Friday 24 March 2017

गीता प्रबोधनी- छठा अध्याय (पोस्ट.१२)

\समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥ १३॥
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थित:।
मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर:॥ १४॥

काया, सिर और गलेको सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओंको न देखकर केवल अपनी नासिकाके अग्रभागको देखते हुए स्थिर होकर बैठे।
जिसका अन्त:करण शान्त है, जो भयरहित है और जो ब्रह्मचारिव्रतमें स्थित है, ऐसा सावधान ध्यानयोगी मनका संयम करके मुझमें चित्त लगाता हुआ मेरे परायण होकर बैठे।

व्याख्या—

जिसका अन्तःकरण राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित है, जो शरीर में मैं-मेरापन न होने से भयरहित है और जो ब्रह्मचारी के नियमों का पालन करता है, वही ध्यानयोग का अधिकारी है । ध्यानयोगी सावधानी पूर्वक मन को संसार से हटाकर भगवान्‌ में लगाये । वह भगवान्‌ के ही परायण हो अर्थात्‌ भगवत्प्राप्ति के सिवाय उसका अन्य कोई उद्देश्य नहीं हो ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.११)


शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥ ११॥
तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय:।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥ १२॥

शुद्ध भूमिपर, जिसपर (क्रमश:) कुश, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न अत्यन्त ऊँचा है और न अत्यन्त नीचा, ऐसे अपने आसनको स्थिर स्थापन करके।

उस आसनपर बैठकर चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको वशमें रखते हुए मनको एकाग्र करके अन्त:करणकी शुद्धिके लिये योगका अभ्यास करे।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.१०)

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित: ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह: ॥१० ॥

भोगबुद्धि से संग्रह न करने वाला, इच्छारहित और अन्तःकरण तथा शरीर को वश में रखने वाला योगी अकेला एकान्त में स्थित होकर मन को निरन्तर (परमात्मा में) लगाये।

व्याख्या- ध्यान योग का अधिकारी वह है, जो अपने सुखभोग के लिये विभिन्न वस्तुओं का संग्रह नहीं करता, जिसके मन में भोगों की कामना नहीं है और जिसका अन्तःकरण तथा शरीर उसके वश में है। तात्पर्य है कि ध्यानयोग के साधक का उद्देश्य केवल परमात्मा को प्राप्त करने का हो, लौकिक सिद्धियों को प्राप्त करने का नहीं।

पूर्वपक्ष- युद्ध के समय में अर्जुन को ध्यानयोग का उपदेश देने का क्या औचित्य है?

उत्तरपक्ष- अर्जुन पाप से डरते थे, युद्ध से नहीं। उन्हें युद्ध से अधिक अपने कल्याण (श्रेय) की चिन्ता थी[1]। इसलिये कल्याण के जितने मुख्य साधन हैं, उन सबका भगवान गीता में वर्णन करते हैं। इसी कारण गीता मानव मात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है।

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.०९ )

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद् वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥९॥

सुहृद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियों में तथा साधु-आचरण करनेवालों में और पाप-आचरण करने वालों में भी समबुद्धि वाला मनुष्य श्रेष्ठ है।

व्याख्या- 
 
जिन से व्यवहार में एकता नहीं करनी चाहिये और एकता कर भी नहीं सकते, उन मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण में और सुहृद, मि, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य, बन्धु, साधु तथा पापी व्यक्तियों में भी कर्मयोगी महापुरूष की समबुद्धि रहती है। तात्पर्य है कि उसकी दृष्टि सब प्राणी-पदार्थों में समरूप से परिपूर्ण परमात्मतत्त्व पर ही रहती है। जैसे सोने से बने गहनों को देखें तो उन में बहुत अन्तर दीखता है, पर सोने को देखें तो कोई अन्तर नहीं, एक सोना-ही-सोना है। इसी प्रकार सांसारिक प्राणी पदार्थों को देखें तो उनमें बहुत बड़ा अन्तर है, पर तत्त्व से देखें तो एक परमात्मा-ही-परमात्मा हैं।
 
ॐ तत्सत् ! 

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.०८)


ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय:।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चन:॥ ८॥

जिसका अन्त:करण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जो कूट की तरह निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और मिट्टी, ढेले, पत्थर तथा स्वर्ण में समबुद्धिवाला है—ऐसा योगी युक्त (योगारूढ़) कहा जाता है।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.०७)


जितात्मन: प्रशान्तस्य परमात्मा समाहित:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो:॥ ७॥

जिसने अपनेपर विजय कर ली है, उस शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता),सुख-दु:ख तथा मान-अपमान में निर्विकार मनुष्य को परमात्मा नित्यप्राप्त हैं।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.०६)


बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥ ६॥

जिसने अपने-आपसे अपने-आपको जीत लिया है, उसके लिये आप ही अपना बन्धु है और जिसने अपने-आपको नहीं जीता है, ऐसे अनात्माका आत्मा ही शत्रुतामें शत्रुकी तरह बर्ताव करता है।

व्याख्या—

शरीरको मैं, मेरा और मेरे लिये न मानना अपने साथ मित्रता करना है । शरीरको मैं, मेरा और मेरे लिये मानना अपने साथ शत्रुता करना है । आप ही अपना मित्र बनकर मनुष्य अपना जितना भला कर सकता है, उतना दूसरा कोई मित्र नहीं कर सकता । इसी प्रकार आपही अपना शत्रु बनकर मनुष्य अपना जितना नुकासान कर सकता है, उतान दूसरा कोई शत्रु नहीं कर सकता ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.०५)


उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:॥ ५॥

अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।

व्याख्या—

गुरु बनना या बनाना गीताका सिद्धान्त नहीं है । वास्तवमें मनुष्य आप ही अपना गुरु है । इसलिये अपनेको ही उपदेश दे अर्थात्‌ दूसरे में कमी न देखकर अपनेमें ही कमी देखे और उसे मिटानेकी चेष्टा करे । भगवान्‌ भी विद्यमान हैं, तत्त्वज्ञान भी विद्यमान है और हम भी विद्यमान हैं, फित उद्धारमें देरी क्यों ? नाशवान्‌ व्यक्ति, पदार्थ और क्रियामें आसक्तिके कारण ही उद्धारमें देरी हो रही है । इसे मिटनेकी जिम्मेवारी हमपर ही है; क्योंकि हमने ही आसक्ति की है ।
पूर्वपक्ष-- गुरु, सन्त और भगवान्‌ भी तो मनुष्यका उद्धार करते हैं, ऐसा लोकमें देखा जाता है ?

उत्तरपक्ष-- गुरु, सन्त और भगवान्‌ भी मनुष्यका तभी उद्धार करते हैं, जब स्वयं उन्हें स्वीकार करता है अर्थात्‌ उनओअर श्रद्धा-विश्वास करता है, उनके सम्मुख होता है, उनकी शरण लेता है, उनकी आज्ञाका पालन करता है । गुरु, सन्त और भगवान्‌का कभी अभाव नहीं होता, पर अभीतक हमारा उद्धार नहीं हुआ तो इससे सिद्ध होता है कि हमने ही उन्हें स्वीका नहीं किया । जिन्होंने उन्हें स्वीकार किया, उन्हींका उद्धार हुआ । अतः अपने उद्धार और पतनमें हम ही हेतु हुए ।

ॐ तत्सत् !

Thursday 23 March 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.०४)

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥४॥

कारण कि जिस समय न इन्द्रियों के भोगों में तथा न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस समय वह सम्पूर्ण संकल्पों का त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है।

व्याख्या-

संसार का स्वरूप है- पदार्थ और क्रिया। मनुष्य योगारूढ़ (योग में स्थित) तभी होता है, जब उसकी पदार्थ और क्रिया में आसक्ति नहीं रहती। जबतक पदार्थ और क्रिया की आसक्ति है, तब तक वह संसार (विषमता) में ही स्थित है।

प्रत्येक पदार्थ का संयोग और वियोग होता है। प्रत्येक क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है। प्रत्येक संकल्प उत्पन्न और नष्ट होता है। परन्तु स्वयं नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है। इसलिये जब साधक पदार्थ और क्रिया की आसक्ति मिटा देता है तथा सम्पूर्ण संकल्पों का त्याग कर देता है, तब वह योगारू़ढ़ हो जाता है।

ॐ तत्सत् !

Tuesday 21 March 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.०३)

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते॥ ३॥

जो योग (समता)-में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमें कारण कहा गया है।

व्याख्या—

निष्कामभाव से केवल दूसरे के लिये कर्म करने से करने का वेग मिट जाता है । कर्म करने का वेग मिटने से साधक योगारूढ़ अर्थात्‌ समता में स्थित हो जाता है । योगारूढ़ होने पर एक शान्ति प्राप्त होती है । उस शान्तिका उपभोग न करनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ।
शम (शान्ति)- का अर्थ है-शान्त होना, चुप होना, कुछ न करना । जबतक हमारा सम्बन्ध ‘करने’ (क्रिया)-के साथ है, तबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है । जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक अशान्ति है, दुःख है, जन्म-मरणरूप बन्धन है । प्रकृतिके साथ सम्बन्ध ‘न करने’ से मिटेगा । कारण कि क्रिया और पदार्थ-दोनों प्रकृतिमें हैं । चेतन-तत्त्वमें न क्रिया है, न पदार्थ । इसलिये परमात्मप्राप्तिके लिये ‘शम’ अर्थात्‌ कुछ न करना ही कारण है । हाँ, अगर हम इस शान्तिका उप्भोग करेंगे तो परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी । ‘मैं शान्त हूँ’- इस प्रकार शान्तिमें अहंकार लगानेसे और ‘बड़ी शान्ति है’- इस प्रकार शान्तिमें संतुष्ट होनेसे शान्तिका उपभोग हो जाता है । इसलिये शान्तिमें व्यक्तित्व न मिलाये, प्रत्युत ऐसा समझॆ कि शान्ति स्वतः है । शान्तिका उपभोग करनेसे शान्ति नहीं रहेगी, प्रत्युत चंचलता अथवा निद्रा आ जायगी । उपभोग न करनेसे शान्ति स्वतः रहेगी । क्रिया और अभिमानके बिना जो स्वतः शान्ति होती है, वह ‘योग’ है । कारण कि उस शान्तिका कोई कर्ता अथवा भोक्ता नहीं है । जहाँ कर्ता अथवा भोक्ता होता है, वहाँ भोग होता है । भोग होनेपर संसारमें स्थिति होती है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.०२)

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन॥ २॥

हे अर्जुन! लोग जिसको संन्यास—ऐसा कहते हैं, उसीको तुम योग समझो;क्योंकि संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता।

व्याख्या—

सांख्ययोग और कर्मयोग-दोनों साधन अलग-अलग होने पर भी संकल्पों के त्याग में एक हैं । जब तक मनुष्य के अन्तःकरण में संसार की सत्ता, महत्ता और अपनापन है, तब तक वह संकल्पों का त्याग नहीं कर सकता । संकल्पों का त्याग किये बिना मनुष्य ज्ञानयोगी, हठयोगी, कर्मयोगी, भक्तियोगी आदि कोई-सा भी योगी नहीं होता, प्रत्युत भोगी होता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.०१)


श्रीभगवानुवाच

अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:॥ १॥

श्रीभगवान् बोले—कर्मफलका आश्रय न लेकर जो कर्तव्य-कर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्निका त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओंका त्याग करनेवाला योगी नहीं होता।

व्याख्या—

संन्यासी अथवा योगी मनुष्य न तो अग्निसे बँधता है, न क्रियाओंसे ही बँधता है, प्रत्युत कर्मफलकी इच्छासे बँधता है-‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५ । १२) । अतः जिसने कर्मफल की इच्छाका त्याग कर दिया है, वही सच्चा संन्यासी अथवा योगी है । कर्मफलकी आसक्तिका त्याग करनेसे परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती है-‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌’ (गीता १२ । १२) । अतः सच्चा त्यागी भी वही है, जिसने कर्मफलकी आसक्तिका त्याग कर दिया है-‘यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते’ (गीता १८ । ११) ।

ॐ तत्सत् !