Saturday 25 February 2017

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०७)


योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय:।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥ ७॥

जिसकी इन्द्रियाँ अपने वश में हैं, जिसका अन्त:करण निर्मल है, जिसका शरीर अपने वश में है और सम्पूर्ण प्राणियोंकी आत्मा ही जिसकी आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।

व्याख्या—

शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर कर्मयोगीको प्राणीमात्रके साथ अपनी एकताका अनुभव हो जाता है । एकदेशीयता मिटने पर जब कर्मयोगीमें कर्तापन नहीं रहता, तब उसके द्वारा होनेवाले सब कर्म अकर्म हो जाते हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०६)


सन्न्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥ ६॥

परन्तु हे महाबाहो ! कर्मयोग के बिना सांख्ययोग सिद्ध होना कठिन है । मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या—

कर्मयोगमें साधक सभी कर्म निष्कामभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये ही करता है, इसलिये उसका राग सुगमतापूर्वक मिट जाता है । कर्मयोगके द्वारा अपना राग मिटाकर सांख्ययोगका साधन करनेसे शीघ्र सिद्धि होती है । भगवान्‌ने भी इसी कारण कर्मयोगीके ‘सर्वभूतहिते रताः’ भावको ज्ञानयोगके अन्तर्गत लिया है अर्थात्‌ इस भावको ज्ञानयोगीके लिये भी आवश्यक बताया है (गीता ५ । २५, १२ । ४) । यदि ज्ञानयोगीमें यह भाव नहीं होगा तो उसमें ज्ञानका अभिमान अधिक होगा ।

ॐ तत्सत् !

Friday 24 February 2017

गीता प्रबोधनी- पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०५)

यत्साङ्ख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति॥ ५॥

सांख्ययोगियों के द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों के द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है।
अत: जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोगको (फलरूपमें) एक देखता है, वही ठीक देखता है।


व्याख्या—
फल एक होने से ज्ञानयोग और कर्मयोग-दोनों साधन समकक्ष हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी- पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०४)

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥ ४॥

बेसमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग (फलवाले) कहते हैं, न कि पण्डितजन;
क्योंकि इन दोनोंमेंसे एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित मनुष्य दोनोंके फल (परमात्माको) प्राप्त कर लेता है।

व्याख्या—
भगवान्‌के मतमें ज्ञानयोग और कर्मयोग-दोनों ही लौकिक साधन हैं (गीता ३ । ३) और दोनोंका परिणाम भी एक ही है । दोनों ही साधनोंकी पूर्णता होनेपर साधक संसार-बन्धनसे मुक्त होकर आत्म-साक्षात्कार कर लेता है । अतः दोनों ही मोक्षप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी- पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०३)

ज्ञेय: स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥ ३॥

हे महाबाहो! जो मनुष्य न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकांक्षा करता है, वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।

व्याख्या—

जिसने बाहरसे संन्यास-आश्रम ग्रहण कर लिया है, वह वास्तवमें संन्यासी नहीं है । संन्यासी वास्तवमें वह है, जिसने भीतरसे राग-द्वेषका त्याग कर दिया है । राग-द्वेषके रहते हुए मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता । परन्तु जिसने राग-द्वेषका त्याग कर दिया है, वह सुखपूर्वक संसारसे मुक्त हो जाता है ।
जिसके भीतर राग-द्वेष नहीं है, वह कर्मयोगी शास्त्रविहित सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए बी सदा संन्यासी ही है । उसने अपने कल्याणके लिये बाहरसे संन्यास-आश्रम ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है ।
ज्ञानयोगमें अपने स्वरूपको जाननेकी मुख्यता रहनेसे ज्ञानयोगीमें उदासीनता रहती है । परन्तु कर्मयोगीमें दूसरेके हितकी मुख्यता रहती है । इसलिये अहंवृत्तिका त्याग कर्मयोगमें सुगम है, ज्ञानयोगमें नहीं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)


श्रीभगवानुवाच

सन्न्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥ २॥

श्रीभगवान् बोले—संन्यास (सांख्ययोग) और कर्म-योग दोनों ही कल्याण करनेवाले हैं। परन्तु उन दोनोंमें भी कर्मसंन्यास (सांख्ययोग)-से कर्मयोग श्रेष्ठ है।

व्याख्या—

भगवान्‌ कहते हैं कि यद्यपि सांख्ययोग और कर्मयोग-दोनोंसे ही मनुष्यका कल्याण हो जाता है, तथापि कर्मयोगके अनुसार अपने कर्तव्यका पालन करना ही श्रेष्ट है । कर्मयोग सांख्ययोगकी अपेक्षा भी श्रेष्ट तथा सुगम है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०१)

अर्जुन उवाच

सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥ १॥

अर्जुन बोले—हे कृष्ण ! आप कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं । अत: इन दोनों साधनों में जो एक निश्चितरूप से कल्याणकारक हो, उसको मेरे लिये कहिये ।

व्याख्या—

चौथे अध्याय के अन्त में भगवान्‌ ने अर्जुन को युद्ध के किये खड़ा होने की आज्ञा दी थी । परन्तु यहाँ अर्जुन के प्रश्न से पता लगता है कि उनके भीतर युद्ध करने अथवा न करने की और विजय प्राप्त करने अथवा न करने की अपेक्षा भी ‘मेरा कल्याण कैसे हो’-इसकी विशेष चिन्ता है । उनके अन्तःकरणमें युद्ध की तथा विजय प्राप्त करने की अपेक्षा भी कल्याण का अधिक महत्त्व है । अतः प्रस्तुत श्लोक से पहले भी अर्जुन दो बार अपने कल्याण की बात पूछ चुके हैं (गीता २ । ७, ३ । २) ।

ॐ तत्सत् !

Tuesday 21 February 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.३२)


योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥ ४१॥
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन:।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥ ४२॥

हे धनंजय ! योग (समता)-के द्वारा जिसका सम्पूर्ण कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है और विवेकज्ञान के द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयों का नाश हो गया है,ऐसे स्वरूप-परायण मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते ।
इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! हृदय में स्थित इस अज्ञान से उत्पन्न अपने संशय का ज्ञानरूप तलवार से छेदन करके योग (समता)-में स्थित हो जा और (युद्धके लिये) खड़ा हो जा।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसन्न्यासयोगो नाम
चतुर्थोऽध्याय:॥ ४॥

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.३१)


अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:॥ ४०॥

विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्यके लिये न तो यह लोक (हितकारक) है, न परलोक (हितकारक) है और न सुख ही है।

व्याख्या—

विवेक और श्रद्धाकी आवश्यकता सभी साधनोंमें है । संशयात्मा मनुष्यमें विवेक और श्रद्धा नहीं होते अर्थात्‌ न तो वह खुद जानता है और न दूसरेकी बात मानता है । ऐसे मनुष्यका परमार्थिक मार्गसे पतन हो जाता है । उसका यह लोक भी बिगड़ जाता है और परलोक भी ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.३०)

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥ ३९॥

जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या—

जिसकी इन्द्रियाँ वशमें होती हैं, वही साधन-परायण होता है । जो साधन-परायण होता है, वही पूर्ण श्रद्धावान्‌ होता है । ऐसे पूर्ण श्रद्धावान्‌ साधक को ज्ञान की प्राप्ति तत्काल हो जाती है । अतः ज्ञान की प्राप्ति में वक्तापर तथा सिद्धान्त पर श्रद्धा-विश्वास मुख्य कारण है ।

ॐ तत्सत् !