Saturday 3 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४२)

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैॢवधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥ ६४॥
प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते॥ ६५॥

परन्तु वशीभूत अन्त:करणवाला (कर्मयोगी साधक) राग-द्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ (अन्त:करणकी) निर्मलताको प्राप्त हो जाता है। (अन्त:करणकी) निर्मलता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दु:खोंका नाश हो जाता है और ऐसे शुद्ध चित्तवाले साधककी बुद्धि नि:सन्देह बहुत जल्दी (परमात्मामें) स्थिर हो जाती है।

व्याख्या—

यदि विषयोंमें रागबुद्धि न हो तो शास्त्रविहित भोगोंका सेवन करते हुए भी पतन नहीं होता, प्रत्युत उत्थान ही होता है ।

ॐ तत्सत् !

Friday 2 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४१)

ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते॥ ६२॥
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ ६३॥

विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे (बाधा लगनेपर) क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धि (विवेक)-का नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।

व्याख्या—

विषयभोगों को भोगना तो दूर रहा, उनका रागपूर्वक चिन्तन करनेमात्र से साधक पतन की ओर चला जाता है; कारण कि भोगों का चिन्तन भी भोग भोगने से कम नहीं है ।

ॐ तत्सत् !

Sunday 27 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४०)

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ६१॥

कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके मेरे परायण होकर बैठे;क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।

व्याख्या—

साधनकी पूर्णताके लिये भगवान्‌की परायणता आवश्यक है । भगवान्‌के परायण होनेसे इन्द्रियाँ सुगमतापूर्वक वशमें हो जाती हैं । अपने पुरुषार्थसे इन्द्रियोंको सर्वथा वशमें करना कठिन है । इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें होनेसे ही बुद्धि स्थिर होती है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३९)


विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥ ५९॥
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:॥ ६०॥

निराहारी (इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेवाले) मनुष्य-के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता। परन्तु परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे इस स्थितप्रज्ञ मनुष्यका रस भी निवृत्त हो जाता है अर्थात् उसकी संसारमें रसबुद्धि नहीं रहती।
कारण कि हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहनेसे) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं।

व्याख्या—

भोगोंके प्रति सूक्ष्म आसक्तिका नाम ‘रस’ है । यह रस साधककी अहंतामें रहता है । जबतक यह रस रहता है, तबतक परमात्माका अलौकिक रस (प्रेम) प्रकट नहीं होता । इस रसबुद्धिके कारणही भोगोंकी पराधीनता रहती है । साधकके द्वारा भोगोंका त्याग करनेपर भी रसबुद्धि बनी रहती है, जिसके कारण भोगोंके त्यागका बड़ा महत्त्व दीखता है और अभिमान भी होता है कि मैंने भोगोंका त्याग कर दिया है ।
यद्यपि यह रस तत्त्वप्राप्तिके पहले भी नष्ट हो सकता है, तथापि तत्त्वप्राप्तिके बाद यह सर्वथा नष्ट हो ही जाता है ।
बुद्धिमान्‌ साधकको अपनी इन्द्रियोंपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये । कारण कि जबतक अहंतामें रसबुद्धि पड़ी है, तबतक साधकका पतन होनेकी सम्भावना रहती है ।

ॐ तत्सत् !