Saturday 8 April 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.२३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ ३०॥

जो (भक्त) सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

व्याख्या—

ध्यानयोगके जिस साधकमें भक्तिके सम्स्कार रहते हैं, जो भक्तिको ही मुख्य मानता है, वह जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर सबमें भगवान्‌को और भगवान्‌में सबको देखता है । अतः उसके लिये भगवान्‌ अदृश्य नहीं होते और वह भगवान्‌के लिये अदृश्य नहीं होता । जब एक भगवान्‌के सिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं, भगवान्‌ ही अनेक रूपोंमें प्रकट हो रहे हैं, फिर भगवान्‌ कैसे छिपें, कहाँ छिपें, किसके पीछे छिपें ?

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी- छठा अध्याय (पोस्ट.२२)

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥ २९॥

सब जगह अपने स्वरूपको देखनेवाला और ध्यानयोगसे युक्त अन्त:करणवाला (सांख्ययोगी) अपने स्वरूपको सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित देखता है और सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूपमें देखता है।

व्याख्या—
ध्यानयोगके जिस साधकमें ज्ञानके संस्कार रहते हैं, जो ज्ञानको मुख्य मानता है, वह जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर स्वयंको सब प्राणियोंमें तथा सब प्राणियोंको स्वयंमें अनुभव करता है ।

 ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.२१)


युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष:।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥ २८॥

इस प्रकार अपने-आपको सदा परमात्मामें लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुखका अनुभव कर लेता है।

व्याख्या—

अपने-आपको परमात्मामें लगानेका तात्पर्य है-कुछ भी चिन्तन न करना अर्थात्‌ बाहर-भीतरसे चुप, शान्त हो जाना । न संसार (बाहर)-का चिन्तन हो, न परमात्मा (भीतर)- का । कुछ भी चिन्तन न करनेसे स्वतः साधककी स्थिति परमात्मतत्त्वमें होती है ।
मनको परमात्मामें लगाना करणसापेक्ष साधन है (गीता ६ । २६), और अपने-आपको परमात्मामें लगाना करणनिरपेक्ष साधन है । करणनिरपेक्ष साधनमें जड़ताका सम्बन्ध सर्वथा न रहनेसे साधक सुखपूर्वक परमात्माको प्राप्त कर लेता है । परन्तु करणसापेक्ष साधनमें परमात्माको कठिनतापूर्वक प्राप्त किया जाता है (गीत १२ । ५ ) ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.२०)

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥ २७॥

जिसके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिसका रजोगुण शान्त हो गया है तथा जिसका मन सर्वथा शान्त (निर्मल) हो गया है, ऐसे इस ब्रह्मरूप बने हुए योगीको निश्चित ही उत्तम (सात्त्विक) सुख प्राप्त होता है।

ॐ तत्सत् !

Wednesday 5 April 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.१९)


यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥ २६॥

यह अस्थिर और चंचल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, वहाँ-वहाँ से हटाकर इसको एक परमात्मा में ही भली भाँति लगाये।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.१८)

सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत:।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्तत:॥ २४॥
शनै: शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥ २५॥

संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग करके और मनसे ही इन्द्रियसमूहको सभी ओरसे हटाकर।
धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा (संसारसे) धीरे-धीरे उपराम हो जाय और मन (बुद्धि)-को परमात्मस्वरूपमें सम्यक् प्रकारसे स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे।

व्याख्या—

सर्वप्रथम साधक बुद्धिसे यह निश्चय कर ले कि स्मपूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदिमें एक परमात्मतत्त्व्के सिवाय कुछ भी नहीं है । तत्पश्चात इस निश्चय्का भी त्याग करके साधक बाहर-भीतर्से चुप हो जाय अर्थात्‌ कुछ भी चिन्तन न करे, न संसारका, न आत्माका, न परमात्माका । कारण कि साधक कुछ भी चिन्तन करेगा तो चित्त (जड़) साथमें रहेगा, चित्तसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा । वह किसीका भी चिन्तन करेगा तो किसीका ही चिन्तन होगा और किसीका भी चिन्तन नहीं करेगा तो परमात्माका चिन्तन होगा अर्थात्‌ परमात्मामें स्थिति होगी । अन्य कोई भी चिन्तन यदि अपने-आप आ जाय तो साधक उसकी उपेक्षा कर दे अर्थात्‌ परमात्मामें स्थिति होगी । अन्य कोई भी चिन्तन यदि अपने-आप आजाय तो साधक उसकी उपेक्षा कर दे अर्थात्‌ उसमें न तो यह भाव आये कि ‘यह बना रहे’ और न ही यह भाव आये कि ‘यह चला जाय’ । उसमें न राग करे, न द्वेष करे और न उसे अपनेमेंही माने । मुझे कुछ भी चिन्तन नहीं करना है- ऐसा आग्रह भी साधक न रखे । साधकका स्वभाव ही स्वतः चुप, शान्त होनेका तथा अपने लिये कुछ न करनेका बन जाय ।

पूर्वपक्ष- कुछ भी चिन्तन न करनेसे जो साक्षीभाव रहेगा, वह तो बुद्धिमें ही रहेगा ?

उत्तरपक्ष- साक्षीभाव तो बुद्धिमें रहेगा, पर उसका परिणाम स्वयंमें होगा; जैसे-युद्ध तो सेना करती है, पर परिणाममें विजय राजाकी ही होती है । साधकका यह साक्षीभाव भी बिना उद्योग किये स्वतः मिट जायगा ।

पूर्वपक्ष- व्यर्थ चिन्तनको मिटानेके लिये परमात्माका चिन्तन करें तो क्या आपत्ति है ?

उत्तरपक्ष- एक चिन्तन किया जात है, एक स्वतः होता है । जैसे भूख लगनेपर अन्नका चिन्तन स्वतः होता है, ऐसे साधकको परमात्माका चिन्तन स्वतः होना चाहिये, जो परमात्माकी आवश्यकता समझ्नेपर ही होगा । परन्तु साधककी प्रायः यह दशा होती है कि उसे परमात्माका चिन्तन तो करना पड़ता है, पर सांसारके चिन्तनको मिटानेके लिये वह बलपूर्वक परमात्माका चिन्तन करता है । इसका परिणाम यह होता है कि बलपूर्वक किये गये चिन्तनका प्रभाव भी अन्तःकरणमें अंकित हो जाता है और संसारका चिन्तन भी होता रहता है । इससे साधकके भीतर यह अभिमान उत्पन्न हो जाता है कि मैंने इतने वर्षोंतक साधन किया अथवा वह निराश हो जाता है कि इतने वर्षोंतक साधन करनेपर भी लाभ नहीं हुआ ! अतः साधक निद्रा-आलस्य छोड़कर चुप, शान्त रहने का स्वभाव बना ले । कुछ भी चिन्तन न करनेसे साधककी स्थिति स्वतः परमात्मा में ही होगी ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.१७)


सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:॥ २१॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥ २२॥
तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥ २३॥

जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य है, उस सुखका जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस सुखमें स्थित हुआ यह ध्यानयोगी तत्त्वसे फिर कभी विचलित नहीं होता।
जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दु:खसे भी विचलित नहीं किया जा सकता।
जिसमें दु:खोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको 'योग नामसे जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोगका लक्ष्य है), उस ध्यानयोगका अभ्यास न उकताये हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक करना चाहिये।

व्याख्या—

ध्यानयोगीको जिस अविनाशी सुखक अनुभव होता है, वह प्रकृतिजन्य गुणोंसे अतीत है । इसलिये उस सुखको ‘आत्यन्तिक’ अर्थात्‌ सात्त्विक सुखसे विलक्षण, ‘अतीन्द्रिय’ अर्थात्‌ राजस सुखसे विलक्षण और ‘बुद्धिग्राह्य’ अर्थात्‌ तामस सुखसे विलक्षण बताया गया है । जड़ताके साथ सम्बन्ध रहनेसे ही मनुष्य विचलित होता है । ध्यानयोगीका जड़तासे सम्बन्ध सर्वथा छूट जाता है; अतः वह तत्त्वसे कभी विचलित नहीं होता । जैसे समाधि से व्युत्थान होता है, ऐसे उसका अविनाशी सुखसे कभी व्युत्थान नहीं होता ।

जिस सुखके लाभका तो अन्त नहीं है और हानिकी सम्भावना ही नहीं है, तथा जिसमें दुःखका लेश भी नहीं है-ऐसे अखण्डसुख के प्राप्त होने में ही सभी साधनों की पूर्णता है |

‘संयोग’ तथा ‘वियोग’ का विभाग अलग और ‘योग’ का विभाग अलग है । शरीर-संसारके संयोगका वियोग तो अवश्यम्भावी है, पर परमात्माके ‘योग’ का कभी वियोग होता ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं । कारण कि शरीर-संसार कभी हमारे साथ रहते ही नहीं और परमात्मा कभी हमारा साथ छोड़ते ही नहीं । परमात्माका यह योग सभी साधकोंका साध्य है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.१६)

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥ २०॥

योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आपसे अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें ही सन्तुष्ट हो जाता है।

व्याख्या—

दूसरे अध्यायके पचपनवें श्लोकमें जिस तत्त्वकी प्राप्ति कर्मयॊगसे बतायी थी, उसी तत्त्वकी प्राप्ति यहाँ ध्यानयोगसे बतायि गयी है । दोनों साधनोंका प्रापणीय तत्त्व एक होनेपर भी ध्यानयोगमें तत्त्वकी प्राप्ति कठिनतासे तथा विलम्बसे होती है और इसमें योगभ्रष्ट होनेकी भी सम्भावना रहती है (गीता ६ । ४१-४४) । कारण कि ध्यानयोग करणसापेक्ष साधन है ।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.१५)

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥ १८॥
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मन:॥ १९॥

वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे नि:स्पृह हो जाता है, उस कालमें वह योगी है—ऐसा कहा जाता है।
जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है,योगका अभ्यास करते हुए वशमें किये हुए चित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।

ॐ तत्सत् !

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.१४)


नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत:।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥ १६॥
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥ १७॥

हे अर्जुन ! यह योग न तो अधिक खानेवालेका और न बिलकुल न खानेवाले का तथा न अधिक सोनेवाले का और न बिलकुल न सोनेवाले का ही सिद्ध होता है।
दु:खोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका तथा यथायोग्य सोने और जागनेवालेका ही सिद्ध होता है।

ॐ तत्सत् !

Sunday 2 April 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.१३)

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस:।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥ १५॥

वशमें किये हुए मनवाला योगी मनको इस तरह से सदा (परमात्मामें) लगाता हुआ मुझ में सम्यक् स्थिति वाली जो निर्वाणपरमा शान्ति है, उसको प्राप्त हो जाता है।

ॐ तत्सत् !