह अपने विवेक को महत्व देता है कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ; शरीर तो निरन्तर मृत्यु में रहता है और मैं स्वयं निरन्तर अमरता में रहता हूँ’ तब उसे अपनी स्वतः सिद्ध अमरता का अनुभव हो जाता है। अतः साधक को चाहिये कि वह जन्म मृत्यु, वृद्धावस्था आदि शरीर के विकारों को मुख्यता न देकर अपनी चिन्मय सत्ता (होने पन)- को ही मुख्यता दे। 

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.१७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा दृष्टानुपश्यति । 

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मदूभावं सोऽधिगच्छति ॥१९॥ 

जब विवेकी (विचार-कुशल) मनुष्य तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और अपने को गुणों से पर अनुभव करता है, तब वह मेरे सत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। 

व्याख्या- 
सम्पूर्ण क्रियाओं के होने में गुण ही कारण हैं, अन्य कोई कारण नहीं है। विवेकशील साधक जिससे गुण प्रकाशित होते हैं, उस प्रकाशक में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव करता है अर्थात अपने को गुणों (क्रियाओं और पदार्थों)- से असंग अनुभव करता है। गुणों से असंग अनुभव करने पर वह योगारूढ़ हो जाता है। योगारूढ़ होने से शान्ति की प्राप्ति होती है और उस शान्ति में न अटकने से ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। 

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.१६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सत्त्वातसंजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च । 

प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥१७॥ 
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा: । 
जघन्यगुणवृत्तिस्थाअधो गच्छन्ति तामसा: ॥१८॥

सत्वगुण से ज्ञान और रजोगुण से लोभ (आदि) ही उत्पन्न होते हैं। तमोगुण से प्रमाद, मोह एवं अज्ञान भी उत्पन्न होते हैं। 
 सत्वगुण में स्थित मनुष्य ऊध्र्वलोकों में जाते हैं, रजोगुण में स्थित मनुष्य मृत्युलोक में जन्म लेते हैं और निन्दनीय तमोगुण की वृत्ति में स्थित तामस मनुष्य अधोगति में जाते हैं।

 व्याख्या- ज्ञान (विवेक) सत्वगुण से प्रकट होता है और संग न करने पर बढ़ते-बढ़ते तत्त्वज्ञान में परिणत हो जाता है। परन्तु रजोगुण-तमोगुण से होने वाले लोभ, प्रमाद, मोह, अज्ञान बढ़ते है। तो कोई नुकसान बाकी नहीं रहता, कोई दुःख बाकी नहीं रहता, कोई मूढ़योनि बाकी नहीं रहती, कोई नरक बाकी नहीं रहता। 

 सात्विक, राजस अथवा तामस मनुष्य की गति तो अन्तिम चिन्तन के अनुसार होगी, पर सुख-दुःख का भोग उनके कर्मों के अनुसार ही होगा। उदाहरणार्थ, किसी के कर्म तो अच्छे हैं, पर अन्तिम चिन्तन पशु का हो गया तो अन्तिम चिन्तन के अनुसार वह पशु बन जायगा, परन्तु उस पशुयोनि में भी उसे कर्मों के अनुसार बहुत सुख-आराम मिलेगा। इसी प्रकार किसी के कर्म तो बुरे हैं, पर अन्तिम चिन्तन के अनुसार वह मनुष्य बन गया तो उस मनुष्य योनि में भी उसे कर्मों के अनुसार दुःख, शोक, रोग आदि मिलेंगे। आधुनिक वेदान्त में आया है कि सत्वगुण से पुण्य तथा रजोगुण से पाप उत्पन्न होता है; किन्तु तमोगुण से आयु वृथा होती है- 
सात्विकैः पुण्यनिष्पत्तिः पापोत्पत्तिश्च राजसैः। 
तामसैर्नोभयं किन्तु वृथायुःक्षपणं भवेत्।। 
परन्तु यह बात गीता से विरुद्ध पड़ती है। भगवान यहाँ कहते हैं कि तमोगुण से मनुष्य को अधोगति की प्राप्ति होती है- ‘अधो गच्छन्ति तामसाः’। पहले भी भगवान ने कहा है- ‘तथा प्रजीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते’। 

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.१५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते।।१५।।
  कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्विकं निर्मलं फलम् । 

रजसस्तुफलं दु:खमज्ञानं तमस:फलम् ॥१६॥   

रजोगुण के बढ़नेपर मरने वाला प्राणी मनुष्ययोनि में जन्म लेता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरने वाला मूढ़योनियों में जन्म लेता है।

विवेकी पुरुषों ने शुभ कर्म का तो सात्विक निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दुःख कहा है और तामस कर्म का फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है।

  व्याख्या—

जिसने जीवनभर अच्छे कर्म किये हैं, जिसके अच्छे भाव रहे हैं, वह यदि अन्तकाल में रजोगुण के बढ़ने पर मर जाता है तो मनुष्ययोनि में जन्म लेने पर भी उसके आचरण, भाव अच्छे रहेंगे । इसी प्रकार अच्छे कर्म करनेवाला यदि अन्तकाल में तमोगुण के बढ़ने पर मर जाता है तो पशु, पक्षि आदि मूढ़योनि में जन्म लेने पर भी उसके आचरण, भाव अच्छे ही रहेंगे ।

रजोगुण में ‘राग’-अंश ही जन्म-मरण देनेवाला है, ‘क्रिया’- अंश नहीं । पदार्थ, क्रिया अथवा व्यक्ति, किसीमें भी राग हो जायगा तो वह मनुष्ययोनिमें जन्म लेगा । मनुष्य स्वाभाविक कर्मसंगी है; क्योंकि नये कर्म करने का अधिकार मनुष्ययोनि में ही है । 


 वास्तव में कर्म सात्विक-राजस-तामस नहीं होते, प्रत्युत कर्ता ही सात्विक-राजस-तामस होता है। जैसा कर्ता होता है, उसके द्वारा वैसे ही कर्म होते हैं, जैसे कर्म होते हैं, वैसा ही भाव दृढ़ होता है। जैसा भाव होता है, उसके अनुसार ही अन्तकालीन चिन्तन होता है। अन्तकालीन चिन्तन के अनुसार ही गति होती है।
 
ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.१३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च । 
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥१३॥  
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् । 
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥१४॥ 
 
हे कुरुनन्दन! तमोगुण के बढ़ने पर अप्रकाश, अप्रवृत्ति तथा प्रमाद और मोह- ये वृत्तियाँ भी पैदा होती हैं। 
जिस समय सत्वगुण बढ़ा हो, उस समय यदि देहधारी मनुष्य मर जाता है तो वह उत्तमवेत्ताओं के निर्मल लोकों में जाता है। 
 
व्याख्या- भगवान पूर्वोक्त तीन श्लोकों में क्रमशः सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की वृद्धि के लक्षणों का वर्णन करके साधक को सावधान करते हैं कि गुणों के साथ अपना सम्बन्ध मानने से ही गुणों में होने वाली वृत्तियाँ उसे अपने में प्रतीत होती हैं। वास्तव में साधक का इन वृत्तियों के साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। गुण तथा गुणों की वृत्तियाँ प्रकृति का कार्य होने से परिवर्तनशील हैं और स्वयं परमात्मा का अंश होने से अपरिवर्तनशील है। परिवर्तनशील के साथ अपरिवर्तनशील का सम्बन्ध कैसे हो सकता है?  
  
गुणों से उत्पन्न होने वाली वृत्तियाँ कर्मों की अपेक्षा कमजोर नहीं है। सात्विक वृत्ति भी पुण्यकर्मों के समान ही श्रेष्ठ है। तात्पर्य यह हुआ कि शास्त्रविहित पुण्यकर्मों में भी भाव का ही महत्व है, पुण्यकर्म का नहीं पदार्थ, क्रिया, भाव और उद्देश्य-ये चारों उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।  यदि उत्तमवेत्ता (विवेकवान्) मनुष्य सत्वगुण को अपना मानते हुए उसमें रमण न करे और भगवान के सम्मुख रहे तो वह सत्वगुण से भी असंग (गुणातीत) हो कर भगवान के परमधाम को चला जायगा, अन्यथा सत्वगुण का सम्बन्ध रहने पर वह ब्रह्मलोक तक के ऊँचे लोकों तक ही जायगा।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.१२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।१२।।

हे भरतवंशमें श्रेष्ठ अर्जुन ! रजोगुणके बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, कर्मोंका आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा -- ये वृत्तियाँ पैदा होती हैं।

व्याख्या—

जब रजोगुण बढ़ता है तब लोभ, प्रवृत्ति आदि वृत्तियाँ बढ़ती हैं । अतः ऐसे समय साधक को यह विचार करना चाहिये कि जब अनन्त ब्रह्माण्डों में लेशमात्र भी कोई वस्तु अपनी नहीं है, सब वस्तुएँ मिलने-बिछुड़नेवाली हैं, फिर अपने लिये क्या करना चाहिये ? ऐसा विचार करके रजोगुणमयी वृत्तियों को मिटा दे, उनसे उदासीन हो जाय ।
रजोगुण असंगतक विरोधी है-‘रजो रागात्मकं विद्धि’ (गीत १४ । ७) । मनुष्य क्रिया और पदार्थसे असंग होनेपर ही योगारूढ़ होता है (गीता ६ । ४) । परन्तु क्रिया और पदार्थक संग करनेके कारण रजोगुण मनुष्यको योगारूढ़ नहीं होने देता ।

ॐ तत्सत् !

Wednesday 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.११)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत।।११।।

जब इस मनुष्यशरीर में सब द्वारों (इन्द्रियों और अन्तःकरण) में प्रकाश (स्वच्छता) और ज्ञान (विवेक) प्रकट हो जाता है, तब जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा हुआ है।

व्याख्या—

‘प्रकाश’ और ‘ज्ञान’-दोनोंमें भेद है । ‘प्रकाश’ का अर्थ है-इन्द्रियों और अन्तःकरणमें जागृति अर्थात्‌ होनेवाला मनोराज्य तथा तमोगुणसे होनेवाले निद्रा, आलस्य और प्रमाद न होकर स्वच्छता होना । ‘ज्ञान’ का अर्थ है-विवेक अर्थात्‌ सत्‌-असत्‌, कर्तव्य-अकर्तव्य आदिका ज्ञान होना । प्रकाश और ज्ञान आनेपर साधक उनको अपना गुण मानकर अभिमान न करे, प्रत्युत उनको सत्त्वगुण का ही कार्य माने और विशेषरूप से भजन-ध्यान आदि में लग जाय । कारण कि ऐसे समय में किये गये साधन से अधिक लाभ हो सकता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.१०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा।।१०।।

हे भरतवंशोद्भव ! अर्जुन रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है ।

व्याख्या—

दो गुणों को दबाकर एक गुण बढ़ता है, बढ़ा हुआ गुण मनुष्यपर विजय करता है और विजय करके मनुष्य को बाँध देता है । जो गुण बढ़ता है, उसकी मुख्यता हो जाती है और दूसरे गुणों की गौणता हो जाती है । यह गुणों का स्वभाव है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.०९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत।।९।।

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! सत्त्वगुण सुख में और रजोगुण कर्म में लगाकर मनुष्य पर विजय करता है तथा तमोगुण ज्ञान को ढककर एवं प्रमाद में भी लगाकर मनुष्य पर विजय करता है ।

व्याख्या—

सत्त्वगुण केवल सुख होनेपर विजय नहीं करता, प्रत्युत सुख का संग होने पर विजय करता है-‘सुखसङ्गेन बध्नाति’ (गीता १४ । ६) । इसी तरह रजोगूण भी कर्म का संग होने पर विजय करता है-‘तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्‌’ (गीता १४ । ७) । परन्तु तमोगुण स्वरूप से ही विजय करता है । इसलिये तमोगुणमें ‘संग’ शब्द नहीं आया है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.०८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत।।८।।

हे भरतवंशी अर्जुन ! सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करनेवाले तमोगुण को तुम अज्ञान से उत्पन्न होनेवाला समझो । वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा देहधारियों को बाँधता है ।

व्याख्या—

सत्त्वगुण और रजोगुण तो संग (सुखासक्ति)--से बाँधते हैं, पर तमोगुण स्वरूप से ही बाँधने वाला है । ये तीनों गुण प्रकृति के कार्य हैं और जीव स्वयं प्रकृति और उसके कार्य गुणों से सर्वथा रहित है । परन्तु गुणों के साथ सम्बन्ध जोड़ने के कारण स्वयं गुणातीत होते हुए भी गुणों से बँध जाता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.०७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्।।७।।

हे कुन्तीनन्दन ! तृष्णा और आसक्ति को पैदा करनेवाले रजोगुण को तुम रागस्वरूप समझो । वह कर्मों की आसक्ति से शरीरधारी को बाँधता है ।

व्याख्या—
रजोगुण रागस्वरूप है अर्थात्‌ किसी वस्तु, व्यक्ति आदि में प्रियता उत्पन्न होती है, वह प्रियता रजोगुण है । रजोगुण कर्मोंके संग (आसक्ति)-से मनुष्यको बाँधता है । अतः सात्त्विक कर्म भी संग होनेसे बाँधनेवाले हो जाते हैं । यदि संग न हो तो कर्म बन्धनकारक नहीं होते । इसलिये कर्मयोगसे मुक्ति हो जाती है; क्योंकि कर्मोंका और उनके फलोंका संग न होनेसे ही कर्मयोग होता है (गीता ६ । ४) ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.०६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ।।६।।

हे पापरहित अर्जुन ! उन गुणों में सत्त्वगुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है । वह सुख और ज्ञान की आसक्ति से (देहीको) बाँधता है ।

व्याख्या—

गुणातीत होने के बहुत समीप होने के कारण सत्त्वगुण को अनामय (निर्विकार) कहा गया है । परन्तु सुख और ज्ञान के संग के कारण वह विकारी हो जाता है; क्योंकि संग रजोगुण का स्वरूप है । सुख और ज्ञान बाधक नहीं हैं, प्रत्युत उनका संग बाधक है । संग है-उनको अपना मान लेना । वास्तव में सत्त्वगुण अपना है ही नहीं, वह तो प्रकृति का है । अतः जब तक संग रहता है, तब तक मुक्ति नहीं होती; क्योंकि स्वरूप असंग है ।

सात्त्विक ज्ञान में तो ‘मैं ज्ञानी हूँ’-यह संग रहता है, पर तत्त्वज्ञान सर्वथा असंग है अर्थात्‌ तत्त्वज्ञान होनेपर ‘मैं ज्ञानी हूँ’- यह संग नहीं रहता । सात्त्विक ज्ञान में द्रष्टा रहता है और अपने में विशेषता का भान होता है, परन्तु तत्त्वज्ञान में कोई द्रष्टा नहीं रहता और अपने में कोई कमी भी नहीं रहती तथा (व्यक्तित्व न रहनेसे) विशेषता का भान भी नहीं होता ।

ॐ तत्सत् !