Saturday 6 May 2017

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.२८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।४२।।

अथवा हे अर्जुन तुम्हें इस प्रकार बहुतसी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।

व्याख्या—

भगवान्‌ अपनी तरफ दृष्टि कराते हैं कि अनन्त ब्रह्माण्डोंमें सब कुछ मैं ही तो हूँ ! मेरी तरफ देखनेसे फिर कोई भी विभूति बाकी नहीं रहेगी । जब सम्पूर्ण विभूतियों का आधार, आश्रय, प्रकाशक, बीज (मूल कारण) मैं तेरे सामने बैठा हूँ, तो फिर विभूतियोंका चिन्तन करनेकी क्या जरूरत ?

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम
दशमोऽध्याय:॥ १० ॥

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.२७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।४१।।

जो जो ऐश्वर्ययुक्त शोभायुक्त और बलयुक्त वस्तु है, उस-उस को तुम मेरे ही तेज (योग) के अंश से उत्पन्न हुई समझो ।

व्याख्या—

संसारकी सत्ता, महत्ता और सम्बन्ध ही मनुष्यको बाँधनेवाल है । इसलिये पहले कही गयी विभूतियोंके सिवाय भी साधकको स्वतः जिस-जिसमें व्यक्तिगत आकर्षण दीखता हो, वहाँ-वहाँ वह भगवान्‌की ही विशेषता देखे । इससे वहाँ उसकी भोगबुद्धि न होकर भगवद्‌बुद्धि हो जायगी तो उसके अन्तःकरणमें भगवान्‌की सत्त, महत्ता और उनसे सम्बन्ध हो जायगा ।

मनुष्यमें जो भी विशेषता आती है, वह सब भगवान्‌से ही आती है । अगर भगवान्‌में विशेषता न होती तो वह मनुष्य्में कैसे आती ? जो वस्तु अंशीमें नहीं है, वह अंशमें कैसे आ सकती है ? जो विशेषता बीजमें नहीं है, वह वृक्षमें कैसे आयेगी ? उन्हीं भगवान्‌की कवित्व-शक्ति कविमें आती है, उन्हींकी वक्तृत्व-शक्ति वक्तामें आती है; उन्हींकी लेखन-शक्ति लेखकमें आती है, उन्हींकी दातृत्व-शक्ति दातामें आती है । जिनसे मुक्ति, ज्ञान, प्रेम आदि मिले हैं, उनकी तरफ दृष्टि न जानेसे ही ऐसा दीखता है कि मुक्ति मेरी है, ज्ञन मेरा है, प्रेम मेरा है । यह तो देनेवाले भगवान्‌की विशेषता है कि सब कुछ देकर भी वे अपनेको प्रकट नहीं करते, जिससे लेनेवालेको वह वस्तु अपनी ही मालूम देती है । मनुष्यसे यह बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तुको तो अपना मान लेता है, पर जहाँसे वह मिली है, उसको अपना नहीं मानता !

परमात्मा सम्पूर्ण शक्तियोँ, कलाओं, विद्याओं आदिके विलक्षण भण्डार हैं । शक्ति जड़ प्रकृतिमें नहीं रह सकती, प्रत्युत चिन्मय परमात्मतत्त्वमें ही रह सकती है । जिस ज्ञानसे क्रिया हो रही है, वह ज्ञान जड़में कैसे रह सकता है ?अगर ऐसा मानें कि सब शक्तियाँ प्रकृतिमें ही हैं, तो भी यह मानना पड़ेगा कि उन शक्तियोंके प्राकट्‌य और उपयोग (सृष्टि-रचना) आदि करनेकी योग्यता प्रकृतिमें नहीं है । जैसे, कम्प्यूटर जड़ होते हुए भी अनेक चमत्कारिक कार्य करता है, परन्तु चेतन (मनुष्य)-के द्वारा निर्मित, शिक्षित तथा संचालित हुए बिना वह कार्य नहीं कर सकता । कम्प्यूटर स्वतःसिद्ध नहीं है, प्रत्युत कृत्रिम (बनाया हुआ) है; परन्तु परमात्मा स्वतःसिद्ध हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.२६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।४०।।

हे परंतप अर्जुन ! मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियोंका जो विस्तार कहा है? यह तो केवल संक्षेपसे कहा है।

व्याख्या—

सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार तथा मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, भूत, प्रेत, पिशाच आदि जो कुछ भी है, वह सब मिलकर भगवान्‌का ही समग्ररूप है अर्थात्‌ सब भगवान्‌की ही विभूतियाँ हैं, उनका ही ऐश्‍वर्य है । तात्पर्य है कि एक भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं है । परिवर्तनशील असत्‌ और अपरिवर्तनशील सत्‌-दोनों ही भगवान्‌की विभूतियाँ हैं-‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९ । १९) । अनः जिसमें हमारा आकर्षण होता है, वह वास्तवमें भगवान्‌का ही आकर्षण है । परन्तु भोगबुद्धिके कारण वह आकर्षण भगवत्प्रेममें परिणत न होकर काम, आसक्ति, मोहमें परिणत हो जत है, जो संसारमें बाँधनेवाला है ।

पूर्वपक्ष-

जब सब कुछ भगवान्‌ ही हैं, तो फिर विभूति-वर्णन का क्या प्रयोजन है ?

उत्तरपक्ष-

अर्जुन का प्रश्न ही यही था कि मैं कहाँ-कहाँ आपका चिन्तन करूँ ? यद्यपि सब कुछ भगवान्‌ ही हैं, तथापि मनुष्यको जिस वस्तु-व्यक्तिमें विशेषता दीखती है, उसे वस्तु-व्यक्तिमें भगवान्‌ को देखना, उनका चिन्तन करना सुगम पड़ता है । कारण कि मन में उसकी विशेषता अंकित हो जाने से मन स्वतः वहाँ जाता है । इसीलिये भगवान्‌ ने अपनी मुख्य-मुख्य विभूतियों का वर्णन किया है । इस कारण साधक का कहीं भी राग-द्वेष न होकर भगवान्‌ की तरफ ही दृष्टि रहनी चाहिये ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.२५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।३९।।

हे अर्जुन सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है? वह बीज मैं ही हूँ क्योंकि मेरे बिना कोई भी चरअचर प्राणी नहीं है अर्थात् चरअचर सब कुछ मैं ही हूँ।

व्याख्या—

संसारमें जो कुछ भी विशेषता दीखती है, उसको संसारकी माननेसे मनुष्य उसमें फँस जाता है, जिससे उसक पतन हो जाता है । इसलिये भगवान्‌ यहाँ बहुत ही सरल साधन बताते हैं कि तुम्हारा मन जहाँ-कहीँ और जिस-किसी विशेषताको देखकर आकृष्ट होता हो, वहाँ उस विशेषताको तुम मेरी ही समझो कि यह विशेषता भगवान्‌की है और भगवान्‌से ही आयी है । यह विशेषता इस परिवर्तनशील, जड़, नाशवान्‌ संसारकी नहीं है । ऐसा समझनेसे तुम्हार आकर्षण उस वस्तु-व्यक्तिमें न होकर मेरेमें ही होगा, जिससे तुम्हारा मुझमें प्रेम हो जायगा ।

चौरासी लाख योनियाँ तथा उनके सिवाय देवता, पितर, गन्धर्व, भूत, प्रेत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, पूतना, बालग्रह आदि जितनी भी योनियाँ हैं, उन सबके मूल कारण भगवान्‌ हैं । तात्पर्य है कि अनन्त ब्रह्माण्डोंमें अनन्त जीव हैं, पर उन सबका बीज एक ही है । लौकिक बीजसे एक ही प्रकारकी खेती पैदा होती है; जैसे-गेहूँके बीजसे गेहूँ ही पैदा होता है, अन्य अनाज नहीं । सबके बीज अलग-अलग होये हैं । परन्तु भगवान्‌-रूपी बीज इतना विलक्षण है कि उस एक ही बीजसे अनन्त ब्रह्माण्डके अनन्त जीव पैदा हो जाते हैं । सब प्रकारके जीव पैदा होनेपर भी उसमें कभी कोई विकृति नहीं आती, वह ज्यों-का-त्यों रहता है; क्योंकि वह बीज अव्यय और सनातन है (गीता ७ । १०, ९ । १८) ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.२४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।३७।।
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।३८।।

वृष्णिवंशियोंमें वासुदेव और पाण्डवोंमें धनञ्जय मैं हूँ। मुनियोंमें वेदव्यास और कवियोंमें शुक्राचार्य भी मैं हूँ।
दमन करनेवालोंमें दण्डनीति और विजय चाहनेवालोंमें नीति मैं हूँ। गोपनीय भावोंमें मौन और ज्ञानवानोंमें ज्ञान मैं हूँ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.२३)

  ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।।३५।।
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।३६।।

गायी जानेवाली श्रुतियोंमें बृहत्साम और वैदिक छन्दोंमें गायत्री छन्द मैं हूँ। बारह महीनोंमें मार्गशीर्ष और छः ऋतुओंमें वसन्त मैं हूँ।
छल करनेवालोंमें जूआ और तेजस्वियोंमें तेज मैं हूँ। जीतनेवालोंकी विजय? निश्चय करनेवालोंका निश्चय और सात्त्विक मनुष्योंका सात्त्विक भाव मैं हूँ।

व्याख्या—

पूर्वपक्ष- भगवान्‌ने जूएको अपनी विभूति बताया है, फिर जूआ खेलनेमें क्या दोष है ? यदि दोष नहीं है तो शास्त्रोंने इसका निषेध क्यों किया है ?

उत्तरपक्ष- यदि किसी ग्रन्थके किसी अंशपर शंका उत्पन्न हो तो उस ग्रन्थका आदिसे अन्ततक अध्ययन करके उसमें वक्ताके उद्देश्य, लक्ष्य और आशयको समझनेसे उस शंकाकी निवृत्ति हो जाती है । यहाँ शास्त्रोंके विधि-निषेधका प्रसंग नहीं चल रहा है, प्रत्युत भगवान्‌की विभूतियोंका प्रसंग चल रहा है । ‘मैं आपका चिन्तन कहाँ-कहाँ करूँ’-अर्जुनके इस प्रश्नके अनुसार भगवान्‌ अपनी विभूतियोंके रूपमें अपने चिन्तनकी बात ही बता रहे हैं । भगवान्‌ने सिंहको तथा मृत्युको भी अपनी विभूति बताया है (१० । ३०,३४) । इसका अर्थ यह थोड़े ही है कि मनुष्य इनका सेवन करे !

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.२२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।३३।।
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।३४।।

अक्षरोंमें अकार और समासोंमें द्वन्द्व समास मैं हूँ। अक्षयकाल अर्थात् कालका भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला धाता भी मैं हूँ।

सब का हरण करने वाली मृत्यु और उत्पन्न होनेवालों का उद्भव मैं हूँ तथा स्त्रीजाति में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूँ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.२१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।३२।।

हे अर्जुन सम्पूर्ण सर्गोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। विद्याओंमें अध्यात्मविद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करनेवालोंका (तत्त्वनिर्णयके लिये किया जानेवाला) वाद मैं हूँ।

व्याख्या—

इसी अध्यायके बीसवें श्लोकमें भगवान्‌ने ‘अहमादिश्‍च मध्यं च भूतानामन्त एव च’ कहकर व्यष्टिरूपसे अपनी विभूति बतायी थी, अब यहाँ ‘सर्गाणामादिरन्तश्‍च मध्यं चैवाहमर्जुन’ कहकर समष्टिरूपसे अपनी विभूति बताते हैं । तात्पर्य है कि व्यष्टि अथवा समष्टिरूपसे जो कुछ दीखने, सुनने, चिन्तन करने आदिमें आता है, वह सब एक भगवान्‌ ही हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.२०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितृ़णामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्।।२९।।
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।।३०।।
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।३१।।

नागोंमें अनन्त (शेषनाग) और जलजन्तुओंका अधिपति वरुण मैं हूँ। पितरोंमें अर्यमा और,शासन करनेवालोंमें यमराज मैं हूँ।
दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों (ज्योतिषियों) में काल मैं हूँ । पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड मैं हूँ।
पवित्र करनेवालोंमें वायु और शास्त्रधारियों में राम मैं हूँ। जलजन्तुओं में मगर मैं हूँ । बहनेवाले स्रोतों में गङ्गाजी मैं हूँ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.१९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।।२७।।
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।।२७।।

घोड़ों में अमृत के साथ समुद्र से प्रकट होनेवाले उच्चैःश्रवा नामक घोड़ेको, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी को और मनुष्यों में राजा को मेरी विभूति मानो।
आयुधों में वज्र और धेनुओं में कामधेनु मैं हूँ। सन्तानउत्पत्ति का हेतु कामदेव मैं हूँ और सर्पों में वासुकि मैं हूँ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.१८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।२५।।
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।२६।।

महर्षियों में भृगु और वाणियों(शब्दों) में एक अक्षर अर्थात् प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहनेवालों में हिमालय मैं हूँ।
सम्पूर्ण वृक्षों में पीपल, देवर्षियोंमें नारद,गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूँ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.१७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।२३।।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।२४।।

रुद्रोंमें शंकर और यक्षराक्षसोंमें कुबेर मैं हूँ, वसुओंमें पावक (अग्नि) और शिखरवाले पर्वतों में मेरु मैं हूँ।
हे पार्थ ! पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझो । सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.१६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।२१।। 

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।२२।। 


मैं अदिति के पुत्रों में विष्णु (वामन) और प्रकाशमान वस्तुओं में किरणोंवाला सूर्य हूँ। मैं मरुतों का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा हूँ।
मैं वेदोंमें सामवेद हूँ, देवताओंमें इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और प्राणियोंकी चेतना हूँ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.१५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।२०।।

हे नींदको जीतनेवाले अर्जुन सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि? मध्य तथा अन्तमें भी मैं ही हूँ और प्राणियोंके अन्तःकरणमें आत्मरूपसे भी मैं ही स्थित हूँ।

व्याख्या—

सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें भगवान्‌ ही हैं-इसका तात्पर्य यह है कि एक भगवान्‌के सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात्‌ सब कुछ भगवान्‌ही हैं । भगवान्‌ श्रीकृष्ण समग्र हैं और आत्मा उनकी विभूति है । आत्मा भगवान्‌की परा प्रकृति है और अन्तःकरण अपरा प्रकृति है (गीता ७ । ४-५} । पर और अपरा-दोनों ही भगवान्‌से अभिन्न हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.१४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।१८।।

श्री भगवानुवाच

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।१९।।

हे जनार्दन ! आप अपने योग (सामर्थ्य) को और विभूतियोंको विस्तारसे फिर कहिये क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनतेसुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।

श्रीभगवान् बोले –

हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियों को तेरे लिये प्रधानता से (संक्षेपसे) कहूँगा क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ ! मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है।

व्याख्या—

जैसे भूखे को अन्न और प्यासे को जल प्रिय लगता है, ऐसे ही भक्त अर्जुन को भगवान्‌ के वचन बहुत प्रिय और विलक्षण लग रहे हैं । वे ज्यों-ज्यों भगवान्‌ के वचन सुनते हैं, त्यों-ही-त्यों उनका भगवान्‌ के प्रति विशेष भाव प्रकट होता जात है । कानों के द्वारा उन अमृतमय वचनों को सुनते हुए न तो उन वचनों का अन्त आता है और न उनको सुनते हुए तृप्ति ही होती है !

भगवान्‌ अनन्त हैं; अतः उनकी विभूतियाँ भी अनन्त हैं । इस कारण भगवान्‌ की सम्पूर्ण विभूतियों को न तो कोई कह सकता है और न सुन ही सकता है । अगर कोई कह-सुन ले तो फिर वे अनन्त कैसे रहेंगी ? इसलिये भगवान्‌ यहाँ और अध्याय के अन्त में भी कहते हैं कि मैं अपनी विभूतियों को संक्षेपसे कहूँगा; क्योंकि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है (गीता १०।४०) ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.१३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।१७।।

हे योगिन् ! हरदम साङ्गोपाङ्ग चिन्तन करता हुआ मैं आप को कैसे जानूँ और हे भगवन् ! किनकिन भावों में आप मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं अर्थात् किनकिन भावों में मैं आपका चिन्तन करूँ?

व्याख्या—

अर्जुन ने यह प्रश्न सुगमतापूर्वक भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से किया है कि मैं आपके समग्ररूप को कैसे जानूँ ? किन रूपोंमें मैं आपका चिन्तन करूँ ? इससे सिद्ध होता है कि विभूतियाँ गौण नहीं हैं, प्रत्युत भगवत्प्राप्ति का माध्यम होनेसे मुख्य हैं । विभूतिरूप से साक्षात्‌ भगवान्‌ ही हैं । जब तक मनुष्य भगवान्‌ को नहीं जानता, तब तक उसमें गौण अथवा मुख्यकी भावना रहती है । भगवान्‌ को जानने पर गौण अथवा मुख्यकी भावना नहीं रहती; क्योंकि भगवान्‌ के सिवाय और कुछ है ही नहीं, फिर उसमें क्या गौण और क्या मुख्य ? तात्पर्य है कि गौण अथवा मुख्य साधक की दृष्टि में है, सिद्ध की दृष्टि में नहीं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.१२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


स्वयमेवात्मनाऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।१५।। वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।१६।।

हे भूतभावन ! हे भूतेश ! हे देवदेव ! हे जगत्पते ! हे पुरुषोत्तम ! आप स्वयं ही अपनेआप से अपने आपको जानते हैं। जिन विभूतियों से आप इन सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं, उन सभी अपनी दिव्य विभूतियों का सम्पूर्णता से वर्णन करने में आप ही समर्थ हैं।

व्याख्या—

आप स्वयं ही स्वयंके ज्ञाता हैं-ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि जाननेवाले भी आप हैं, जाननेमें आनेवाले भी आप ही हैं अर्थात्‌ सब कुछ आप ही हैं । जब आपके सिवाय और कोई है ही नहीं तो फिर कौन किसको जाने ? और क्या जाने ?
अर्जुन भगवान्‌से कहते हैं कि आप स्वयं ही अपने-आपको जानते हैं, इसलिये अपनी सम्पूर्ण विभूतियोंका वर्णन आप ही कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं । अतः आप अपनी विलक्षण विभूतियोंको विस्तारपूर्वक सम्पूर्णतासे कहिये, जिससे मेरी आपमें अविचल भक्ति हो जाय ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.११)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।।१४।।

हे केशव ! मुझसे आप जो कुछ कह रहे हैं यह सब मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन् ! आपके प्रकट होने को न तो देवता जानते हैं और न दानव ही जानते हैं।

व्याख्या—

भगवान्‌ को अपनी शक्तिसे कोई नहीं जान सकता, प्रत्युत भगवान्‌ की कृपा से ही जान सकता है । भगवान्‌ के यहाँ बुद्धिके चमत्कार अथवा विविध प्रकारकी सिद्धियाँ नहीं चल सकतीं । बड़े-से-बड़े भौतिक आविष्कारसे कोई भगवान्‌को नहीं जान सकता । देवताओं की दिव्यशक्ति तथा दानवों की मायाशक्ति कितनी ही विलक्षण होनेपर भी भगवान्‌ के सामने कुण्ठित हो जाती है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.१०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अर्जुन उवाच

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।१२।। आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।१३।।

अर्जुन बोले –

परम ब्रह्म, परम धाम और महान् पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु (व्यापक) हैं -- ऐसा सब के सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।

व्याख्या—

निर्गुण-निराकार के लिये ‘परं ब्रह्म’, सगुण-निराकारके लिये ‘परं धाम’ और सगुण-साकार के लिये ‘पवित्रं परमं भवान्‌’ पदों का प्रयोग करके अर्जुन भगवान्‌ से मानो यह कहते हैं कि समग्र परमात्मा आप ही हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.०९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।११।।

उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूप (होनेपन) में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ।

व्याख्या—

यद्यपि कर्मयोग तथा ज्ञानयोग-दोनों साधन हैं और भक्तियोग साध्य है, तथापि भगवान्‌ अपने भक्तों को कर्मयोग भी दे देते हैं-‘ददामि बुद्धियोगं तम्‌’ और ज्ञानयोग भी दे देते हैं-‘ज्ञानदीपेन भास्वता’ । अपरा और परा-दोनों प्रकृतियाँ भगवान्‌की ही हैं । इसलिये भगवान्‌ कृपा करके अपने भक्तको अपरा की प्रधानता से होने वाल कर्मयोग और पराकी प्रधानतासे होनेवाला ज्ञानायोग-दोनों प्रदान करते हैं । अतः भक्तको कर्मयोगका प्रापणीय तत्त्व ‘निष्काम भाव’ और ज्ञानयोगका प्रापणीय तत्त्व ‘स्वरूपबोध’- दोनों ही सुगमतासे प्राप्त हो जाते हैं । कर्मयोग प्राप्त होनेपर भक्तके द्वारा संसारका उपकार होता है और ज्ञानयोग प्राप्त होनेपर भक्तका देहाभिमान दूर हो जाता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.०८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।१०।।

उन नित्यनिरन्तर मुझ में लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तों को मैं वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है।

व्याख्या—

भगन्निष्ठ भक्त भगवान्‌ को छोड़कर न तो समता चाहते हैं, न तत्त्वज्ञान चाहते हैं, न मोक्ष चाहते हैं तथा न और ही कुछ चाहते हैं । उनका तो एक ही काम है-नित्य-निरन्तर भगवान्‌ में लगे रहना । इसलिये उन भक्तों की सारी जिम्मेदारी भगवान्‌ पर आ जाती है । उन भक्तों में कोई कमी न रह जाय, इस दृष्टिसे भगवान्‌ अपनी तरफ से उनको समता (कर्मयोग) और तत्त्वज्ञान (ज्ञानयोग)- दोनों दे देते हैं (गीता १० । ११) ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.०७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।९।।

मुझ में चित्तवाले, मुझ में प्राणों को अर्पण करनेवाले भक्तजन आपस में (मेरे गुण, प्रभाव आदिको) जनाते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्यनिरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मुझमें प्रेम करते हैं।

व्याख्या—

भक्तोंका चित्त भगवान्‌को छोडकर कहीं जाता ही नहीं । उनकी दृष्टिमें जब एक भगवान्‌ के सिवाय और कुछ है ही नहीं तो फिर उनका चित्त कहाँ जाय, कैसे जाय और क्यों जाय ? वे भगवान्‌ के लिये ही जीते हैं । उनकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ भगवान्‌ के लिये ही होती हैं । कोई सुननेवाला आ जाय तो वे भगवान्‌ के गुण, प्रभाव आदि की विलक्षण बातों का ज्ञान कराते हैं, भगवान्‌ की लीला-कथाका वर्णन करते हैं, और कोई सुनानेवाला आ जाय तो प्रेमपूर्वक सुनते हैं । न तो कहनेवाला तृप्त होता है, न सुननेवाला । तृप्ति नहीं होती-यह वियोग है और नित्य नया रस मिलता है- यह योग है । इस वियोग और योगके कारण प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.०६)

ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।८।।

मैं संसारमात्र का प्रभव (मूलकारण) हूँ, और मेरेसे ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात् चेष्टा कर रहा है -- ऐसा मानकर मुझ में ही श्रद्धा-प्रेम रखते हुए बुद्धिमान् भक्त मेरा ही भजन करते हैं -- सब प्रकारसे मेरे ही शरण होते हैं ।

व्याख्या—

पदार्थ और व्यक्ति भी भगवान्‌से ही होते हैं (अहं सर्वस्य प्रभवः) और क्रियाएँ भी भगवान्‌ से ही होती हैं (मत्त: सर्व प्रवर्तते) । परन्तु जीव पदार्थों, व्यक्तियों और क्रियाओंसे सम्बन्ध जोड़कर, उनको अपना मानकर, उनक भोक्ता और कर्ता बनकर बनधनमें पड़ जाता है । जो मनुष्य पदार्थों, व्यक्तियों और क्रियाओंसे सम्बन्ध न जोड़कर भगवान्‌के महत्त्व (प्रभाव)-को मान लेते हैं, वे संसारमें न फँसकर भगवान्‌के ही भजनमें लग जाते हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.०५)

  एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वत: ।
सोऽवकिम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशय: ॥७॥ 

जो मनुष्य मेरी इस विभूति को और योग (सामथ्र्य) को तत्त्व से जानता है अर्थात दृढ़तापूर्वक (सन्देह रहित) स्वीकार कर लेता है, वह अविचल भक्ति योग से युक्त हो जाता है; इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

 व्याख्या- संसार जो कुछ विलक्षणता, विशेषता देखने में आती है, वह सब भगवान का ‘योग’ (विलक्षण प्रभाव सामथ्र्य) है। उस योग से प्रकट होने वाली विशेषता ‘विभूति’ है- इस प्राकर जो मनुष्य भगवान की विभूति और योग को तत्त्व से जान लेता है कि जो कुछ प्रभाव, महत्व दीखता है, वह सब भगवान का ही है, तब उसकी भगवान में दृढ़ भक्ति हो जाती है। एक भगवान के सिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं- ऐसा सन्देह रहित दृढ़तापूर्वक मान लेना ही वास्तव में भगवान की विभूति और योग तत्त्व से जानना है।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.०४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

श्री भगवानुवाच

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।।६।।

सात महर्षि और उनसे भी पूर्व में होनेवाले चार सनकादि तथा चौदह मनु -- ये सब के सब मेरे मन से पैदा हुए हैं और मेरे में भाव (श्रद्धाभक्ति) रखनेवाले हैं, जिनकी संसार में यह सम्पूर्ण प्रजा है।

व्याख्या—

सात महर्षि, चार सनकादि तथा चौदह मनु-ये सब भगवान्‌के मनसे प्रकट होनेके कारण भगवान्‌से अभिन्न अर्थात्‌ भगवत्स्वरूप हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.०३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।४।।
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।५।।

बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, उत्पत्ति , विनाश , भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश और अपयश -- प्राणियोंके ये अनेक प्रकारके और अलगअलग (बीस) भाव मुझसे ही होते हैं।

व्याख्या—

ज्ञानकी दृष्टिसे तो सभी भाव प्रकृतिसे होते हैं, पर भक्तिकी दृष्टिसे भी सभी भाव भगवान्‌से तथा भगवत्स्वरूप होते हैं । अगर इन भावोंको जीव का मानें तो जीव भी भगवान्‌की ही परा प्रकृति होनेसे भगवान्‌से अभिन्न है । अतः ये भाव भगवान के ही हुए। भगवान् में ये भाव निरन्तर रहते हैं पर जीवमें अपरा प्रकृतिके संगसे आते-जाते रहते हैं । भगवान्‌से उत्पन्न होनेके कारण सभी भाव भगवत्स्वरूप ही हैं ।

जैसे हाथ एक ही होता है, पर उसमें अँगुलियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, ऐसे ही भगवान्‌ एक ही हैं, पर उनसे प्रकट होनेवाले भाव भिन्न-भिन्न प्रकारके होते हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।।३।।

जो मनुष्य मुझे अजन्मा, अनादि और सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर जानता है अर्थात् दृढ़ता से मानता है, वह मनुष्यों में असम्मूढ़ (जानकार) है और वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है।

व्याख्या—

महर्षिगण भगवान्‌के आदिको तो नहीं जान सकते, पर वे भगवान्‌को अज-अनादि तो जानते ही हैं । भगवान्‌का अंश होनेसे जीव स्वयं भी अज-अनादि है । अतः वह जैसे भगवान्‌को अज-अनादि जानता है, वैसे ही अपनेको भी अज-अनादि जानता है । कारण कि जैसे संसारसे अलग होकर ही संसारको जान सकते हैं; क्योंकि वास्तवमें हम संसारसे अलग ही हैं, ऐसे ही भगवान्‌से अभिन्न होकर ही भगवान्‌को जान सकते हैं; क्योंकि वास्तवमें हम भगवान्‌से अभिन्न ही हैं । अपनेको अज-अनादि जाननेपर जीव मूढ़तारहित हो जाता है, फिर उसमें पाप कैसे रहेंगे ? क्योंकि पाप तो पीछे पैदा हुए हैं, अज-अनादि पहलेसे हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दसवाँ अध्याय (पोस्ट.०१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

श्री भगवानुवाच

भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।१।।
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।।२।।

श्रीभगवान् बोले –

हे महाबाहो अर्जुन ! मेरे परम वचन को तुम फिर सुनो? जिसे मैं तुम्हारे हितकी कामना से कहूँगा क्योंकि तुम मुझ में अत्यन्त प्रेम रखते हो।
मेरे प्रकट होने को न देवता जानते हैं और न महर्षि क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियोंका आदि हूँ।

व्याख्या—

अर्जुन भगवान्‌में अत्यन्त प्रेम रखनेवाले (भक्त) हैं; अतः भगवान्‌ उनके लिये भक्ति-सम्बन्धी परम वचन पुनः कहते हैं ।

परमात्मा जानने का विषय नहीं हैं, प्रत्युत मानने और अनुभव करनेका विषय हैं । उन्हें माना ही जा सकता है, जाना नहीं जा सकता । जैसे, अपने माता-पिता को हम मान ही सकते हैं, जान नहीं सकते; क्योंकि जन्म लेते समय हमने उन्हें देखा ही नहीं, देखना सम्भव ही नहीं, माता की अपेक्षा भी पिताको जानना सर्वथा असम्भव है; क्योंकि माता से जन्म लेते समय तो हमारा शरीर बन चुका था, पर पितासे जन्म लेते समय हमारे शरीरकी सत्ता ही नहीं थी । भगवान्‌ सम्पूर्ण संसारके पिता हैं- ‘पिताहमस्य जगतो मात धाता पितामहः’ (गीता ९ । १७), ‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (गीता १ । ४३), ‘अहं बीजप्रदः पिता’ (गीता १४ । ४) इसलिये परमात्माको जानना अर्वथा असम्भव है । उन्हें माना ही जा सकता है ।
परमात्मा को हम जान सकते ही नहीं और माने बिना रह सकते ही नहीं । जैसे, माता-पिताको माने बिना हम रह सकते ही नहीं । अगर हम अपनी (शरीरकी) सत्ता मनते हैं तो माता-पिताकी सत्ता माननी ही पड़ेगी । कार्य है तो उसका कारण भी है । ऐसे ही परमात्माको माने बिना हम रह सकते ही नहीं । अगर हम अपनी सत्ता (होनापन) मानते हैं तो परमात्माकी सत्ता माननी ही पड़ेगी । कारण के बिना कार्य कहाँ से आया ? परमात्मा के बिना हम स्वयं कहाँसे आये ? हमारी सत्ता परमात्मा के होने में प्रत्यक्ष प्रमाण है । जैसे ‘हम नहीं हैं’-इस तरह अपने होनेपन का कोई निरोध या खण्डन नहीं कर सकता, ऐसे ही ‘परमात्मा नहीं हैं’-इस तरह परमात्मा के होनेपन का भी कोई निषेध या खण्डन नहीं कर सकता ।

ॐ तत्सत् !

Friday 5 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥ ३४॥

तू मेरा भक्त हो जा, मुझ में मनवाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मुझे नमस्कार कर। इस प्रकार अपने-आप को मेरे साथ लगाकर मेरे परायण हुआ तू मुझे ही प्राप्त होगा।

व्याख्या—

इस श्लोकमें अहंता-परिवर्तन की बात मुख्य है । भक्त ‘मैं केवल भगवान्‌का ही हूँ’- इस प्रकार अपनी अहंताको बदलता है और स्वयं का सम्बन्ध भगवान्‌ से जोड़ता है । इसलिये उसे संसार के सम्बन्ध का त्याग करना नहीं पड़ता, प्रत्युत वह स्वतः छूट जाता है । कारण कि वर्ण, आश्रम, जाति, योग्यता, अधिकार, कर्म, गुण आदि सब आगन्तुक हैं, पर स्वयं के साथ भगवान्‌ का सम्बन्ध आगन्तुक नहीं है, प्रत्युत अनादि, नित्य और स्वतःसिद्ध है ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम
नवमोऽध्याय:॥ ९॥

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥ ३३॥

जो पवित्र आचरण करनेवाले ब्राह्मण और ऋषि-स्वरूप क्षत्रिय भगवान्के भक्त हों, (वे परमगतिको प्राप्त हो जायँ) इसमें तो कहना ही क्या है! इसलिये इस अनित्य और सुखरहित शरीरको प्राप्त करके तू मेरा भजन कर।

व्याख्या—

तीसवेंसे तैंतीसवें श्लोकतक भगवान्‌ने भक्तिके तथा भगवत्प्राप्तिके सात अधिकारियोंके नाम लिये हैं- दुराचारी, पापयोनि, स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण और क्षत्रीय । इन सातोंसे बाहर कोई भी प्राणी नहीं है । तात्पर्य है कि मनुष्यका कैसा ही जन्म हो, कैसी ही जाति हो और पूर्वजन्मके तथा इस जन्मके कितने ही पाप हों, पर वे सब-के-सब भगवान्‌ और उनकी भक्तिके अधिकारी हैं । कारण कि जीवमात्र भगवान्‌का अंश होनेसे भगवान्‌की तरफ चलनेमें स्वतन्त्र है । भगवान्‍ की ओरसे किसीके लिये भी मनाही नहीं है ।

अनित्य और सुखरहित इस शरीरको पाकर अर्थात्‌ हम जीते रहें और सुख भोगते रहें-ऐसी कामनाको छोड़कर भगवान्‌का भजन करना चाहिये । कारण कि संसारमें सुख है ही नहीं, केवल सुखका भ्रम है । ऐसे ही जीनेका भी भ्रम है । हम जी नहीं रहे हैं, प्रत्युत प्रतिक्षण मर रहे हैं !

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥ ३२॥

हे पृथानन्दन! जो भी पापयोनिवाले हों तथा जो भी स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र हों, वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर नि:सन्देह परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं।

व्याख्या—

पूर्वजन्मके पापीकी अपेक्षा भी वर्तमान जन्मका पापी विशेष दोषी होता है । इसलिये पहले वर्तमान जन्मके पापी (सदुराचारी)- की बात कहकर अब इस श्लोकमें ‘पापयोनयः’ पदसे पूर्वजन्मके पापीकी बात कहते हैं ।

जिसमें दूसरेका आश्रय नहीं हो, ऐसे अनन्य आश्रयको यहाँ ‘व्यपाश्रय’ अर्थात्‌ विशेष आश्रय कहा गया है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥ ३०॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥ ३१॥

अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहने वाली शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन ! मेरे भक्त का पतन नहीं होता—ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।

व्याख्या—

ज्ञानयोग और कर्मयोगमें बुद्धिकी प्रधानत रहती है, इसलिये उनमें पहले बुद्धिमें समता आती है-‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु’ (गीता २ । ५४-६८) । ज्ञानयोग और कर्मयोगमें बुद्धि व्यवसित (एक निश्चय्वाली) होती है- ‘बुद्धया विशुद्धया युक्तः’ (गीता १८ । ५१), ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह’ (२ । ४१), ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिः’ (२ । ४४)। बुद्धि व्यवसित होनेसे अहम्‌का सर्वथा नाश नहीं होता; क्योंकि अहम्‌ बुद्धिसे परे है-‘भूमिरापो$नलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं... (गीत ७ । ४) । अतः मुक्त होनेपर भी अहम्‌की सूक्ष्म गन्ध रह जाती है, जो बन्धनकारक तो नहीं होती, पर दार्शनिक मतभेद पैदा करनेवाली होती है । परन्तु भक्तियोगमें स्वयं (भगवान्‌के अंश) की प्रधानता रहती है, इसलिये भक्त स्वयं व्यवसित होता है-‘सम्यग्व्यवसितो हि सः’ । स्वयं व्यवसित होनेसे अहम्‌ सर्वथा नहीं रहता; क्योंकि स्वयं अहम्‌से परे है । मन-बुद्धिमें बैठी हुई बातकी विस्मृति हो सकती है, पर स्वयंमें बैठी हुई बातकी विस्मृतिकभी नहीं हो सकती । स्वयंमें जो बात होती है, वह अखण्ड रहती है । इसलिये ‘मैं भगवान्‌का ही हूँ और भगवान्‌ ही मेरे अपने हैं’-य्ह स्वीकृति स्वयंमें होती है, मन-बुद्धिमें नहीं । कारण यह है कि मूलमें भगवान्‌का ही अंश होनेसे स्वयं भगवान्‌से अभिन्न है । भगवान्‌के सिवाय दूसरेके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही भूल है, मोह है, बन्धन है ।

जबतक मनुष्यको अपनेमें बल, योग्यता, विशेषता दीखती है, तबतक वह ‘अनन्यभाक्‌’ नहीं होता । अनन्यभाक्‌ तभी होता है, जब एक भगवान्‌ के सिवाय अन्य किसी का आश्रय नहीं रहता ।

व्याख्या—

जब मनुष्य सांसारिक दुःखोंसे घबरा जाता है और उन्हें मिटानेमें अपनी निर्बलताका अनुभव करता है, पर साथ-ही-साथ उसमें यह विश्‍वास रहता है कि सर्वसमर्थ भगवान्‌की कृपासे मेरी यह निर्बलता दूर हो सकती है और मैं सांसारिक दुःखोंसे छूट सकता हूँ, तब वह तत्काल भक्त हो जाता है ।

भक्त का पतन नहीं होता; क्योंकि उसमें अपने बल का आश्रय नहीं होता, प्रत्युत भगवान्‌ के ही बल का आश्रय होता है । वह साधननिष्ठ न होकर भगवन्निष्ठ होता है । इसलिये एक बार भक्त होने के बाद फिर उसका पतन नहीं होता अर्थात्‌ वह पुनः दुराचारी नहीं बनता ।

भगवान्‌ अर्जुनको प्रतिज्ञा करनेके लिये कहते हैं; क्योंकि भक्तकी प्रतिज्ञा भगवान्‌ भी टाल नहीं सकते । भक्ति भगवान्‌की कमजोरी है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥ २९॥

मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। (उन प्राणियोंमें) न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।

व्याख्या—

मनुष्य भगवान्‌को अपनी वस्तुएँ तथा क्रियाएँ अर्पण करे अथवा न करे, भगवान्‌के कुछ फर्क नहीं पड़ता । वे तो सदा समान ही रहते हैं । किसी वर्णविशेष, आश्रमविशेष, जातिविशेष, कर्मविशेष, योग्यताविशेष, आदिका भी भगवान्‌पर कोई असर नहीं पड़ता । अतः प्रत्येक वर्ण, आश्रम, जाति, सम्प्रदाय आदिका मनुष्य उन्हें प्राप्त कर सकता है । भगवान्‌ केवल आन्तरिक भावको ही ग्रहण करते हैं ।

भगवान्‌की दृष्टिमें उनके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, फिर वे किससे द्वेष करें और किससे राग करें ? जीव ही राग-द्वेष करके संसारमें बँध जाता है और राग-द्वेषका त्याग करके मुक्त हो जाता है । इसलिये बन्धन और मुक्ति जीवकी ही होती है, भगवान्‌ की नहीं । विषमता जीव करता है, भगवान्‌ नहीं ।

जो प्रेमपूर्वक भगवान्‌ का भजन करते हैं, वे भगवान्‌ में हैं और भगवान्‍ उनमें हैं अर्थात्‌ भगवान्‌ उनमें विशेषरूप से प्रकट हैं । तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वीमें जल सब जगह रहता है, पर कुएँमें विशेष प्रकट (आवरणसहित) होता है, ऐसे ही भगवान्‌ संसारमात्र में परिपूर्ण होते हुए भी भक्तों में विशेष प्रकट होते हैं । भक्त भगवान्‌ से प्रेम करते हैं और भगवान्‌ भक्त से प्रेम करते हैं (गीता ७ । १७) । इसलिये भक्त भगवान्‌ में हैं और भगवान्‌ भक्तों में हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥ २८॥

इस प्रकार (मेरे अर्पण करनेसे) कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे प्राप्त हो जायगा।

व्याख्या—

‘कर्म’ भी शुभ-अशुभ होते हैं और ‘फल’ भी । दूसरों के हित के लिये करना ‘शुभ कर्म’ है और अपने लिये करना ‘अशुभ कर्म’ है । अनुकूल परिस्थिति ‘शुभ फल’ है और प्रतिकूल परिस्थिति ‘अशुभ फल’ है । भगवान्‌ का भक्त शुभकर्मों को भगवान्‌ के अर्पण करता है, अशुभ कर्म करता नहीं और शुभ-अशुभ फल से अर्थात्‌ अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिसे सुखी-दुःखी नहीं होता । उसके अनन्त जन्मोंके संचित शुभाशुभ कर्म भस्म हो जाते हैं; जैसे -घासके ढेरमें जलता हुआ टुकड़ा फेंकनेसे सब घास जल जाता है । भगवान्‌ के अर्पण करने से संसार का सम्बन्ध (गुणसंग) नहीं रहता, प्रत्युत केवल भगवान्‌ का सम्बन्ध रह जाता है, जो कि स्वतः पहले से ही है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥ २७॥

हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।

व्याख्या—

ज्ञानयोगी तो संसारके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग करता है, पर भक्त एक भगवान्‌के सिवाय दूसरी सत्ता मानता ही नहीं । इसलिये ज्ञानयोगी पदार्थ तथा क्रियाका त्याग करता है, और भक्त पदार्थ तथा क्रियाको भगवान्‌के अर्पण करता है अर्थात्‌ उनको अपना न मानकर भगवान्‌का और भगवत्स्वरूप मानता है । वास्तवमें भक्त अपने-आपको ही भगवान्‌के समर्पित कर देता है । स्वयं समर्पित होनेसे उसके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण लौकिक-पारमार्थिक क्रियाएँ भी स्वाभाविक भगवान्‌के समर्पित हो जाती हैं ।

पूर्वपक्ष-यदि कोई निषिद्ध क्रिया करके उसे भगवान्‌के अर्पित कर दे तो ?

उत्तरपक्ष- वही वस्तु या क्रिया भगवान्‌के अर्पित की जाती है, जो भगवान्‌के अनुकूल, उनके अनुसार होती है । जिस भक्तका भगवान्‌के प्रति अर्पण करनेका भाव है, उसके द्वारा न तो निषिद्ध क्रिया होगी और न निषिद्ध क्रिया अर्पित ही होगी । भगवान्‌को दिया हुआ अनन्त गुणा होकर मिलता है । यदि कोई निषिद्ध क्रिया भगवान्‌के अर्पित करेगा तो उसका फल भी दण्डरूपसे अनन्त गुणा होकर मिलेगा !

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.२०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥ २६॥

जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु)-को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्त:करणवाले भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट)-को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।

व्याख्या—

देवताओं की उपासना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है; परन्तु भगवान्‌ की उपासना में कोई नियम नहीं है । भगवान्‌ की उपासना में प्रेम की, अपनेपन की प्रधानता है, विधि की नहीं । भगवान्‍ भावग्राही हैं, क्रियाग्राही नहीं ।

जैसे भोला बालक जो कुछ हाथ में आये, उसको मुँह में डाल लेता है, ऐसे ही भोले भक्त भगवान्‌ को जो भी अर्पण करते हैं, उसे भगवान्‌ भी भोले बनकर खा लेते हैं । ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌’ (गीता ४ । ११); जैसे- विदुरानीने केवल केले का छिलका दिया तो भगवान्‌ ने उसे ही खा लिया !

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रता:।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥ २५॥

(सकामभावसे) देवताओंका पूजन करनेवाले (शरीर छोडऩेपर) देवताओंको प्राप्त होते हैं। पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करनेवाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।

व्याख्या—

वास्तवमें सब कुछ भगवान्‌का ही रूप है । परन्तु जो भगवान्‌के सिवाय दूसरी कोई भी स्वतन्त्र सत्ता मानता है, उसका उद्धार नहीं होता । वह ऊँचे-से-ऊँचे लोकोंमें भी चला जाय तो भी उसे लौटकर संसारमें आना ही पड़ता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥ २३॥
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥ २४॥

हे कुन्तीनन्दन ! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओं का पूजन करते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, पर करते हैं अविधि पूर्वक अर्थात् देवताओं को मुझसे अलग मानते हैं।
क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ; परन्तु वे मुझे तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है।

व्याख्या—

‘त्रैविद्या माम्‌’ (९ । २०), ‘अनन्याश्‍चिन्त-यन्तो माम्‌’ (९ । २२) और ‘ते$पि मामेव’ (९ । २३)-तीनों जगह भगवान्‌के द्वारा ‘माम्‌’ पद देनेका तात्पर्य है कि सब कुछ मैं ही हूँ, सब मेरा ही स्वरूप हैं । यदि साधकमें कामना न हो और सबमें भगवद्‌बुद्धि हो तो वह किसीकी भी उपासना करे, वह वास्तवमें भगवान्‌की ही उपासना होगी । तात्पर्य है कि यदि निष्कामभाव और भगद्‌बुद्धि हो जाय तो उसका पूजन अविधिपूर्वक नहीं रहेगा, प्रत्युत वह भगवान्‌का ही पूजन हो जायगा ।

जब मनुष्य अपने को भोगों का भोक्ता और संग्रह का स्वामी मानकर उनका दास बन जाता है और भगवान्‌ से सर्वथा विमुख हो जाता है, तब उसे यह बात याद नहीं रहती कि सबके भोक्ता और स्वामी भगवान्‌ हैं । इस कारण उसक पतन हो जाता है । परन्तु जब उसे चेत हो जाता है कि वास्तवमें सम्पूर्ण भोगों और संग्रहों के स्वामी भगवान्‌ ही हैं, तब वह भगवान्‌ के शरणागत हो जाता है । फिर उसका पतन नहीं होता ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥ २२॥

जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भलीभाँति उपासना करते हैं,मुझमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।

व्याख्या—

भगवान्‌के अनन्यभक्त न तो पूर्वश्लोकमें वर्णित इन्द्रको मानते हैं और न अगले श्लोकमें वर्णित अन्य देवताओंको मानते हैं । इन्द्रादिकी उपासना करनेवालोंको नाशवान्‌ फल मिलता है, पर भगवान्‍६की उपासना करनेवालोंको अविनाशी फल मिलता है । देवताओंक उपासक तो नौकरकी तरह है और भगवान्‌क उपासक घरके सदस्यकी तरह है । नौकर काम करता है तो उसे कामके अनुसार सीमित पैसे मिलते हैं, पर घरका सदस्य काम करे अथवा न करे, सब कुछ उसी का होता है । बालक क्या काम करता है ?

भगवान्‌ भक्तको उसके लिये आवश्यक साधन-सामग्री प्राप्त कराते हैं और प्राप्त सामग्रीकी रक्षा करते हैं- यही भगवान्‌का योगक्षेम वहन करना है । यद्यपि भगवान्‍६ सभी साधकोंक योगक्षेम वहन करते हैं, तथापि अपने अनन्यभक्तोंका योगक्षेम वे विशेषरूपसे वहन करते हैं; जैसे-प्यारे बच्चेका पालन माँ स्वयं करती है, नौकरोंसे नहीं करवाती ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं- क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना- गतागतं कामकामा लभन्ते॥ २१॥

वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते हैं।

व्याख्या—

सकाम अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य्के जब स्वर्गके प्रतिबन्धक पाप नष्ट हो जाते हैं, तब वे स्वर्गमें चले जाते हैं । स्वर्गका सुख भोगते-भोगते जब उनके स्वर्गके प्रापक पुण्य नष्ट हो जाते हैं, तब वे पुनः मृत्युलोकमें आ जाते हैं । इस प्रकार कामनाके कारण मनुष्य आवागमनको प्राप्त होता रहता है, संसार-चक्रमें घूमता रहता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा-
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥ २०॥

तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले और सोमरसको पीनेवाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा (इन्द्ररूपसे) मेरा पूजन करके स्वर्गप्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं, वे (पुण्योंके फलस्वरूप) पवित्र इन्द्रलोकको प्राप्त करके वहाँ स्वर्गके देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं।

व्याख्या—

यहाँ ऐसे मनुष्योंका वर्णन है, जिनके भीतर संसारकी सत्ता और महत्ता बैठी हुई है और जो भगवान्‌की अविधिपूर्वक उपासन करते हैं (गीता ९ । २३ ) । ऐसे मनुष्योंकी उपासनाका फल नाशवान्‌ ही होता है (गीता ७ । २३) ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥ १९॥

हे अर्जुन! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, मैं ही जलको ग्रहण करता हूँ और (फिर उस जलको मैं ही) वर्षारूपसे बरसा देता हूँ। (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।

व्याख्या—
जो देखने, सुनने, पढ़ने तथा कल्पना करनेमें आता है और जिन शरीर-इन्द्रियाँ-म्न-बुद्धि-अहम्‌के द्वारा देखा, सुना, पढ़ा, सोचा जाता है, वह सब-का-सब असत्‌ (अपरा प्रकृति) है । परन्तु जो देखता, सुनता, पढ़ता, सोचता, जानता, मानता है, वह सत्‌ (परा प्रकृति) है । भगवान्‌ कहते हैं कि सत्‌ भी मैं हूँ और असत्‌ भी मैं हूँ ।
जैसे अन्नकूटके प्रसादमें रसगुल्ले, गुलाबजामुन आदि भी होते हैं और मेथी, करेले आदि का साग भी होता है अर्थात्‌ मीठा भी भगवान्‌का प्रसाद होता है और क्ड़वा भी । ऐसे ही अमृत भी भगवान्‌ हैं और मृत्यु भी । सूर्यरूपसे जलको ग्रहण करना और फित उसे बरसा देना-ये दोनों विपरीत कार्य (ग्रहण और त्याग) भी भगवान्‌ ही करते हैं ।
‘सद्सच्चाहम्‌’ (सत्‌ और असत्‌ भी मैं ही हूँ)- इसमें विवेक नहीं है, प्रत्युत विश्वास है । विश्वास विवेकसे भी तेज होता है कारण कि विवेक वहीं काम करता है, जहाँ सत्‌ और असत्‌- दोनों का विचार होता है । जब असत्‌ है ही नहीं तो फिर विवेक क्या करे ? विवेकमें तो सत्‌-असत्‌ विभाग है, पर विश्वासमें विभाग है ही नहीं । विश्वासमें केवल सत्‌-ही-सत्‌ अर्थात्‌ भगवान्‌-ही-भगवान्‌ हैं ।
ज्ञानमार्गमें सत्‌-असत्‌का विवेक मुख्य होनेसे इसमें ‘द्वैत’ है, पर भक्तिमार्गमें एक भगवान्‌का ही विश्वास मुख्य होनेसे इसमें ‘अद्वैत’ है । तात्पर्य है कि दो सत्ता न होनेसे वास्तविक अद्वैत भक्तिमें ही है ।
ज्ञानमार्गमें साधक असत्‌का निषेध करता है । निषेध करनेसे असत्‌की सत्ताका भाव बहुत समयतक बना रहता है । साधक असत्‌के निषेधपर जोर लगाता है, उतना ही असत्‌की सत्ताका भाव दृढ़ होता है । अतः असत्‌का निषेध करना उतना बढ़िया नहीं है, जितना उसकी उपेक्षा करना बढ़िया है । उपेक्षा करने की अपेक्षा भी ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’- यह भाव और भी बढ़िया है । अतः भक्त न असत्‌ को हटाता है, न असत्‌ की उपेक्षा करता है, प्रत्युत सत्‌-असत्‌ सब में भगवान्‌ को ही देखता है ।
अपने सहित इस संसार में जो कुछ दीखता है, वह भगवान्‍ का स्वरूप है और इसमें जो क्रिया दीख रही है, वह भगवान्‌की लीला है । भगवान्‌ और उनकी लीलाके सिवाय कुछ नहीं है । कोई जन्म गया, कोई मर गया, किसीका विवाह हो गया, किस्की सन्तान हो गयी, कोई बीमार हो गया, कोई नीरोग हो गया, किसीका आदर हो गया, किसीका निरादर हो गया, किसीको नफा हो गया, किसीको घाटा लग गया, कोई धनवान्‌ हो गया, कोई निर्धन हो गया- यह सब-का-सब भगवान्‌की लीला है । सर्ग-प्रलय भी उनकी लीला है और महा सर्ग-महाप्रलय भी उनकी लीला है । वे कभी सत्ययुगकी लीला करते हैं, कभी त्रेतायुगकी लीला करते हैं, कभी द्वापरयुगकी लीला करते हैं और कभी कलियुगकी लीला करते हैं । इस प्रकार भगवान्‌ और उनकी लीलाको देख-देखकर साधकको आनन्दित रहना चाहिये ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥ १६॥
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च॥ १७॥
गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्।
प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥ १८॥

क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ । जाननेयोग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ । इस सम्पूर्ण जगत् का निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान,निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ ।

व्याख्या—

उपर्युक्त श्लोकोंको देखते हुए साधक यह बात दृढ़तासे स्वीकार कर ले कि कार्य-कारणरूपसे स्थूल-सूक्ष्मरूप जो कुछ देखने, सुनने, समझने और माननेमें आता है, वह सब केवल भगवान्‌ ही हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥ १५॥

दूसरे साधक ज्ञानयज्ञके द्वारा एकीभावसे (अभेदभावसे) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे भी कई साधक (अपनेको) पृथक् मानकर चारों तरफ मुखवाले मेरे विराट्-रूप की अर्थात् संसारको मेरा विराट्-रूप मानकर सेव्य-सेवक भावसे मेरी अनेक प्रकारसे उपासना करते हैं।

व्याख्या—

साधकोंकी रुचि, योग्यता और श्रद्धा-विश्वास अलग-अलग होनेके कारण उनके साधन भी अलग-अलग होते हैं । अलग-अलग साधनोंसे वे जिसकी भी उपासना करते हैं, वह भगवान्‌के समग्ररूपकी ही उपासना होती है । आगे सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक इसी समग्ररूपका वर्णन हुआ है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.११)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता:।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥ १४॥

नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर लगनपूर्वक साधन में लगे हुए और प्रेमपूर्वक कीर्तन करते हुए तथा मुझे नमस्कार करते हुए निरन्तर मेरी उपासना करते हैं।

व्याख्या—

भक्त जो कुछ कहता है, वह सब भगवान्‌का ही कीर्तन होता है । वह जो कुछ भी क्रिया करता है, वह सब भगवान्‌की ही सेवा होती है । उसकी सम्पूर्ण लौकिक और पारमार्थिक क्रियाएँ केवल भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये ही होती हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.१०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस:।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता:॥ १२॥
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥ १३॥

जो आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृतिका ही आश्रय लेते हैं, ऐसे अविवेकी मनुष्योंकी सब आशाएँ व्यर्थ होती हैं, सब शुभकर्म व्यर्थ होते हैं और सब ज्ञान व्यर्थ होते हैं अर्थात् उनकी आशाएँ, कर्म और ज्ञान (समझ) सत्-फल देनेवाले नहीं होते।
परन्तु हे पृथानन्दन! दैवी प्रकृतिके आश्रित अनन्यमनवाले महात्मालोग मुझे सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि और अविनाशी समझकर मेरा भजन करते हैं।

व्याख्या—

जो मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करनेमें लगे रहते हैं, दूसरोंके दुःखकी परवाह नहीं करते, वे ‘आसुरी’ स्वभाववाले होते हैं । जो स्वर्थसिद्धिमें बाधा लगनेपर क्रोधवश दूसरोंक नाश कर देते हैं, वे ‘राक्षसी’ स्वभाववाले होते हैं । जो बिना किसी कारणके दूसरोंको कष्ट पहुँचाते हैं, वे ‘मोहिनी’ स्वभाववाले होते हैं । आसुरी, राक्षसी और मोहिनी- तीनों ही स्वभाववाले मनुष्य आसुरी सम्पत्तिके अन्तर्गत आ जाते हैं, जो चौरासी लाख योनियों तथा नरकोंकी प्राप्ति करानेवाली है ।

व्याख्या—

जो जिसके महत्त्वको जितना अधिक जानता है, वह उतना ही उसमें लग जाता है । जिन्होंने भगवान्‌को ही सर्वोपरि मान लिया है, वे दैवी स्वभाववाले महात्मा पुरुष भगवान्‌में ही लग जाते हैं । भोग तथा संग्रहकी तरफ उनकी वृत्ति कभी जाती ही नहीं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥ ११॥

मूर्खलोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियोंके महान् ईश्वररूप श्रेष्ठभावको न जानते हुए मुझे मनुष्यशरीरके आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं।

व्याख्या—

भगवान्‌से बड़ा कोई ईश्वर नहीं है । वे सर्वोपरि हैं । परन्तु अज्ञानी मनुष्य उन्हें स्वरूपसे नहीं जानते । वे अलौकिक भगवान्‌को भी अपनी तरह लौकिक मानकर उनकी अवहेलना करते हैं और नाशवान्‌ शरीर-संसारकी ही सत्ता मानकर भोग तथा संग्रहमें लगे रहते हैं ।

ॐ तत्सत् !

Thursday 4 May 2017

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥ १०॥

प्रकृति मेरी अध्यक्षतामें चराचरसहित सम्पूर्ण जगत्की रचना करती है। हे कुन्तीनन्दन! इसी हेतुसे जगत् का (विविध प्रकारसे) परिवर्तन होता है।

व्याख्या—

भगवान्‌से सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही प्रकृति चराचरसहित सम्पूर्ण प्राणियोंकी रचना करती है । प्रकृतिमें कितना ही परिवर्तन हो जाय, परमात्मा वैसे-के-वैसे ही रहते हैं । इसी प्रकार भगवान्‌का अंश भी सदा निर्लिप्त, असंग रहता है । प्रकृति तो परमात्माके अधीन रहकर सृष्टिकी रचना करती है, पर जीव प्रकृतिके अधीन होकर जन्म-मरणके चक्रमें घूमता है । तात्पर्य है कि परमात्मा तो स्वतन्त्र हैं, पर उनका अंश जीवात्मा सुखकी इच्छासे परतन्त्र हो जाता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥ ८॥
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥ ९ ॥

प्रकृतिके वशमें होनेसे परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण प्राणिसमुदायकी (कल्पोंके आदिमें) मैं अपनी प्रकृतिको वशमें करके बार-बार रचना करता हूँ।

हे धनंजय ! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मोंमें अनासक्त और उदासीनकी तरह रहते हुए मुझे वे कर्म नहीं बाँधते।

व्याख्या—

प्रकृति परमात्माकी एक अनिवर्चनीय अलौकिक विलक्षण शक्ति है । ऐसी अपनी प्रकृतिको स्वीकार करके ही भगवान्‌ सृष्टिकी रचना करते हैं । कारण कि सृष्टिमें जो परिवर्तन, उत्पत्ति-विनाश, आदि-अन्त होता है, वह सब प्रकृतिमें ही होता है, भगवान्‌में नहीं । इसलिये भगवान्‌ क्रियाशील प्रकृतिको लेकर ही सृष्टिकी रचना करते हैं । इसमें भगवान्‌की कोई असमर्थता, पराधीनता, कमजोरी आदि नहीं है । भगवान्‌का प्रकृतिपर आधिपत्य होनेपर भी उनमें लिप्तता, कर्तृत्व आदि नहीं होते ।

भगवान्‌ उन्हीं प्राणियोंकी रचना करते हैं, जो प्रकृतिके परवश हैं अर्थात्‌ जिन्होंने प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ रखा है ।

कर्मासक्ति, फलासक्ति और कर्तृत्वाभिमानके कारण मनुष्य कर्मोंसे बँध जाता है । परन्तु भगवान्‌ में न तो कर्मासक्ति है, न फलासक्ति है और न कर्तृत्वाभिमान ही है, इसलिये वे सृष्टि-रचना आदि कर्मोंसे नहीं बँधते ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥ ७॥

हे कुन्तीनन्दन! कल्पोंका क्षय होनेपर (महाप्रलयके समय) सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं और कल्पोंके आदिमें (महासर्गके समय) मैं फिर उनकी रचना करता हूँ ।

व्याख्या—

पूर्व श्लोकमें वर्णित स्थिति न होनेपर मनुष्यकी क्या दशा होती है- इसे भगवान्‌ इस श्लोकमें बताते हैं । महाप्रलयके समय प्रकृतिके परवश हुए सम्पूर्ण प्राणी अपने-अपने कर्मों को लेकर भगवान्‌ की प्रकृति में लीन हो जाते हैं । प्रकृति में लीन हुए उन प्राणियों के कर्म जब परिपक्व होकर फल देनेके लिये उन्मुख हो जाते हैं, तब भगवान्‌में ‘बहु स्यां प्रजायेय’ ‘मैं अनेक रूपों में प्रकट हो जाउँ’ (छान्दोग्य० ६ । २ । ३)--ऐसा संकल्प हो जाता है और महासर्ग का आरम्भ हो जाता है । महासर्ग के आदि में भगवान्‌ उन प्राणियों के परिपक्व कर्मों का फल देकर शुद्ध करने के लिये उनके शरीरों की रचना करते हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय॥ ६॥

जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है,ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं—ऐसा तुम मान लो।

व्याख्या—

जैसे वायु आकाश से ही उत्पन्न होती है, आकाश में ही स्थित रहती है तथा आकाश में ही लीन हो जाती है अर्थात्‌ आकाश को छोड़कर वायु की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी भगवान्‌ से ही उत्पन्न होते हैं, भगवान्‌ में ही स्थित रहते हैं तथा भगवान्‌ में ही लीन हो जाते हैं अर्थात्‌ भगवान्‌ को छोड़कर प्राणियों की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं-इस बात को साधक दृढ़ता से स्वीकार कर ले तो उसे ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’--इस वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जायगा ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित:॥ ४॥
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:॥ ५॥

यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूपसे व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मुझमें स्थित हैं;परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा वे प्राणी भी मुझमें स्थित नहीं हैं—मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग (सामर्थ्य)-को देख। सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाला और प्राणियोंका धारण, भरण-पोषण करनेवाला मेरा स्वरूप उन प्राणियोंमें स्थित नहीं है।

व्याख्या—

बर्फ में जल की तरह संसारमें सत्ता (‘है’)-रूपसे एक सम, शान्त, सद्‌घन, चिद्‌घन और आनन्दघन परमात्मतत्त्व परिपूर्ण है । उस अविभक्त सत्ता में मैं, तू, यह तथा वह-ये चार विभाग नहीं हैं ।

जब तक साधक में यह भाव है कि परमात्मा और संसार दो हैं, तब तक उसको यह समझना चाहिये कि परमात्मामें संसार है, संसारमें परमात्मा हैं । परन्तु जब दोका भाव न हो, तब न परमात्मामें संसार है, न संसारमें परमात्मा हैं । संसारको स्वतन्त्र सत्ता जीवने ही दी है । जबतक अहंता, ममता और कामना है, तबतक (साधककी दृष्टिमें) परमात्मामें संसार है और संसारमें परमात्मा हैं । परन्तु अहंता, ममता और कामना मिटनेपर (सिद्धकी दृष्टिमें) न परमात्मा में संसार है, न संसारमें परमात्मा हैं अर्थात्‌ परमात्मा-ही-परमात्मा हैं-‘वासुदेवः सर्वम्‌’ ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥ ३॥

हे परन्तप! इस धर्मकी महिमापर श्रद्धा न रखने-वाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसारके मार्गमें लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।

व्याख्या—

पूर्वश्लोकमें कथित विज्ञानसहित ज्ञानकी की महिमा पर श्रद्धा न रखनेवाले मनुष्य इससे लाभ नहीं उठाते, प्रत्युत नाशवान्‌ शरीर-संसारको महत्त्व देकर बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं । ऐसे अश्रद्धालु मनुष्य स्वतःप्राप्त अमरताका मार्ग छोड़कर मृत्युके मार्गपर चलते रहते हैं, जिसमें केवल मृत्यु-ही-मत्यु है । मनुष्यशरीरमें भगवत्प्राप्तिका बहुत श्रेष्ठ अवसर था, पर वे उस मार्गकॊ पकड़ लेते हैं, जिस मार्गमें कभी भगवत्प्राप्ति न हो सके । उनकी ऐसी दशाको देखकर भगवान्‌ मानो दुःखके साथ कहते हैं-‘ अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि’ ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥ २॥

यह (विज्ञानसहित ज्ञान अर्थात् समग्ररूप) सम्पूर्ण विद्याओंका राजा और सम्पूर्ण गोपनीयोंका राजा है। यह अति पवित्र तथा अति श्रेष्ठ है और इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है और करनेमें बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।

व्याख्या—

यह विज्ञानसहित ज्ञान करनेमें बहुत सुगम है; क्योंकि ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’ - इसे स्वीकारमात्र करना है । इसमें कोई परिश्रम अथवा अभ्यास नहीं है

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - नवाँ अध्याय (पोस्ट.०१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

श्रीभगवानुवाच

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥ १॥

श्रीभगवान् बोले—

यह अत्यन्त गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञान दोषदृष्टिरहित तेरे लिये तो मैं फिर अच्छी तरहसे कहूँगा, जिसको जानकर तू अशुभसे अर्थात् जन्म-मरणरूप संसारसे मुक्त हो जायगा।

व्याख्या—

कर्मयोग (निष्काम भाव) ‘गुह्य’ है, ज्ञानयोग (आत्मज्ञान) ‘गुह्यतर’ है, और भक्तियोग (परमात्मज्ञान) ‘गुह्यतम’ है ।

अपने स्वरूप को जानना ‘ज्ञान’ है और समग्र भगवान्‌को जानना ‘विज्ञान’ है । समग्र सगुण ही हो सकता है; क्योंकि निर्गुण के अन्तर्गत तो सगुण नहीं आ सकता है; क्योंकि निर्गुण के अन्तर्गत तो सगुण नहीं आ सकता, पर सगुणके अन्तर्गत निर्गुण भी आ जाता है ।

सातवें अध्याय से भगवान्‌ विज्ञानसहित ज्ञान का वर्णन कर रहे थे, पर बीचमें अर्जुन के द्वारा सात प्रश्न कर दिये जाने से भगवान्‌ ने आठवें अध्याय में उनका विस्तार से उत्तर दिया । अब भगवान्‌ अपनी ओर से पुनः उस विज्ञानसहित ज्ञान का वर्णन आरम्भ करते हैं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.१८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥ २८॥

योगी (भक्त) इसको (इस अध्यायमें वर्णित विषयको) जानकर वेदों में, यज्ञों में,तपों में तथा दान में जो-जो पुण्यफल कहे गये हैं, उन सभी पुण्यफलों का अतिक्रमण कर जाता है और आदि-स्थान परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या—

पूर्वश्लोकमें शुक्ल और कृष्ण-दोनों गतियों का उपसंहार करके अब भगवान्‌ यहाँ पूरे अध्यायका उपसंहार करते हैं । वेदाध्ययन, यज्ञ, तप, दान आदि जितने भी पुण्यकर्म हैं, उनका अधिक-से-अधिक फल ब्रह्मलोककी प्राप्ति होना है, जहाँसे पुनः लौटकर संसारमें आना पड़ता है, परन्तु भगवान्‌का आश्रय लेनेवाला भक्त उस ब्रह्मलोकका भी अतिक्रमण करके परमधामको प्राप्त हो जाता है, जहाँसे पुनः लौटकर संसारमें नहीं आना पड़ता ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्याय:॥ ८॥

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.१७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥ २५॥
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुन:॥ २६॥
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥ २७॥

जिस मार्ग में धूमका अधिपति देवता, रात्रिका अधिपति देवता, कृष्णपक्षका अधिपति देवता और छ: महीनोंवाले दक्षिणायन का अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर उस मार्गसे गया हुआ योगी (सकाम मनुष्य) चन्द्रमा की ज्योतिको प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त होता है।

क्योंकि शुक्ल और कृष्ण—ये दोनों गतियाँ अनादिकालसे जगत् (प्राणिमात्र)-के साथ सम्बन्ध रखने वाली मानी गयी हैं। इनमें से एक गति में जानेवाले को लौटना नहीं पड़ता और दूसरी गति में जानेवाले को पुन: लौटना पड़ता है।

हे पृथानन्दन ! इन दोनों मार्गों को जाननेवाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। अत: हे अर्जुन! तू सब समय में योगयुक्त (समतामें स्थित) हो जा।

व्याख्या—

सकाम (भोग तथा संग्रह की कामना वाला) मनुष्य ही मोहित होता अर्थात्‌ जन्म-मरण में जाता है । शुक्ल और कृष्णमार्ग को जानने वाला मनुष्य निष्काम (योगी) हो जाता है, इसलिये वह जन्म-मरण में नहीं जाता अर्थात्‌ कृष्णमार्ग को प्राप्त नहीं होता ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.१६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:॥ २४॥

जिस मार्ग में प्रकाशस्वरूप अग्नि का अधिपति देवता, दिन का अधिपति देवता,शुक्लपक्ष का अधिपति देवता और छ: महीनोंवाले उत्तरायण का अधिपति देवता है, उस मार्ग से शरीर छोड़कर गये हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष (पहले ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर पीछे ब्रह्माके साथ) ब्रह्मको प्राप्त हो जाते हैं।

व्याख्या—

पहले साधनावस्था में जिनके भीतर ब्रह्मलोक की वासना अथवा अपने मत का आग्रह रहा है, वे क्रममुक्ति से पहले ब्रह्मलोक में जाते हैं और फिर महाप्रलय आने पर ब्रह्माजी के साथ मुक्त हो जाते हैं ।
क्रममुक्ति में ब्रह्मलोक मार्ग में आनेवाले एक स्टेशन की तरह है, जहाँ भोगों की वासना वाले मनुष्य उतरते हैं । परन्तु जिनमें भोगों की वासना नहीं है, वे वहाँ नहीं उतरते । हमारा कोई प्रयोजन न हो तो मार्ग में स्टेशन आये या जंगल, क्या फर्क पड़ता है !

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.१५)


यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥ २३॥

परन्तु हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! जिस काल अर्थात् मार्ग में शरीर छोड़कर गये हुए योगी अनावृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर नहीं आते और जिस मार्गमें गये हुए आवृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर आते हैं, उस कालको अर्थात् दोनों मार्गों को मैं कहूँगा।

व्याख्या—

जैसे किसी स्थानपर हमारी कोई वस्तु (कपड़ा, थैला, रुपये आदि) छूट जाती है तो उसे लनेके लिये हम वापिस उस स्थानपर जाते हैं, ऐसे ही संसार में किसी वस्तु-व्यक्ति में मनुष्यकी आसक्ति रहती है तो उसे पुनः लौटकर संसार में आना पड़ता है । तात्पर्य है कि परिवर्तनशील शरीर-संसार के साथ सम्बन्ध रखने से पीछे लौटकर आना पड़ता है और शरीर-संसार के साथ सम्बन्ध न रखने से पीछे लौटकर नहीं आना पड़ता ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.१४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥ २२॥

हे पृथानन्दन अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्यभक्तिसे प्राप्त होनेयोग्य है ।

व्याख्या—
ज्ञानमार्ग में तो ज्ञानी पुरुष संसार से छूट जाता है, मुक्त हो जाता है और अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है । परन्तु भक्तिमार्ग में संसार से मुक्त होने के साथ-साथ भक्त को भगवान्‌ की तथा उनके प्रेम की भी प्राप्ति हो जाती है । अतः कर्मयोग तथा ज्ञानयोग तो साधन हैं और भक्तियोग साध्य है ।

 ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.१३)



परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥ २०॥
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥ २१॥

परन्तु उस अव्यक्त (ब्रह्माके सूक्ष्मशरीर)-से अन्य (विलक्षण) अनादि अत्यन्त श्रेष्ठ भावरूप जो अव्यक्त (ईश्वर) है, वह सम्पूर्ण प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।
उसी को अव्यक्त और अक्षर—ऐसा कहा गया है तथा उसी को परम गति कहा गया है और जिस को प्राप्त होने पर जीव फिर लौटकर संसार में नहीं आते, वह मेरा परम धाम है।

व्याख्या—
ब्रह्माजी के सूक्ष्मशरीर से भी श्रेष्ठ कारणशरीर (मूल प्रकृति) है और उससे भी श्रेष्ट परमात्मा हैं । परमात्मा के समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर उनसे श्रेष्ठ श्रेष्ट कोई हो ही कैसे सकता है (गीता ११ । ४३) । असंख्य ब्रह्मा जी उत्पन्न हो-होकर लीन हो गये, पर परमात्मा वैसे-के-वैसे ही हैं ।
वास्तवमें परमात्मतत्त्व वर्णनातीत है । अव्यक्त, अक्षर, परमगति आदि नाम उस तत्त्व का संकेतमात्र करते है; क्योंकि वह अव्यक्त-व्यक्त, अक्षर-क्षर, गति-स्थिति आदिसे रहित निरपेक्ष तत्त्व है । उसे प्राप्त होनेपर जीव लौटकर संसारमें नहीं आता । कारण कि जीव उस परमात्मतत्त्वका सनातन अंश होनेसे उससे अलग नहीं है । संसारमें तो वह भूलसे अपनेको स्थित मानता है । वास्तवमें शरीर ही संसारमें स्थित है, स्वयं नहीं ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी- आठवाँ अध्याय (पोस्ट.१२)


अव्यक्ताद्-व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके॥ १८॥
भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥ १९॥

ब्रह्मा के दिन के आरम्भकाल में अव्यक्त (ब्रह्माके सूक्ष्मशरीर)-से सम्पूर्ण शरीर पैदा होते हैं और ब्रह्मा की रात के आरम्भकाल में उस अव्यक्त नाम वाले (ब्रह्माके सूक्ष्मशरीर)-में ही सम्पूर्ण शरीर लीन हो जाते हैं।
हे पार्थ ! वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृति के परवश हुआ ब्रह्मा के दिन के समय उत्पन्न होता है और ब्रह्माकी रात्रिके समय लीन होता है।

व्याख्या—
बदलनेवाले शरीर-संसार का विभाग अलग है और न बदलनेवाले आत्मा-परमात्मा का विभाग अलग है । शरीर-संसार तो बार-बार उत्पन्न होते और नष्ट होते हैं, पर आत्मा-परमात्मा वे-के-वे ही रहते हैं । कितने ही प्रलय-महाप्रलय और सर्ग-महासर्ग क्यों न हो जाँय, जीवात्मा स्वयं वही-का-वही रहता है । इसलिये देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, अवस्था, परिस्थिति आदि के अभाव का अनुभव तो सब को होता है, पर स्वयं के अभाव का अनुभव कभी किसी को नहीं होता । परन्तु शरीर को मैं, मेरा तथा मेरे लिये मान लेने के कारण शरीर के परिवर्तन को जीवात्मा अपना परिवर्तन मान लेता है और बार-बार जन्मता-मरता रहता है ।
जैसे रेलगाड़ी पर चढ़ने से मनुष्य रेलगाड़ी के परवश हो जाता है, जहाँ रेलगाड़ी जायगी, वहाँ उसे जाना ही पड़ता है, ऐसे ही शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़ने से मनुष्य प्रकृति के परवश हो जाता है और उसे जन्म-मरण के चक्र में जाना ही पड़ता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.११)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जना:॥ १७॥

जो मनुष्य ब्रह्मा के एक हजार चतुर्युगी वाले एक दिन को और एक हजार चतुर्युगी वाली एक रात्रि को जानते हैं, वे मनुष्य ब्रह्मा के दिन और रात को जानने वाले हैं।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधिनी आठवाँ अध्याय (पोस्ट.१०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


आब्रह्राभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥१६॥

हे अर्जुन! ब्रह्मलोक तक सभी लोक पुनरावर्ती वाले हैं अर्थात वहाँ जाने पर पुनः लौटकर संसार में आना पड़ता है; परन्तु हे कौन्तेय! मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता।

व्याख्या- भोग और संग्रह की आसक्ति से ही पुनर्जन्म होता है। इसलिये जिस मनुष्य में भोग और संग्रह की आसक्ति है, वह यदि पुण्यकर्मों के प्रभाव से ब्रह्मलोक तक चला जाय तो भी उसे लौटकर जन्म-मरण में अर्थात दुःखालय संसार में आना ही पड़ता है। ब्रह्मलोक तक सभी लोकों की प्राप्ति का फल है। जब तक प्रत्येक कर्म का आरम्भ और अन्त होता है तो फिर उसका फल अविनाशी कैसे होगा? परन्तु परमात्म की प्राप्ति कर्मों का फल नहीं है। अतः परमात्मा की प्राप्ति होने पर फिर वहाँ से लौटकर दुःखालय संसार में नहीं आना पड़ता।
ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.०९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता:॥ १५॥

महात्मा लोग मुझे प्राप्त करके दु:खालय अर्थात् दु:खोंके घर और अशाश्वत अर्थात् निरन्तर बदलने वाले पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते; क्योंकि वे परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं अर्थात् उनको परम प्रेम की प्राप्ति हो गयी है।

व्याख्या—

भोग और संग्रहमें लगे हुए सकाम मनुष्यके लिये तो यह संसार दुःखालय है, पर सेवा और भगवद्भजन में लगे हुए निष्काम मनुष्य के लिये यह संसार भगवत्स्वरूप है ।

परमात्मतत्त्व की प्राप्ति एक बार होती है और सदा के लिये होती है, इसलिये परमात्मा को प्राप्त हुए मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता, वह सदा-सदा के लिये जन्म-मरण से छूट जाता है । यदि उसमें भक्ति के संस्कार हों तो वह जन्म-मरण से मुक्ति के साथ-साथ प्रतिक्षण वर्धमान परम प्रेम को भी प्राप्र कर लेता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.०८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

   सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरूध्य च । 
मूर्ध्न्याधायात्मन: प्राण-मास्थितो योगधारणाम् ॥१२॥ 
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्रा व्याहरन्मामनुस्मरन् । 
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥१३॥  
 
(इन्द्रियों के) सम्पूर्ण द्वारों को रोककर मन का हृदय में निरोध करके और अपने प्राणों को मस्तक में स्थापित करके योग धारणा में सम्यक प्रकार से स्थित हुआ जो साधक ‘ऊँ’ इस एक अक्षर ब्रह्म का (मानसिक) उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़कर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। 

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.०७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

   प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥१०॥  
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागा: ।
यदिच्छन्तो ब्रह्राचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥११॥ 

वह भक्ति युक्त मनुष्य अन्तसमय में अचल मन से और योग बल के द्वारा भृकुटी के मध्य में प्राणों को अच्छी तरह से प्रविष्ट करके (शरीर छोड़ने पर) उस परम दिव्य पुरुष को ही प्राप्त होता है। 
वेदवेत्ता लोग जिसको अक्षर कहते हैं, वीतराग यदि जिसको प्राप्त करते हैं और साधक जिसकी प्राप्ति की इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वह पद मैं तेरे लिये संक्षेप से कहूँगा। 

व्याख्या- इस श्लोक में संकेत रूप से चारों आश्रमों का वर्णन ले सकते हैं; जैसे- ‘यदक्षरं वेदविदो वदन्ति’ पदों से गृहस्थाश्रम, ‘विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः’ पदों से संन्यास और वानप्रस्थ-आश्रम तथा ‘यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति’ पदों से ब्रह्मचर्याश्रम ले सकते हैं। तात्पर्य है कि चारों आश्रमों का एकमात्र उद्देश्य परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना है।

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.०६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 

 अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥८॥ 
कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमस: परस्तात् ॥९॥ 

हे पृथानन्दन! अभ्यास योग से युक्त और अन्य का चिन्तन न करने वाले चित्त से परम दिव्य पुरुष का चिन्तन करता हुआ (शरीर छोड़ने वाला मनुष्य) उसी को प्राप्त हो जाता है। 
जो सर्वज्ञ, अनादि, सब पर शासन करने वाला सूक्ष्म से अत्यन्त सूक्ष्म, सब का धारण-पोषण करने वाला, अज्ञान से अत्यन्त परे, सूर्य की तरह प्रकाश-स्वरूप अर्थात ज्ञानस्वरूप- ऐसे अचिन्त्य स्वरूप का चिन्तन करता है।

ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.०५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥ ८॥

हे पृथानन्दन! अभ्यासयोगसे युक्त और अन्यका चिन्तन न करनेवाले चित्तसे परम दिव्य पुरुषका चिन्तन करता हुआ (शरीर छोडऩेवाला मनुष्य) उसीको प्राप्त हो जाता है।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.०४)

  तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥७॥ 

इसलिये तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। मुझ में मन और बुद्धि अर्पित करने वाला तू निःसन्देह मुझे ही प्राप्त होगा। 

व्याख्या- ऐसा कोई समय नहीं है, जिसमें अन्तकाल (मृत्यु) न आ सके। इसलिये मनुष्य को नित्य-निरन्तर भगवान का स्मरण करते रहना चाहिये। फिर किसी भी समय अन्तकाल आयेगा तो वह भगवान का स्मरण करते हुए ही शरीर छोड़ेगा, जिससे वह भगवान को ही प्राप्त होगा।  पूर्वपक्ष- यहाँ युद्ध का प्रसंग है। निरन्तर भगवत्स्मरण करते हुए युद्ध कैसे होगा और युद्ध करते हुए निरन्तर भगवत्स्मरण कैसे होगा? 
उत्तरपक्ष- एक याद करते हैं, एक याद रहती है। जो बात अहंता में बैठ जाती है, वह भूलती नहीं। अतः साधक सच्चे हृदय से दृढ़तापूर्वक स्वीकार कर ले कि ‘मै। भगवान् का ही हूँ; भगवान ही मेरे हैं’ तो फिर सब कार्य करते हुए भी भगवान की याद स्वतः निरन्तर बनी रहेगी। जैसे, ब्राह्मण को अपने ब्राह्मणपने का स्मरण बिना याद किये नित्य-निरन्तर बना रहता है। नींद में भी जगाकर उससे पूछो तो वह यही कहेगा कि मैं ब्राह्मण हूँ। इसमें अभ्यास नहीं है, प्रत्युत स्वीकृति है। विवाह होने पर पतिव्रता स्त्री बिना याद किये पति को याद रखती है, स्वप्न में भी नहीं भूलती। यह स्वीकृति है, जिसकी कभी विस्मृति नहीं होती। भगवान के साथ सम्बन्ध स्वीकार करने पर साधक के मन-बुद्धि स्वतः भगवान के अर्पित हो जाते हैं।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.०३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥ ५॥

जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरूपको ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।

व्याख्या—

भगवान्‌ ने मनुष्य पर विशेष कृपा करके उसे यह छूट दी है कि उसका जीवन कैसा ही रहा हो, यदि अन्तसमय में भी वह मुझे याद कर ले तो मैं उसका कल्याण कर दूँगा । कारण कि भगवान्‌ ने अहैतुकी कृपासे जीव को अपना कल्याण करनेके लिये ही मनुष्य शरीर दिया है ।

वास्तव में सब समय अन्तसमय ही है; क्योंकि अन्तसमय किसी भी समय आ सकता है । ऐसा कोई क्षण नहीं है, जिस क्षण में अन्तसमय न आता हो । इसलिये मनुष्य को हर समय भगवान्‌ को याद रखना चाहिये ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥ ४॥

हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! क्षर भाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ अधिभूत हैं,पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्मा अधिदैव हैं और इस देहमें (अन्तर्यामी-रूपसे) मैं ही अधियज्ञ हूँ।

व्याख्या—

जैसे एक ही जल-तत्त्व परमाणु, भाप, बादल, वर्षाकी क्रिया, बूँदें और ओले (बर्फ)-के रूपसे भिन्न-भिन्न दीखते हुए भी वास्तवमें एक ही है, इसी तरह एक ही परमात्मतत्त्व ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञके रूपसे भिन्न-भिन्न दीखते हुए भी वास्तव में एक ही हैं । परमाणुरूप से जल ‘ब्रह्म’ है, भापरूपसे जल ‘अधियज्ञ’ है, बादलरूप से जल ‘अधिदैव’ है, बूँदेंरूप से जल ‘अध्यात्म’ है, वर्षा की क्रिया ‘कर्म’ है और बर्फरूप से जल ‘अधिभूत’ है । परमात्मा के इसी समग्ररूप के लिये गीतामें आया है-‘वासुदेवः सर्वम्‌’ ( ७ । १९ ), ‘सद्सच्चाहम्‌’ ( ९ । १९ ), ‘सदसत्तत्परं‌ यत्‌’ ( ११ । ३७ ) ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - आठवाँ अध्याय (पोस्ट.०१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अर्जुन उवाच

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ १॥
अधियज्ञ: कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि:॥ २॥

श्रीभगवानुवाच

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसञ्ज्ञित:॥ ३॥

अर्जुन बोले—
हे पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है ? कर्म क्या है ? अधिभूत किसको कहा गया है ? और अधिदैव किसको कहा जाता है ? यहाँ अधियज्ञ कौन है ? और वह इस देहमें कैसे है ? हे मधुसूदन ! वशीभूत अन्त:करणवाले मनुष्योंके द्वारा अन्तकालमें आप कैसे जाननेमें आते हैं ?

श्रीभगवान् बोले—

परम अक्षर ब्रह्म है और परा प्रकृति (जीव)-को अध्यात्म कहते हैं। प्राणियोंकी सत्ताको प्रकट करनेवाला त्याग कर्म कहा जाता है।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.२५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥ २९॥
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:॥ ३०॥

वृद्धावस्था और मृत्युसे मुक्ति पानेके लिये जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको जान जाते हैं। जो मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैवके सहित और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे मुझमें लगे हुए चित्तवाले मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।

व्याख्या—

यद्यपि कर्मयोगी और ज्ञानयोगी भी जन्म-मरणसे मुक्त हो जाते हैं, तथापि शरणागत भक्त जन्म-मरणसे मुक्त होनेके साथ-साथ भगवान्‌के समग्ररूपकॊ भी जान लेते हैं । ब्रह्म, आध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ-यह भगवान्‌का समग्ररूप है । इसके भगवान्‌ने दो विभाग किये हैं । ब्रह्म (निर्गुण-निराकार), कृत्स्न अध्यात्म (अनन्त योनियोंके अनन्त जीव) तथा अखिल कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय आदिकी सम्पूर्न क्रियाएँ)- यह ‘ज्ञान’ का विभाग है, जिसमें निर्गुणताकी मुख्यता है । अधिभूत (अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पाञ्च्भौतिक जगत्‌), अधिदैव (मन-इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ=देवतासहित ब्रह्माजी आदि सभी देवता) तथा अधियज्ञ (अन्तर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप) यह ‘विज्ञान’ का विभाग है, जिसमें सगुणकी मुख्यता है । जिनमें भक्तिके संस्कार हैं; परन्तु जो जरा-मरण्रूप सांसारिक दुःखोंसे छूटना चाहते हैं, ऐसे साधक भगवान्‌का आश्रय लेकर ज्ञानयोगका साधन करते हैं । उन्हें ‘तत्‌’ अर्थात्‌ ब्रह्म, सम्पूर्ण अध्यात्म और अखिल कर्मका ज्ञान हो जाता है । परिणामस्वरूप वे जरा-मरणसे मुक्त हो जाते हैं । परन्तु भगवान्‌को चाहनेवाले भक्त भक्तियोगका साधन करते हैं । वे अधियज्ञसहित ब्रह्मको, अधिदैवसहित सम्पूर्ण अध्यात्मको और अधिभूतसहित अखिल कर्मको जान लेते हैं । परिणामस्वरूप उन्हें जरा-मरणसे मुक्तिके साथ-साथ ‘माम्‌’ अर्थात्‌ समग्ररूप भगवान्‌का भी ज्ञान हो जाता है (गीता १८ । ५५) । इसप्रकार विज्ञानसहित ज्ञानका अर्थात्‌ भगवान्‌के समग्ररूपका अनुभव होनेपर उनकी दृष्टिमें एक भगवान्‌के सिवाय किसीकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती । अतः अन्तकाल आनेपर वे भगवान्‌को ही प्राप्त होते हैं । कारण कि अन्तकालमें उन्हें जो भी चिन्तन होगा, वह भगवान्‌का ही चिन्तन होगा- ‘युक्तचेतसः’ । इस तीसवें श्लोकमें आये ‘युक्तचेतसः’ को ही आगे आठवें अध्यायमें ‘अनन्यचेताः’ कहा गया है ।

इस अध्यायके आरम्भमें भगवान्‌ ने ‘माम्‌’ पदसे अपने समग्ररूपको जाननेकी बात सुनानेकी प्रतिज्ञा की थी, उसी बातक उपसंहार यहाँ ‘मां विदुः’ पदसे करते हैं ।

‘तत्‌’ को जानेनेवाले संसार से मुक्त हो जाते हैं और ‘माम्‌’ को जानने वाले समग्ररूप भगवान्‌ को प्राप्त हो जाते हैं । इसी बातको चौथे अध्यायके पैँतीसवें श्लोकमें ‘येन भूतान्यशेषेण द्र्क्ष्यस्यात्मन्यथो मयि’ पदों से और अठारहवें अध्याय के चौवनवें श्लोकमें ‘समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌’ पदोंसे कहा गया है । भक्ति के द्वारा समग्ररूप भगवान्‌ को प्राप्त होने की बात आगे आठवें अध्याय के बाइसवें श्लोक में भी आयी है ।

विज्ञानसहित ज्ञानका अर्थात्‌ भगवान्‌के समग्ररूपका वर्णन करनेका तात्पर्य यही है कि जड़-चेतन, सत्‌-असत्‌, परा-अपरा, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, क्षर-अक्षर आदि जो कुछ भी है, वह सब-का-सब एक भगवान्‌का ही स्वरूप है । *

पहले जिन्हें परमात्मा, परा और अपरा प्रकृति कहा गया था, उन्हींके यहाँ दो-दो भेद किये गये हैं; जैसे-(१) परमात्मा-ब्रह्म और अधियज्ञ, (२) परा प्रकृति-अध्यात्म और अधिदैव, (३) अपरा प्रकृति-कर्म और अधिभूत । तात्पर्य है कि परमात्मा, परा और अपरा-तीनों ही मिलकर भगवान्‌का समग्ररूप है ।

....................................................................
* खं वायुमग्निं सलिलं महीं च ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन्‌ ।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं यत्किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः । ।
................(श्रीमद्भा० ११ । २ । ४१)

‘आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, जीव-जन्तु, दिशाएँ, वृक्ष, नदियाँ, समुद्र-सब-के-सब भगवान्‌के ही शरीर हैं- ऐसा मानकर भक्त सभी को अनन्यभाव से प्रणाम करता है ।’

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम
सप्तमोऽध्याय:॥ ७॥

Wednesday 3 May 2017

गीता प्रबोधनी - सातवाँ अध्याय (पोस्ट.२४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥ २७॥
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता:॥ २८॥

कारण कि हे भरतवंशमें उत्पन्न शत्रुतापन अर्जुन! इच्छा (राग) और द्वेषसे उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्व-मोहसे मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसारमें (अनादिकालसे) मूढ़ताको अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त हो रहे हैं।
परन्तु जिन पुण्यकर्मा मनुष्योंके पाप नष्ट हो गये हैं, वे द्वन्द्वमोहसे रहित हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं।

व्याख्या—

राग-द्वेषरूप द्वन्द्व से ही संसार का संबंध दृढ़ होता है और मनुष्य परमात्मा से विमुख हो जाता है । अतः मनुष्य की प्रवृत्ति तथा निवृत्ति राग-द्वेषपूर्वक नहीं होनी चाहिये ।
राग-द्वेषसे रहित मनुष्य परमात्माके सम्मुख हो जाता है । परमात्माके सम्मुख होनेपर सब पाप नष्ट हो जाते हैं । जबतक मनुष्यके भीतर राग-द्वेष रहते हैं, तबतक वह सव्रथा परमात्माके सम्मुख नहीं हो सकता । उसका जितने अंशमें संसारसे राग (सम्मुखता) रहता है, उतने अंशमें परमात्मासे द्वेष (विमुखता) रहता है ।

ॐ तत्सत् !