Friday 9 June 2017

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.१८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  यो मामेवमसंमूढ़ो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥१९॥

हे भरतवंशी अर्जुन! इस प्रकार जो मोह रहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ सब प्रकार से मेरा ही भजन करता है।

व्याख्या-

किसी विशेष महत्वपूर्ण बात पर मन रागपूर्वक लगता है और बुद्धि श्रद्धापूर्वक। जब मनुष्य भगवान को क्षर से अतीत जान लेता है, तब उसका मन क्षर से हट कर भगवान में लग जाता है। जब वह भगवान को अक्षर से उत्तम जान लेता है, तब उसकी बुद्धि भगवान में लग जाती है फिर उसकी प्रत्येक वृत्ति और क्रिया से स्वतः भगवान का भजन होता है। कारण कि उसकी दृष्टि में एक भगवान के सिवाय दूसरा कोई होता ही नहीं।
गीता में ‘सर्ववित्’ शब्द केवल भक्त के लिये ही यहाँ आया है। भक्त समग्र को अर्थात लौकिक और अलौकिकदोनों को जानता है, इसलिये वह सर्ववित् होता है। कारण कि लौकिक के अन्तर्गत अलौकिक नहीं आ सकता, पर अलौकिक के अन्तर्गत लौकिक भी आ जाता है। अतः निर्गुण तत्त्व (अक्षर)- को जानने वाला ब्रह्मज्ञानी सर्ववित् नहीं होता, प्रत्युत समग्र भगवान को जानने वाला भक्त सर्ववित होता है। 


ॐ तत्सत् !

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