Saturday 22 April 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.३२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स:।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥ ४४॥
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष:।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥ ४५॥

वह (श्रीमानों के घर में जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट मनुष्य) भोगोंके परवश होता हुआ भी उस पहले मनुष्यजन्ममें किये हुए अभ्यास (साधन)-के कारण ही (परमात्माकी तरफ) खिंच जाता है; क्योंकि योग (समता)-का जिज्ञासु भी वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है।
परन्तु जो योगी प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है और जिसके पाप नष्ट हो गये हैं तथा जो अनेक जन्मोंसे सिद्ध हुआ है, वह योगी फिर परम गतिको प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या—

स्वर्गादि लोकों से लौटकर श्रीमानों के घर में जन्म लेनेवाला साधक पहले किये हुए साधन के कारण जबर्दस्ती परमात्माकी तरफ खिंच जाता है ।
जो योग में प्रवृत्त नहीं हुआ है, पर अन्तःकरणमें योगका महत्त्व होनेके कारण जो योगको प्राप्त करना चाहता है, ऐसा योगका जिज्ञासु भी वदोक्त सकामकर्मोंसे तथा उनके फलसे ऊँचा उठ जाता है, फिर जो योगमें लगा हुआ है और योगभ्रष्ट हो गया है, उसका कल्याण हो जाय-इसमें कहना ही क्या है !
‘अनेकजन्म’ का अर्थ है-एकसे अधिक जन्म । श्रीमानों के घर में जन्म लेनेवाला सर्वप्रथम मनुष्यजन्म में साधन करके शुद्ध हुआ, फिर स्वर्गादि लोकों में जाकर वहाँ के भोगों से अरुचि होनेसे शुद्ध हुआ, और फिर श्रीमानों के घर जन्म लेकर तत्परतापूर्वक साधन में लगकर शुद्ध हुआ-इस प्रकार तीन जन्मों में शुद्ध होना ही उसक ‘अनेकजन्मसंसिद्ध’ होना है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.३१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन॥ ४३॥

हे कुरुनन्दन! वहाँपर उसको पिछले मनुष्यजन्मकी साधन-सम्पत्ति (अनायास ही) प्राप्त हो जाती है। फिर उससे (वह) साधनकी सिद्धिके विषयमें पुन: (विशेषतासे) यत्न करता है।

व्याख्या—

योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाले साधककी बुद्धिमें पूर्वजन्मके बैठे हुए संस्कार स्वतः जाग्रत हो जाते हैं । पहले किया हुआ साधन उसे बिना परिश्रम प्राप्त हो जाता है । सांसारिक सम्पत्ति तो मरनेपर सर्वथा छूट जाती है, पर पारमार्थिक सम्पत्ति मरनेपर भी साथ जाती है । कारण कि सांसारिक सम्पत्ति बाह्य है और पारमार्थिक सम्पत्ति आन्तरिक । स्वयंमें बैठी बात नष्ट नहीं होती ।

ॐ तत्सत् !

Tuesday 18 April 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.३०)

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा:।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥ ४१॥
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥ ४२॥

वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करनेवालोंके लोकोंको प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षोंतक रहकर फिर यहाँ शुद्ध (ममतारहित) श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है।
अथवा (वैराग्यवान् योगभ्रष्ट) ज्ञानवान् योगियोंके कुलमें ही जन्म लेता है। इस प्रकारका जो यह जन्म है, यह संसारमें नि:सन्देह बहुत ही दुर्लभ है।

व्याख्या—

जिस साधकके भीतर भोगोंकी वासना नहीं मिटी है, ऐसा साधक योगभ्रष्ट होने पर स्वर्गादि उच्च लोकोंमें जाता है, फिर श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है । परन्तु जिस साधकके भीतर भोगोंकी वासना मिट गयी है, ऐसा साधक (सूक्ष्म वासनाके कारण अन्त समयमें विषय-चिन्तन होनेसे) स्वर्गादि लोकोंमें न जाकर सीधे योगियोंके घरमें जन्म लेता है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.२९)

अर्जुन उवाच

अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥ ३७॥
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मण: पथि॥ ३८॥
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषत:।
त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥ ३९॥

श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥ ४०॥

अर्जुन बोले—

हे कृष्ण ! जिसकी साधनमें श्रद्धा है, पर जिसका प्रयत्न शिथिल है, वह (अन्तसमयमें) अगर योगसे विचलित हो जाय तो वह योगसिद्धिको प्राप्त न करके किस गतिको चला जाता है?
हे महाबाहो! संसारके आश्रयसे रहित और परमात्मप्राप्तिके मार्गमें मोहित अर्थात् विचलित—इस तरह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता?
हे कृष्ण! मेरे इस सन्देहका सर्वथा छेदन करनेके लिये आप ही योग्य हैं;क्योंकि इस संशयका छेदन करनेवाला आपके सिवाय दूसरा कोई हो नहीं सकता।

श्रीभगवान् बोले—

हे पृथानन्दन ! उसका न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है; क्योंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को नहीं जाता।

व्याख्या—

जैसे कोई बद्रीनाथ की यात्रापर निकले तो वह रात होते-होते जहाँतक पहुँच चुका है, प्रातः उठनेके बाद वह वहींसे यात्रा आरम्भ करता है । रातको सोनेपर वह वापिस अपने घर नहीं पहुँच जाता ! ऐसे ही ध्यानयोगी जिस स्थितितक पहुँच चुका है, मरनेपर वह उस स्थितिसे नीचे नहीं गिरता । उसका किया हुआ साधन नष्ट नहीं होता । कारण यह है कि उसका उद्देश्य अपने कल्याणका बन चुका है । अब वह दुर्गतिमें नहीं जा सकता । इसलिये परमात्मप्राप्तिके के मार्गमें निराश होनेका कोई स्थान नहीं है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.२८)

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत:॥ ३६॥

जिसका मन पूरा वशमें नहीं है, उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है। परन्तु उपायपूर्वक यत्न करनेवाले तथा वशमें किये हुए मनवाले साधकको योग प्राप्त हो सकता है, ऐसा मेरा मत है।

व्याख्या—

अर्जुनने ध्यानयोगके सिद्ध होनेमें मनकी चंचलताको बाधक मान लिया । वास्तवमें मनकी चंचलता उतनी बाधक नहीं है, जितना मनका वशमें न होना बाधक है । पतिव्रता स्त्री मनको एकाग्र नहीं करती, प्रत्युत मनको वशमें रखती है ।
मन एकाग्र होनेसे (अन्तःकरणमें स्थित रागके कारण) सिद्धियाँ आती हैं, जिससे जड़ताके साथ सम्बन्ध बना रहता है । दूसरी बात, मनको एकाग्र करनेके लिये अभ्यास आवश्यक है, जो जड़ताकी सहयताके बिना सम्भव नहीं है, तीसरी बात, एकाग्र होनेपर मन कुछ समयके लिये निरुद्ध हो जाता है, जिससे फिर व्युत्थान हो जाता है । यह व्युत्थान जड़तासे सम्बन्ध होनेके कारण ही होता है । तात्पर्य है कि मन एकाग्र होनेसे जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता । परन्तु रागका नाश होनेपर जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । इसलिये भगवान्‌के मतमें मनकी एकाग्रताका महत्त्व नहीं है, प्रत्युत रागरहित होनेका महत्त्व है ।
मनको वशमें अर्थात्‌ शुद्ध करनेके दो उपाय हैं-कभी भी राग-द्वेष न होना और सबमें भगवान्‌को देखना । जबतक साधकके भीतर राग-द्वेष रहते हैं, तबतक वह सबमें भगवान्‌को नहीं देख पाता । जबतक साधक सबमें भ्गवान्‌को नहीं देखता, तबतक मन सर्वथा वशमें नहीं होता । कारण कि जबतक साधककी दृष्टिमें एक भगवान्‌के सिवाय दूसरी सत्ताकी मान्यता रहती है, तबतक मनका सर्वथा निरोध नहीं हो सकता ।

ॐ तत्सत् !